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________________ ५८० जैनहितैषी - 1 लिए - अपने आपको सर्वनाशसे बचाने के लिए-जन समाजोंको अनीप्सित साधनों का प्रयोग करना पड़ता है । स्पार्टन लोगोंका इतिहास - लाइकरगसके नियम --- इस बातकी साक्षी दे रहे हैं । यदि मान लिया जाय कि हमारे लिए केवल दो ही बातें हैं - अर्थात् एक तो हमारी कौमका अंत और दूसरे विधवाविवाहके समान अनीप्सित साधनों का प्रयोग - तो ऐसी दशा में हमारा कर्तव्य क्या है, इसका हमें अच्छी तरह विचार करना चाहिए । अतएव यह आवश्यक सिद्ध होता है कि इस विषयकी चर्चाको न रोका जाय । मिथ्यात्वका खंडन करते समय हमारे आचार्योंने मिथ्यात्वकी चर्चा की है तब हमें इसकी चर्चा मात्र में पाप मानना उचित नहीं । x + बालविवाह किस प्रकार हमारी जातिके मनुष्यत्वका नाश कर रहा है उससे शायद ही कोई ऐसा निकले जो परिचित न हो। + ÷ अब भी हमारी कौममें चौदह २ पंद्रह २ वर्षके भीतर ही बालकोंके तथा ग्यारह २ बारह २ वर्षके अंदर ही बालिका - ओंके विवाह किये जाते हैं । सन् १९११ की मनुष्य-गणना प्रकट करती है कि हमारी कौममें २० वर्ष तककी अवस्थाके २५,७४३ पुरुष तथा १५ वर्ष तककी अवस्थाकी २७,५५६ स्त्रियोंके विवाह हो चुके थे । निःसन्देह यह दुःखकी बात है, परन्तु यह जानकर और भी हमें दुःख होना चाहिए कि १५ वर्ष तककी आयुकी १,२५९ लड़कियां हमारी कौममें विधवायें थीं जिनमें से ९२ विधवायें तो पांच वर्ष से भी कम अवस्था की थीं। भारत की अन्य कौमोंमें बालविधवाओंकी इतनी संख्या देखने में नहीं आती । पंद्रह वर्ष तककी आयुकी प्रति १०,००० स्त्रियोंमें बौद्धों में एकसे भी कम ईसाइयों में १२, पारसियों में १४, सिक्खों में ३०, मुसलमानोंमें ४०, जैनियों में ६२ तथा हिन्दुओंमें ६९ विधवायें हैं । इस परसे आप विचार कर सकतें हैं कि हमारी समाज में बालविवाहका कितना प्रचार Jain Education International है । महाशयो, यह बालविवाह हमारे जीवन रक्तको पीता जारहा है, हमारे युवकों के स्वास्थ्यका नाश कर रहा है; विवाहके उद्देशपर पानी फेर रहा है; दाम्पत्य - प्रेमको हवा करता जारहा है; बालकों के चरित्रको बिगाड़ रहा है; तथा बिना प्रेम उत्पन्न करके समाजको अवनतिके गढ़े लिये जारहा है। इसी प्रकार वृद्ध पुरुषोंके साथ अल्पवयस्क बालिकाओंका विवाह भी हमारी जाति में बालविधवाओंकी संख्याकी वृद्धि कर रहा तथा समाजमें दुराचारका प्रचार किये जारहा है ! विवाह के अवसरपर नाच करानेकी रीति हमारे युवकों के चरित्रको बिगाड़ती हुई हमारी कौम की भावी संतानको सदा अकर्मण्य बनाती जारही है । विवाह तथा मृत्यु आदि संस्कारोंके समय पंगतों आदि व्यर्थ व्यय करना हमारी आर्थिक दशाको खराब करता जारहा है । अनेक व्यर्थ रीतियां हमारे बहुमूल्य समयका सदा नाश करती जारही हैं । इन सब कुरीतियों को बंद करना हमारे लिए बहुतही आवश्यक है । + + कुरीतियोंको बंद करने की आवश्यकता तो सब कोई स्वीकार करते हैं, परन्त अपने मतका पालन करनेवाले व्यवहारमें बहुत कम दिखलाई पड़ते हैं - यहां तक कि जो स्वयं इन बातोंका उपदेश देते हैं वे भी कार्यका जब समय आता है तब अपने ही मत के विरुद्ध कार्य करते हैं। इसका कारण मनुष्यकी स्वाभाविक प्राचीन प्रियता के सिवाय क्या हो सकता है ? मनुष्य सामाजिक जीव होनेके कारण जिस समाजमें रहता है उसकी स्वीकृति, उसकी Sanction, के बिना वह किसी भी रीतिका पालन अथवा उल्लंघन करना नहीं चाहता । तब यह प्रश्न पैदा होता है कि क्या जाति-पंचायतों द्वारा हमें जातिसुधारका प्रचार करना चाहिए ? महाशयो, मेरी सम्मतिमें इससे भी कुछ लाभ न होगा, बरन् .. फूट पैदा होकर लाभके पलटे हानि होगी, क्योंकि हमारी For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.522829
Book TitleJain Hiteshi 1916 Ank 11 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherJain Granthratna Karyalay
Publication Year1916
Total Pages104
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jain Hiteshi, & India
File Size14 MB
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