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________________ ५२२ SAHARAMILARIORIm जैनहितैषी होसका और इसलिए उसका यह ग्रंथ इधरउध- षामें दिये हैं, जिनके साथमें उनका संस्कृत रके प्रकरणोंका एक बेढंगा संग्रह बन गया है। अर्थ नहीं है। चौथे, पहले खंडके पहले अध्याआज इस लेखमें इन्हीं सब बातोंका दिग्दर्शन में कुछ संस्कृत के श्लोक भी ऐसे पाये जाते हैं कराया जाता है। इससे पाठकों पर ग्रंथका जाली- जिनके साथ संस्कृतमें ही उनकी टीका अथवा पन और भी अधिकताके साथ खुल जायगा और टिप्पणी लगी हुई है। ऐसी हालतमें प्राकृतकी साथ ही उन्हें इस बातका पूरा अनुभव हो जायगा वजहसे संस्कृत अर्थका दिया जाना कोई अर्थ कि ग्रंथकर्ता महाशय कितनी योग्यता रखते थे:- नहीं रखता । यदि कठिनता और सुगमताकी (१) इस ग्रंथके तीसरे खंडमें तीन अध्याय- दृष्टि से ऐसा कहा जाय तो वह भी ठीक नहीं चौथा, पाँचवाँ, और सातवाँ-ऐसे हैं जिनका बन सकता । क्योंकि इस दृष्टि से उक्त चारों मूल प्राकृत भाषामें है और अर्थ संस्कृतमें दिया ही अध्यायोंकी प्राकृतमें कोई विशेष भेद नहीं है। चूंकि इस संहिता पर किसी दूसरे विद्वान है। रही संस्कृत श्लोकोंकी बात, सो वे इतने की कोई टीका या टिप्पणी नहीं है इस लिए उक्त सुगम हैं कि उनपर टीका-टिप्पणीका करना अर्थ उसी दृष्टि से देखा जाता है; जिस दृष्टिसे ही व्यर्थ है। नमूनेके तौरपर यहाँ दो श्लोक कि शेष सम्पूर्ण ग्रन्थ । अर्थात् वह ग्रंथकर्ता टीका-टिप्पणीसहित उद्धृत किये जाते हैं:(भद्रबाहु ) का ही बनाया हुआ समझा जाता १-पात्रान्संतमे दानेन भक्त्या भुजेत्स्वयं पुनः । है; परन्तु ग्रंथकर्ताको ऐसा करनेकी जरूरत क्यों भोगभूमिकरः स्वर्गप्राप्तेरुत्तमकारणम् ॥ ८॥ पैदा हुई, यह कुछ समझमें नहीं आता। इसके । टीका-पात्रानिति बहुवचनं मुनि आर्यिका उत्तरमें यदि यह कहा जाय कि प्राकृत होनेकी श्रावक श्राविका इति चतुर्विधपात्रप्रीत्यर्थे । एतेअजहसे ऐसा किया गया तो यह कोई समुचित वन्यतमं पूर्वमाहारादिदानेन संतर्य पुनः स्वयं भुजेत् । उत्तर नहीं हो सकता । क्योंकि प्रथम तो पात्रदानं च भोगभूमिस्वर्गप्राप्तेरुतमकारणं ज्ञेयमित्यर्थः । ऐसी हालतमें, जब कि यह सारा ग्रंथ संस्कृतमें २-कांस्यपात्रे न भोक्तव्यमन्योन्यवर्णजैः कदा । रचा गया है, इन अध्यायाका प्राकृतम रचकर शूद्रस्त्वपक्कं पक्वं वा न भुंजेदन्यपंक्तिषु ॥ ८४॥ ग्रंथकर्ताका डबल परिश्रम करना ही व्यर्थ मालम टिप्पणी-पंक्तिषु इति बहुवचनाद्वर्णत्रयपकाहोता है। दूसरे, बहुतसे ऐसे प्राकृत ग्रंथ भी देखनेमें आते हैं जिनके साथ उनका संस्कृत वव पक्कमपक्वं वा न भुजेत् इत्यर्थः । अर्थ लगाहुआ नहीं है । और न भद्रबाहके सम- इससे पाठक समझ सकते हैं कि श्लोक यमें, जब कि प्राकृत भाषा अधिक प्रचलित थी, कितने सुगम हैं, और उनकी टीका-टिप्पणीमें । प्राकृत ग्रंयोंके साथ उनका संस्कृत अर्थ क्या विशेषता की गई है। साथ ही मुकाबलगानेकी कोई जरूरत थी। तीसरे इस लेके लिए इससे पहले लेखमें और इस लेखके खंडके तीसरे अध्यायमें 'उवसंग्गहर' और अगले भागमें उद्धृत किये हुए बहुतसे कठि'तिजयपहुत्त ' नामके दो स्तोत्र प्राकृत भा- नसे कठिन श्लोकोंको भी देख सकते हैं जिन १-२ ये दोनों स्तोत्र श्वेताम्बरोंके 'प्रतिक्रमणसूत्र' पर काइ टाका-टप्पण पर कोई टीका-टिप्पण नहीं है । और फिर में भी पाये जाते हैं; परन्तु यहाँ पर उक्त प्रतिक्रमण उससे नतीजा निकाल सकते हैं कि कहाँ सूत्रसे पहले स्तोत्रमें तीन और दूसरेमें एक ऐसी तक ऐसे श्लोकोंकी ऐसी टीका-टिप्पणी कचार गाथायें अधिक हैं। रना श्रुतकेवली जैसे विद्वानोंका काम हो सकता Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.522829
Book TitleJain Hiteshi 1916 Ank 11 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherJain Granthratna Karyalay
Publication Year1916
Total Pages104
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jain Hiteshi, & India
File Size14 MB
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