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________________ CLAULA HARITALLAHABATMAHARAS H TRAILERY भद्रबाहु-संहिता। RamnfinitionARTIES ५२३ है। सच तो यह है कि यह सब मूल और इसका उल्लेख पाया जाता है। इस तरह पर टीका-टिप्पणियाँ भिन्नभिन्न व्यक्तियोंका कार्य दोनों संप्रदायोंके विद्वानों द्वारा यह हिन्दुओंका मालूम होता है । मूलकर्ताओंसे टीकाकार भिन्न एक ज्योतिष ग्रंथ माना जाता है। परन्तु पाठजान पड़ते हैं । सबका ढंग और कथन- कोंको यह जानकर आश्चर्य होगा कि इस शैली प्रायः अलग है । चौथे और सातवें बृहत्संहिताके अध्यायके अध्याय भद्रबाहसंहिअध्यायोंकी टीकामें बहुतसे स्थानों पर, 'इत्य- तामें नकल किये गये हैं-ज्योंके त्यों या कहीं पि पाठः -ऐसा भी पाठ है-यह लिखकर, कहीं कुछ भद्दे और अनावश्यक परिवर्तनके मूलका दूसरा पाठ भी दिया हुआ है, जो साथ उठाकर रक्खे गये हैं-परन्तु यह सब कुछ मलका उल्लेखयोग्य पाठ-भेद होजानेके बाद होते हुए भी वराहमिहिर या उनके इस ग्रंथका टीकाके बननेको सूचित करता हैं । यथाः- कहीं नामोल्लेख तक नहीं किया । प्रत्युत, वराह १-वाहिमरणं ( व्याधिमरणं)-'रायमरण मिहिरके इन सब वचनोंको भद्रबाहुके वचन ( राजमरणं) इत्यपि पाठः' ॥ ४-३०॥ प्रगट किया गया है और इस तरह पर एक २-'मेहंतर ( मेघान्तर-)'-'हेमंतर ( हेमा अजैन विद्वानके ज्योतिषकथनको जैन ज्योन्तर-) इत्यपि पाठः ' ॥ ४-३१ ॥ ३- 'अण्णेणवि (अन्येनापि )- अण्णो. तिषका ही नहीं बल्कि जैनियोंके केवलीका ण्णवि (अन्योन्यमपि-परस्परमपि) इत्यपि पाठः कथन बतलाकर सर्वे साधारणको धोखा दिया ॥७-२१॥ गया है । इस नीचता और धृष्टताके कार्यका इससे मूलकती और टीकाकारकी साफ तौरसे पाठक जो चाहे नाम रख सकते हैं और उसके विभिन्नता पाई जाती है। साथ ही. इन सब उपलक्षम ग्रंथकताको चाहे जिस पदवीसे विभबातोंसे यह भी स्पष्ट हो जाता है कि ग्रंथकर्ता षित कर सकते हैं, मुझे इस विषयमें कुछ कहइन दोनोंसे भिन्न कोई तीसरा ही व्यक्ति है। नेकी जरूरत नहीं है । मैं सिर्फ यहाँ पर ग्रंथउसे संभवतः ये सब प्रकरण इसी रूपमें (टीका- काके इस कृत्यका पूरा परिचय दे देना टिप्पणीसहित या रहित ) कहींसे प्राप्त हए हैं ही काफी समझता हूँ और वह परिचय इस और उसने उन्हें वहाँसे उठाकर बिना सोचे प्रकार हैं:. समझे यहाँ जोड़ दिया है। (क) भद्रबाहुसंहिताके दूसरे खंडमें (२) हिन्दुओंके यहाँ ज्योतिषियोंमें 'वराह- 'करण ' नामका २९ वा अध्याय है, जिसमें मिहिर' नामके एक प्रसिद्ध विद्वान आचार्य- कुल ९ पद्य हैं । इनमेंसे शुरूके ६ पद्य बहहो गये हैं। उनके बनाये हुए ग्रंथोंमें 'बृहत्संहिता' त्संहिताके तिथि और करण ' नामके ९९ वें नामका एक खास ग्रंथ है, जिसको लोग अध्यायसे, जिसमें सिर्फ ८ पद्य हैं और पहले 'वाराहीसंहिता' भी कहते हैं । इस ग्रंथका दो पद्य केवल 'तिथि ' से सम्बंध रखते उल्लेख विक्रमकी ११ वीं शताब्दिमें होनेवाले हैं, ज्योंके त्यों ( उसी क्रमसे ) उठाकर " सोमदेव ' नामके जैनाचार्यने भी अपने रक्खे गये हैं । सिर्फ पहले पद्यमें कुछ “यशस्तिलक ' ग्रंथमें किया है । साथ ही अनावश्यक उलट फेर किया है। बृहत्संहिता. 'जैनत्तत्वादर्श' आदि श्वेताम्बर ग्रंथोंमें भी का वह पद्य इस प्रकार है: Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.522829
Book TitleJain Hiteshi 1916 Ank 11 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherJain Granthratna Karyalay
Publication Year1916
Total Pages104
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jain Hiteshi, & India
File Size14 MB
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