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सभापतिका व्याख्यान ।
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स्त्रियां विधवा थीं; परन्तु हमारी जैन कौममें सन् प्रयत्न करना कौमके लिए हानिकारक होगा। यदि ९१ में १३.२, सन् ०१ में २३.१ तथा सन् विधवा-विवाह धर्म तथा नीतिके विरुद्ध और ११ में २५.३ प्रति सैकड़ा स्त्रियां विधवा थीं। हानिकारक है तो क्या यह आवश्यक नहीं है कि सन् १९११ की हमारी विधवाओंकी संख्या जो इसकी चर्चा करके यह सिद्ध कर दिया जाय ? मैंने आपको बताई उसमें से यदि हम केवल २० क्या इसकी चर्चाको रोकनेका परिणाम यह नहीं से ४० वर्ष तककी ही आयुकी स्त्रियोंका लेखा होगा कि जिनकी सम्मतिमें यह हानिकारक नहीं है लगावें तो विदित होता है कि २० से ४० वर्ष वे उसके पक्षकार रहकर उसके प्रचारका उद्योग तककी आयुकी २,०४,७०५ स्त्रियोंमें से ४८, करते रहेंगे ? और यदि यह हानिकारक नहीं है न ४६६ अर्थात् २३३ प्रतिसैकड़ा स्त्रियां विधवा बुरा है, अथवा बुरा होकर भी आवश्यक है, तो क्या थीं जो यदि सधवा होती अथवा हों तो सन्तान इसकी चर्चाको रोकना अपने आपको नुकसान उत्पादन कर सकी होती या कर सकें । महाशयो, पहुंचाना नहीं है ? मैं तो समझता हूं कि इस विषयकी इन्हीं बातोंका विचार कर यह सम्मति दी जारही चर्चा अवश्य होकर हमें देखना चाहिए कि यह है कि हमें विधवाविवाहका प्रचार कर हमारी कौ- हमारे लिए आवश्यक है या नहीं।
ही नो क्रमको रोकना चाहिए । मेरी सम्मात- महाशयो इस विषयपर जरा दृढ होकर हमें में इनके साथ हमें ऐसा मत निश्चित् करनेके लिए विचार करना चाहिए, और केवल अपनी
और भी अनेक बातें हैं जिनपर विचार करना कोमलहृदयताहीसे काम न लेना चाहिए। इसस होगा । माना कि यदि हम विधवा विवाहको न
। विवाहका उद्देश भंग होता है-प्रेमका आदर्श मारा रोकें तो २० से ४५ वर्षकी आयुके ५३,९८४
जाता है-इत्यादि इसी प्रकारकी अपेक्षाओंसे इसका पुरुष जो अविवाहित बच जाते हैं उनके लिए
विचार करना पर्याप्त न होगा; हमें हमारी कौमकी १५ से ३५ वर्षकी आयुकी ३४,४११ विधवायें ।
! सख्यामें बढ़ती हुई क्षतिकी अपेक्षासे भी इसपर मिल सकती हैं, परन्तु साथहीमें अन्य बातोपर
' विचार करना होगा । व्यक्ति विशेष इसे भले ही बुरा विचार करना भी आवश्यक होगा।
समझें-हमारी सम्मतिमें स्त्रियोंका तो क्या पुरुषोंका प्रिय प्रतिनिधिगण, हमें स्मरण रखना होगा भी स्वेच्छापूर्वक विधवा अथवा विधुर रहना भले ही कि विधवा-विवाहकी चर्चा मात्रके विरुद्ध हमारी श्रेष्ठ हो-बलात् वैधव्यको कोई कोई भले ही अच्छा कौममें एक प्रबल भाव विद्यमान है। जैन कौम समझते हों-परन्तु हमको जानना होगा कि हमार । इस विषयकी चर्चा तक करना महापाप समझती जीवन केवल हमारा नहीं है-वह केवल हमारी संपत्ति है, तथा इस विषयपर विवेचन तक करना हमारी नहीं है, जिस समाजमें हमने जन्म धारण किया है कौमके धार्मिक भावके लिए घृणोत्पादक है। उसका भी हमारे जीवनपर अधिकार है । जातियोंके हमारे जैनी भाई इसे महा निंद्यकर्म मानते हैं तथा जीवनमें ऐसे अवसर भी आते हैं जब उस जाति के ऐसा जान पड़ता है कि किसी भी दशामें उन्हें मनुष्योंको उसके लाभके लिए उसकी रक्षाके लिएइसका विचार स्वीकृत न होगा। यद्यपि महाशयो, अपने व्यक्तिगत सिद्धान्तोंकी बलि देना पड़ती है। मैं इस समय इस विषयके गुण दोषोंकी चर्चा नहीं जिस जातिके मेंबर ऐसा करनेके लिए तत्पर रहते किया चाहता, परन्तु यह कहना अपना कर्तव्य हैं वही जाति सदा जीवित रहती है। संसारका समझता हूं कि इसकी चर्चा तकको रोकनेका इतिहास यही बात बताता है कि अपनी रक्षा के
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