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________________ GARLIABHAIRAILERODURATIRAL उन्माद। HymntrimmummITIES ५९९ ONDONE-942OMDOMLONDONPONDONPONDONENCशट * RESSTERSNSISNSORSONSIS करते हैं ? २५ दिन विद्यालयमें हड़ताल रहे और जैनसमाजके कान तक उसकी भनक भी न पहुँचे, क्या यही संचालकोंकी जिम्मेवारी है? उन्माद । क्या किसीको समाजके इतने दृव्यके अपव्यय- CHANDANATHANISAPANISAPANA की कुछ चिन्ता है ? किन्तु केवल पूछकर भी चुपचाप बैठ जाना . (ले०, श्रीयुत बाबु पदुमलाल बक्षी बी. ए.,) ठीक न होगा । यदि उचित प्रबंध न हो सके तो हरिनाथ बाबू खूब निपुण डाक्टर थे । समाजको अपनी ओरसे उचित प्रबंध करना अपने व्यवसायमें उन्हें यथेष्ट सफलता हुई थी। होगा। ऐसा करनेमें किसी व्यक्तिविशेषके हानि लोगोंको उन पर बड़ा विश्वास होगया था । तो लाभका विचार सर्वथा दूर कर देना होगा । भी लोग उनसे संतुष्ट नहीं थे । कुछ तो उन्हें जबतक समाज ऐसा करनेके लिए तैयार नहीं नर-पिशाच तक कहते थे। इसमें संदेह नहीं, होगी तबतक समझना होगा कि स्वयं समाज हरिनाथ बाबूमें थोड़ी भी दया नहीं थी। चाहे भी अपने हानि लाभको नहीं समझती । क्या कोई कैसी भी दशामें हो, विना फीस लिये ऐसे चरित्रके पंडितोंको तैय्यार करा कर समाज डाक्टर बाबू जाते नहीं थे। कितने ही असमर्थ अपने पैर में आप कुल्हाड़ी नहीं मारती ? क्या गृहस्थ उनके पास गये पर सबको हताश होकर स्वयं अपनी उन्नतिके पथमें कंटक नहीं लौट आना पड़ा । उनसे पहले कोई भी खड़े करती ? दवा नहीं कराता था। पर जब रोग अन्य ___ अंतमें मैं यह प्रार्थना करता हूँ कि यदि डाक्टर और वैद्योंके लिए असाध्य हो जाता था कुछ कठोर शब्दोंका प्रयोग किया गया है तो तब हताश होकर लोग उन्हें ही बुलवाते थे। संचालकगण मुझे क्षमा करें । क्योक में उन्हें हरिनाथ बाबूके हाथमें केस आते ही असाध्य विश्वास दिलाता हूँ कि जो कुछ लिखा गया है रोग भी साध्य हो जाते थे। इसलिए नर-पिवह केवल समाजका ध्यान आकर्षित करनेके लिए शाच होकर भी हरिनाथ बाबूको कामका अभाव सत्य सत्य लिखा गया है। मेरा किसीसे द्वेष भाव न था। नहीं है। यह हो सकता है कि विद्यालयसम्बन्धी एक बार मुझे भी उनके पास जाना पड़ा। उपर्युक्त बातें उन्हें या अन्य किसी सज्जनको मिनीका ज्वर खूब बढ़ गया था। किसीकी कुछ बुरी न जान पड़ें, उन्हें विद्यालयमें कोई चिकित्सासे कुछ लाभ नहीं हुआ। तब हरिनाथ दोष न दिखाई दे; किन्तु मुझे विश्वास है कि । बाबू आये । न जाने उनमें ऐसी कौनसी शक्ति समाज अभी ऐसे मनुष्योंसे सर्वथा शून्य नहीं नहा थी कि थोड़े ही दिनोंमें मिनी अच्छी होगई । हो गया है जो किसी बातपर स्वतंत्रतासे विचार कर सकें । ऐसे महाशयोंको अवश्य मानना' . ५००) के नोट लेकर मैं उनसे अपनी कृतज्ञता पड़ेगा कि ये सब बहुत ही बुरी बातें हैं और " प्रगट करनेके लिए गया । कार्ड भेज देनेपर मुझे दृढ़ विश्वास है कि वे शीघ्र ही अपना स्वर हरिनाथ बाबू स्वयं आकर मुझे अपने कमरेमें ले ऊँचा करके समाजको जगा देंगे और ऐसी बड़ी गये। जब हम लोग बैठ गये तब मैंने ५००) के संस्थाका सुधार करनेको बाध्य करेंगे। नोट निकाल कर कहा, “डाक्टर बाबू, आपने हम लोगोंको आजीवन के लिये अपने उपकार पाशसे Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.522829
Book TitleJain Hiteshi 1916 Ank 11 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherJain Granthratna Karyalay
Publication Year1916
Total Pages104
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jain Hiteshi, & India
File Size14 MB
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