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________________ ५६४ KAMARITAIMERALIAMLILABALIBAGALLAHRA जैनहितैषी। TUmminiminimum यद्यपि इस ग्रन्थकी रचना नाटकसमयसार चौथा ग्रन्थ नाममाला हिन्दीका दोहाबद्ध जैसी नहीं है, तो भी विषयके लिहाजसे वह कोश है । इसे हमने अभीतक देखा नहीं है, खासी है। कहीं कहींका वर्णन बड़ा ही स्वाभा- पर खोजनेसे यह मिल सकता है । कविवरका विक और हृदयस्पर्शी है । अपने भाई धन- एक और ग्रंथ शृंगाररसकी रचनाओंका संग्रह मलकी मृत्युका शोक कविने इस प्रकार वर्णन था जिसे उन्होंने स्वयं जमुनामें बहा दिया था। किया है: उन्हें इस विषयसे घृणा होगई थी और घनमल घनदर यही कारण था जो उन्होंने उसका अस्तित्व ही काल-पवन-संजोग । न रहने दिया। मात पिता तरुवर तए, २ कल्याणदेव । ये श्वेताम्बर साधु जिनचन्द्र लहि आतप सुत-सोग ॥ १९ जब कविवर एक बड़ी बीमारीसे मुक्त होकर. सूरिके शिष्य थे। इनके बनाये हुए देवराज बच्छ राज चउपई' नामक एक ग्रन्थकी हातलिखित ससुरालसे घर आये तब प्रति हमें श्रीमान यति माणिक चन्द्रजीकी कृपासे आय पिताके पद गहे, प्राप्त हुई है । संवत् १६४३ में यह ग्रन्थ विक्रम मा रोई उर ठोकि। जैसे चिरी कुरीजकी, नामक नगरमें रचा गया है। इसमें एक राजाके त्यों सुत दशा विलोकि ॥१९४॥ पुत्र बच्छराज और देवराजकी कहानी है। एक बार परदेशमें कवि अपने साथियोंके बच्छराज बड़ा था, परन्तु मर्य था, इस कारण सहित कहीं ठहरे कि इतने में मसलधार पानी राज्य देवराजको मिला। ऋच्छराज्य घरसे निकल बरसने लगा। तब भागकर सरायमें गये, पर गया, पीछे अनेक कष्ट सहकर और अपनी वहाँ जगह न मिली. कोई उमराव ठहरे हुए थे. उन्नति करके आया। भाईने बहुत सी परीक्षाबाजार में खड़े होनेको जगह न थी, सबके कि- ये लीं । अन्तमें बच्छराज उत्तिर्ण हुआ और बाड़ बन्द थे। उस समयका चित्र कविवर इस स आधे राज्यका स्वामी हो गया। रचना साधारण आ तरह खींचते हैं: है। भाषामें गुजरातीका मिश्रण है और यह बात फिरत फिरत फावा भये, श्वेताम्बर सम्प्रदायके हिन्दी साहित्यमें अक्सर बैठन कहै न कोई। पाई जाती है । नमूनातलै कीचसौं पग भरें, जिणावर चरणकमल नमी, ऊपर वरसत तोइ ॥ ९४॥ सुह गुरुहीय धरेसि । अंधकार रजनी विय, समरयां सवि सुख संपजइ, हिमरितु अगहन मास । भाजइ सयल कलेसि ॥१ नारि एक बैठन कह्यौ, बुद्धइ घणसुख पाइए, पुरुष उठ्यो लै बाँस ॥९५॥ बुद्धलाहिए राज। बनारसीदास अपने दूसरे पुत्रकी मृत्युका बुद्धइ आति गरुअउपणउ, उल्लेख इन शब्दों में करते हैं - बुद्धि सरइ सवि काज ॥३ बानारसिके दूसरो, भयौ और सुत-कीर। विद्याधर कुल ऊपनी, दिवस कैकुमैं उड़ि गयौ,ताजे पांजरासरीर॥ सुरवेगा अभिधान। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.522829
Book TitleJain Hiteshi 1916 Ank 11 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherJain Granthratna Karyalay
Publication Year1916
Total Pages104
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jain Hiteshi, & India
File Size14 MB
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