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________________ ५९८ HELLBATTLIMBAIATSLATIALALIBABAMALTIAAILY जैनहितैषीSCRITATEMEDurnituttitil धर्माध्यापक मिलना जरा कठिन कार्य है। किन्तु रसे प्रबंधकारिणी सभाकी कार्यवाही की पुस्तक यह अवश्य हो गया कि धर्माध्यापक और भी गुम कर देने में विद्यालयमें रहनेवालोंको सुपरिन्टेन्डेन्ट महाशयके नहीं बनती है, इस संकोच नहीं होता, जहाँके आचार्य बननेवाले लिए सुपरिन्टेन्डेन्ट महाशय १०-१५ दिनमें विद्यार्थी जरा जरासे भोजनके घीके वास्ते लडपृथक् कर दिये जायँ। १०-१५ दिनमें भी इस नेको प्रस्तुत हो जाते हैं और जहाँके छात्रों और लिए कि शायद अभी ऐसा करनेसे विद्यार्थी सम- अध्यापकोंको संदिग्ध आचरणके कारण दंड झेंगें कि हमारी जय हुई। अधिष्ठाता महाशयने देनेकी भी आवश्यकता पड़ जाती है, वहाँके कृपा कर दो महीने यहीं ठहर जाना स्वीकार निकले हुए पंडितोंका चरित्र क्या उच्च होसकता किया। है ? क्या वे धर्मोपदेशके आधिकारी हो सकते अब देखना यह है कि प्रायः २५ दिन विद्या- है ? क्या उनसे समाजको लाभ पहुँच सकता लयमें पढ़ाई बंद रही। छात्राश्रममें भोजन जो है ? क्या उन लोगों के लिए समाजको ५९०-- विद्यार्थियों को पढ़ने के लिए मुफ्त दिया जाता है ६०० रु० मासिक व्यय करना उचित है ? क्या बराबर दिया गया। भोजनके व्यतिरिक्त अन्य उनके लिए शिक्षा ही बिना फीस नहीं किन्त खर्च भी बराबर होता रहा । इन सबके अतिरिक्त भोजन, वस्त्र, मकान इत्यादि भी देना और उस जो हाथखर्चके लिए विद्यार्थियों को मासिक मिलता पर ४०० रु०मासिक केवल २७-२८ विद्यार्थिहै उसमें भी किसी प्रकारकी हानि नहीं हुई। यों पर खर्च करना समाजके सार्वजनिक धनका विद्यार्थियोंको अपराधका इसके अतिरिक्त कुछ सदुपयोग करना है ? इस पर भी क्या उन्हें हाथ इंड न मिला कि एक मासके लिए उनके खर्च के लिए रुपया देना सामाजिक धनका अपभोजनके घीकी मात्रा कछ कम कर दी गई। व्यय नहा है ! उनको बहकानेवाले पंडितजीका भी कछ मैं यह नहीं कहता कि संस्था बंद कर दी न बिगड़ा। जाय. अथवा समाज इसमें चंदा न दे। मैं केवल विद्यालय में माय ५००-६०० रु० मासिक यही कहना चाहता हूँ कि समाजको अधिकार व्यय होता है, जिसमें अध्यापकोंका वेतन तो ही नहीं उसका यह कर्तव्य भी है कि वह देखे केवल १५०) से कममें ही हो जाता है। मकानके कि जा रुपया वह संस्थाको देती है उसका लिए कोई व्यय नहीं करना पड़ता प्रायः४००) सदुपयोग होता भी है या नहीं। वह पूछ सकती मासिक भोजन आदिमें व्यय होता है और केवल है कि क्यों विद्यालयमें कोई अधिष्ठाता भी नहीं २७-२८ विद्यार्थी शिक्षा पाते हैं। शिक्षा कैसी रहता ? क्यों उपाधिष्ठाता भी विद्यालयमें रहकर मिलती है और ये विद्यार्थी यहाँसे पंडित बनकर विद्यार्थियोंकी दशा सुधारनेका प्रयत्न नहीं समाजका कितना उपकार करेंगे यह उपर्युक्त करता ? क्यों प्रबंधकारिणी सभा व्याक्त विशेषकथासे प्रकट होता है। इसके अतिरिक्त जिस के हानिलाभ पर दृष्टि रखकर विद्यालयका विद्यालयमें यह भी ठीक ठीक नहीं मालूम कि उचित प्रबंध नहीं करती ? क्यों धार्मिक संस्था में कौन विद्यार्थी कब किस अध्यापकके पास उप- भी आचरण सुधारनेका प्रयत्न नहीं होता ? क्यों स्थित था और कब नहीं, जहाँ हाजिरीके रजि- विद्यार्थियोंको हाथ खर्च के लिए रुपया देकर स्टर भी ढूँढ निकालनेके लिए परिश्रम और विलासी और उद्धत बनाया जाता है ? क्यों धमकियोंकी आवश्यकता होती है, जहाँके दफ्त- संचालकगण समाजसे ऐसी ऐसी बातें छुपाया Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.522829
Book TitleJain Hiteshi 1916 Ank 11 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherJain Granthratna Karyalay
Publication Year1916
Total Pages104
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jain Hiteshi, & India
File Size14 MB
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