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________________ ANILAINTAIMIMLAIMUMBAI BIRHAAHALIP हिन्दी-जैनसाहित्यका इतिहास amin10miltinititimminine ५४३ कि जैनग्रन्थ छपने न पावें । इधर कुछ लोगों. म्बर सम्प्रदायकी प्रधान भाषा हिन्दी है, और पर नया प्रकाश पड़ा और उन्होंने जैनग्रन्थोंके श्वेताम्बर सम्प्रदायकी गुजराती । श्वेताम्बरोंकी छपानेके लिए प्रयत्न करना शुरू किया । लगा- बस्ती यद्यपि राजपूताना, युक्तप्रान्त और पंजाबमें तार २० वर्ष तक दोनों दलोंमें अनवरत युद्ध भी कम नहीं है; परन्तु उक्त प्रान्तोंमें शिक्षाप्राप्त चला और अभी वर्ष ही दो वर्ष हुए हैं, जब जैनोंकी कमीसे और गुजरातमें शिक्षित जैनोंकी इसकी कुछ कुछ शान्ति हुई है। फिर भी जैन- अधिकतासे इनकी धार्मिक चर्चामें गुजराती समाजमें ऐसे मनुष्योंकी कमी अब भी नहीं है भाषाका प्राधान्य हो रहा है । श्वेताम्बर सम्प्रजिन्हें पक्का विश्वास है कि ग्रन्थ छपानेवाले नर- दायके साधुओंमें भी गुजराती जाननेवालोंकी ही कमें जायेंगे और वहाँ उन्हें असह्य यातनायें सह- संख्या अधिक है, इसलिए उनके द्वारा भी सर्बत्र नी पड़ेंगी ! और समाजोंमें भी थोड़ा थोड़ा गुजरातीकी ही तूती बोलती है। ऐसी दशामें यदि छापेका विरोध शुरू शुरूमें हुआ था, पर हिन्दीका श्वेताम्बरसाहित्य पड़ा रहे, उसकी जैनसमाज सरीखा विरोध शायद ही कहीं हुआ कोई दूँढ खोज न करे, तो क्या आश्चर्य है । हो । इसने इस विषयमें सबको नीचा दिखला जहाँ तक हम जानते हैं, श्वेताम्बर सम्प्रदायके दिया।अभी तीन ही चार वर्ष हुए हैं जब 'जैन- बहुत ही कम लोगोंको यह मालूम है कि हिन्दीमें रत्नमाला' और 'जैनपताका' नामके मासिक पत्र भी श्वेताम्बर साहित्य है । इस तरह हिन्दीछापेका विरोध करनेके लिए ही निकलते थे भाषाभाषी श्वेताम्बरोंकी उपेक्षा, अनभिज्ञता और ग्रन्थ छपानेवालोंको पानी पी पकिर कोसते और गुजरातीकी प्रधानताके कारण भी हिन्दीके थे। ऐसी दशामें जब कि स्वयं जैनोंको ही जैनसाहित्यका एक बड़ा भाग अप्रकट हो हिन्दीका जैनसाहित्य सुगमतासे मिलनेका रहा है। उपाय नहीं था, तब सर्वसाधारणके निकट तो जैनसमाजके विद्वानोंकी अरुचि या उपेक्षावह प्रकट ही कैसे हो सकता था ! दृष्टि भी हिन्दी जैनसाहित्यके अप्रकट रहनेमें २ एक तो जैनसमाज इतना अनुदार है कि कारण है। उच्च श्रेणीकी अंगरेजी शिक्षा पाये वह अपने ग्रन्थ दूसरोंके हाथमें देनेसे स्वयं हिच- हए लोगोंकी तो इस ओर रुचि ही नहीं है। कता है और फिर जैनधर्मके प्रति सर्वसाधारण- उन्हें तो इस बातका विश्वास ही नहीं है कि के भाव भी कुछ अच्छे नहीं हैं। नास्तिक वेद- हिन्दीमें भी उनके सोचने और विचारनेकी कोई विरोधी आदि समझकर वे जैनसाहित्यके प्रति चीज मिल सकती है। अभी तक शायद एक अरुचि या विरक्ति भी रखते हैं । शायद उन्हें भी हिन्दीके जैनग्रन्थको यह सौभाग्य प्राप्त नहीं यह भी मालूम नहीं है कि हिन्दीमें जैनधर्मका साहित्य भी है और वह कुछ महत्त्व रखता है। 3 हुआ है कि उसका सम्पादन या संशोधन किसी " ऐसी दशामें यदि जैनसाहित्य अप्रकट रहा जैन ग्रेज्युएटने किया हो। शेष रहे संस्कृतज्ञ सज्जन, और लोग उससे अनभिज्ञ रहे, तो कुछ आश्चर्य सो उनकी दृष्टिमें बेचारी हिन्दीकी-भाखाकी-औनहीं है। कात ही क्या है ? वे अपनी संस्कृतकी धुनमें ही ___३ हिन्दीका जैनसाहित्य दो भागोंमें विभक्त मस्त रहते हैं । हिन्दी लिखना भी उनमेंसे बहुत है एक दिगम्बर और दूसरा श्वेताम्बर । दिग- कम सज्जन जानते हैं। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.522829
Book TitleJain Hiteshi 1916 Ank 11 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherJain Granthratna Karyalay
Publication Year1916
Total Pages104
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jain Hiteshi, & India
File Size14 MB
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