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________________ ५९२ SHAMEDHARAMBHARTICLECRUILLABUALTD जैनहितैषी कृपाकरके थोड़ी देरके लिए इस दुखिया को छोड़ कर सारे देशको मिथ्याती मानकर और अभामे भारतवर्षकी ओर देखो । आपके उनसे दूर रहनेका उपदेश दे रहे हैं और समग्र शास्त्रों में जिस आर्यदेशको अध्यात्मज्ञानका देशके सुखदुखकी बातोंको जुदा रख कर रातदिन भाण्डार, लक्ष्मीदेवीका निवास, क्षात्रतेजकी एक शाखाकी, नहीं नहीं उस शाखाकी भी जन्मभूमि, पृथ्वी जल और आकाश पर विजय शाखा-प्रशाखा-की ही बातोंमें मस्त हो रहे हैं; प्राप्त करनेवाली विद्याओंका जनक और स्वत- ऐसी दशामें बतलाइए, भारतमाताके उद्धारकी न्त्रता देवीका क्रीडास्थल बतलाया है, उस देश- चिन्ता करनेवाले उक्त देवगण आपके विषयमें की-उस आर्यावर्तकी-वर्तमान दशाका वर्णन क्या सोचेगें । क्या आपने कभी श्रीमान् दादाभाई नौरोजी या इस बातको तो आप स्वीकार करते हैं कि या श्रीमती एनी बीसेंट के मुखसे या कलमसे पूजन व्यवहार धर्म है, निश्चय धर्म नहीं है । तो निकला हुआ सुना या बाँचा है ? इसकी दिलको भी किसी एक प्रकारकी पूजाके लिए, उससे दहला देनेवाली भयंकर दरिद्रता, दुर्बलता, विभिन्न प्रकारकी पूजा करनेवालोंके साथ लड़बीमारी, बुद्धिमन्दता, जडता, सत्वहीनता, नेमें आप अपने बहमल्य समयका और देशको उत्पादक शक्तियों और उत्पादक साधनोंका विज्ञानादिमें आगे बढ़ाने के लिए जिसकी आवक्षय, आदि बातोंको क्या आप देख नहीं सकते श्यकता है उस लक्ष्मीका व्यय कर रहे हैं। हैं ? करोड़ों मनुष्यों पर चढ़े हुए इन भयंकर पूजन करो, आनन्द और उत्साहसे आप अपनी भूतोंको दूर करने के लिए देशके कितने ही ही पद्धतिके अनुसार पूजा करो और उस पूज'देवों ' ने जो महान् प्रयत्न करना शुरू किया नमेंसे पूज्य देवका बल, ज्ञान और चारित्र है, उससे क्या आप सर्वथा ही अज्ञात हैं ? सम्पादन करके बलवान् बनो; परन्तु पूजाभारत माताको फिर से सुजला सुफला सुख- पद्धतिको पारस्परिक बलका बलिदान करानेसम्पन्ना बनाने के लिए ये 'देवगण' जी तोड़ परि- वाला तत्त्व मत बनाओ, यही मेरी प्रार्थना है। श्रम कर रहे हैं, उसमें शामिल होनेके लिए श्वेताम्बर और दिगम्बर दोनोंकी पूजनपद्धति आपको, मुझे और सबको पुकार रहे हैं, तो बनी रहे और दोनों अपनी अपनी पद्धतिसे भी क्या आप उस पुकारकी ओर बहरे कान अपने इष्ट देवकी पूजा कर सकें, क्या इस प्रकाकिये रहेंगे ? वे पुकार पुकार कर कह रहे हैं रका प्रबन्ध आप सारे पवित्र तीर्थक्षेत्रों पर नहीं कि अपने प्यारे देशकी दशा सुधारनेके लिए कर सकते हैं ? किसी स्थलपर दोनों एक ही मन्दिसबसे पहले ऐक्यकी आवश्यकता है और फिर रमें पूजनपाठ करें, किसी स्थलपर दोनोंके लिए इस ऐक्यबलसे हमें निरुद्योगिता और अज्ञान- अलग अलग मन्दिरोंकी व्यवस्था कर दी जाय और ताको इस देशसे निकाल कर अलग कर देना किसी स्थलपर कोई और प्रबन्ध दोनों सम्प्रदायहै । हाय ! इन देवोंकी अपील-प्रार्थना-सुनने- की सलाहसे कर लिया जाय, इस तरह क्या आपके लिए तो आप अभी तक भी तैयार नहीं हुए समें विश्वास प्रेम और ऐक्य उत्पन्न नहीं किया हैं और पूजनविधिके एक तुच्छ भेदके कारण जा सकता ? यदि आप इसके लिए इस प्रकारलड़ने झगड़नेके लिए कमर कसे हुए हैं, मिथ्या- का कोई अच्छा निरुपद्रव मार्ग तजवीज नहीं त्वकी विचित्र व्याख्याओं के अनुसार अपनेकर सकते हैं तो क्या इसका अर्थ यह नहीं Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.522829
Book TitleJain Hiteshi 1916 Ank 11 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherJain Granthratna Karyalay
Publication Year1916
Total Pages104
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jain Hiteshi, & India
File Size14 MB
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