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सभापतिका व्याख्यान ।
प्रिय प्रतिनिधिगण, + + पहले हमें यह निश्चित कर लेना चाहिए कि हमारे उद्योग का - हमारे कार्यों का
- आदर्श क्या है। + + हमारा आदर्श यही है कि जैनधर्मको उसकी आदिम शुद्धता, उदात्तता तथा उपयोगिता प्रदान कर उसे संसारके बड़े बड़े धर्मो के समान जीवित धर्म बनाना तथा जैनजातिको उसकी वर्तमान अवनत दशासे उठाकर संसारकी बड़ी बड़ी जातियोंकी बराबरीमें बिठलाना । + + समय नित्य पलटता जा रहा है, नित्य नई दशायें पैदा होती जाती हैं; नवीन आवश्यकताएं प्रतिदिन उत्पन्न होती जा रहीं हैं—और इन्हें रोकना हमारी शक्तिके बाहर है । हमें एक ऐसी सृष्टिमें रहना है जिसमें नाना प्रकारकी जातियां रहती हैं और जिनकी तरह तरहकी सभ्यताओं के साथ हमें मिलकर रहना पड़ता है। यदि यह कहा जाय कि ऐसी दशा में हमें चाहिए कि अपने पूर्वकालको भूलकर हमें अपनी आवश्यकताओंके अनुसार नवीन संस्थाएं स्थापितकर नये ढँगसे समाजकी रचना करनी चाहिए, तो इसका अर्थ यही होगा कि समाज उत्तर कोई मशीन नहीं है जो अपनी इच्छा के अनुसार चाहे जिस समय चाहे जैसी बना ली जाय । मनुष्य-समाज एक जीवित वस्तुके समान है, और उसी के समान विकासके नियमोंके अनुसार ही उसका परिवर्तन हो सकता है । अतएव एकदम नवीन समाजकी रचना करना असंभव है । अतएव महाशयो, हमें दोनों कार्य करने चाहिए - हमें पुनरुत्थान ( Revival ) भी करना चाहिए और नवीन रचना भी करनी चाहिए, अथवा, दूसरे शब्दों में, हमें ' सुधार – Reform के राजमार्गको ग्रहण करना चाहिए ।
प्रिय प्रतिनिधिगण, इस सुधारके कार्य में हमें दो 'एक बातोंका अवश्य ध्यान रखना चाहिए । + + एक तो यह कि जो कुछ पुराना है वह सब ही उत्तम तथा प्रत्येक अवस्थामें लाभदायक नहीं है ।
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साथ ही हमें यह भी स्मरण रखना चाहिए कि जो कुछ पुराना है वह सब ही बुरा भी नहीं है । कई पुरानी वस्तुएं भी बड़े काम की निकलती हैं । साथ ही हमें यह भी स्मरण रखना चाहिए कि जो नया है वह सब ही अच्छा नहीं है । पश्चिमकी सामाजिक रीतियों में मेरी सम्मतिमें तो अनेकांश हानिकारक हैं। मनुष्यसमाजका सुधार तो पूर्व तथा पश्चिम दोनों के सामाजिक सिद्धान्तोंकी योजनाहीसे उचित रीति से हो सकता है । हमें यह भी न भूल जाना चाहिए कि पश्चिममें अनेक बातें लाभदायक हैं तथा उन्हें ग्रहण करने के लिए हमें तैयार रहना चाहिए। दूसरी जिस बात का हमें स्मरण रखना चाहिए वह यह है कि जैन जातिकी वर्तमान पतित दशासे निराश हो उससे पृथक् हो स्वयं अपना सुधार करनेका विचार कदापि जीमें न लाना चाहिए । यदि हमें अपनी समाजका सुधार करना है तो उसमें मिलकर ही करना चाहिएं। चाहे हमें वास्तविक फल न दिखलाई पड़े तो भी यदि हम अपने भाइयोंके विचारोंमें परिवर्तन कर सकें तो समझना चाहिए कि हमारे कार्यका बड़ा हिस्सा हम संपादित कर चुके । तीसरी बात, महाशयो, जिसका, मेरी सम्मतिमें, हमें सदा ध्यान रखना चाहिए वह यह है कि जाति- उन्नति के इस महान् कार्य में हमें सदा ८ एकता व उन्नति ' इन दो शब्दों को सन्मुख रखने चाहिए । हमें सम जैनसमाजकी उन्नति करनी है— हमें जैनधर्मका प्रचार करना है । मेरा विश्वास है कि पृथक् पृथक् संप्रदायोंकी उन्नति करनेसे हम समग्र जैन जातिकी उन्नति कर लेंगे, ऐसा समझना भ्रम है। जहांतक मैं जानता हूं इस ऑल इंडिया जैन एसोसिएशन, अथवा यदि यह नाम आपको प्रिय न हो तो — इस भारत जैनमहामंडल - का उद्देश पहलेही से सांप्रदायिक भेदको एक ओर रख समग्र जैन जातिकी उन्नति करना, सारे जैनियों में एकता
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