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________________ ५७६ CHALALIBALLABALBARILABOLI जैनहितैषीWITHUTERTAmirmamRIYAR ईसाइयोंमें ३२.६, सिक्खोंमें ६.३३, मुसलमानोंमें माणकी इस अल्पताका कारण क्या है । महाशय६.७, पारसियोंमें ६.३ तथा हिंदुओंमें १५.०४ गण, प्रत्येक जातिमें जन्मका परिमाण चार कारणों प्रति सैकडा वद्धि हुई. परन्तु हम जैनियाँमें पुनः पर अवलंबित रहता है-प्रथम Racial char६.४ की घटती हुई । सन् १८९१ में दश acteristics अथवा जातीय लक्षण, दूसरा Social हजार भारतवासियोंमें ४९ जैनी थे; सन् १९०१ practices अथवा सामाजिक व्यवहार, तीसरा में ४५ और सन् १९११ में ४० ही रह गये। Material well-being अथवा भौतिक ऐश्वर्य इससे स्पष्ट होता है कि यदि हमने अपनी संख्याके और चौथा Public health अथवा सार्वजनिक इस क्षयके वेगको रोकनेका उद्योग न किया तो स्वास्थ्य । अब विचार करनेसे विदित होगा कि शीघ्र ही हमारे अंतका समय आ जायगा । संतो हम जैनियोंके जातीय लक्षण, भौतिक ऐश्वर्य तथा षका विषय है कि इसकी चर्चा तथा इस विषयपर सार्वजनिक स्वास्थ्य अधिकांशमें भारतकी अन्य विचार हमारे समाचारपत्रोमें होनेका आरंभ होगया कौमोंके समान ही हैं-अतएव यह स्पष्ट है कि है, परन्तु मेरी सम्मतिमें इसकी ओर और भी हमारे अल्पजन्म-परिमाणका कारण हमें हमारे अधिक ध्यान देनेकी आवश्यकता है । हमको सामाजिक व्यवहारोंहीमें ढूँढना चाहिए, और हमें विचार करना चाहिए कि हमारे इस -हासका इस बातका उद्योग करना चाहिए कि जो सामाकारण क्या है । महाशयो, दो कारणोंसे कौमोंकी जिक व्यवहार हमारी संख्याका हास कर रहे हैं वे संख्या वृद्धि अथवा क्षय होता रहता है-अर्थात् दूर किये जायँ । महाशयो, जहां तक मैं जानता एक तो निवासस्थान-परिवर्तन ( Migration ) हूं, हमारी समाजमें इसके संबन्धमें तीन प्रकारकी और दूसरा मत्यु और जन्मके परिमाणका मान सम्मतियां दृष्टिगोचर होती हैं । पहली सम्मति यह Relation between birth and death है कि बालविवाह तथा वृद्धविवाह हमारी इस rates )। अब इनमेंसे पहला जो कारण है वह क्षतिके कारण हैं और इन्हें हमें रोकने चाहिए। हमारी क्षतिका मूल नहीं होसकता, क्योंकि हमारी दूसरी सम्मति यह जान पड़ती है कि केवल बालकौममें न तो भारतवर्षसे देशान्तरगमन न अन्य विवाह आदिको रोकनेसे काम नहीं चलेगा, परन्तु देशोंसे इस देशमें आगमन कोई उल्लेखके योग्य हमारी क्षतिका कारण हमारा जातिभेद, है अतएव हुआ है । दूसरे कारणको जाननेके लिए यद्यपि हमें उचित है कि साथ ही हम समग्र जैन कौममें सरकारी रिपोर्टों ( Vital Statistics) से यह सह-भोज तथा परस्परविवाहका प्रचार करें । तीसरी नहीं पता लग सकता कि हमारी कौममें मृत्युका सम्मति यह जान पड़ती है-यद्यपि यह आवाज़ परिमाण क्या है तो भी अनुभवसे यह बिना संकोच बहुत दब कर निकल रही है कि केवल इन दो कहा जा सकता है कि ऐसा अनुमान करनेके लिए सुधारोंसे काम न चलेगा और यदि हमें अपनी कोई कारण नहीं है कि भारतकी अन्य जातियोंकी क्षतिको रोकना है तो हमें हमारी कौममें विधवाअपेक्षा जैनियोंमें मृत्युका परिमाण अधिक है, विवाहका प्रचार करना चाहिए । एक चौथी अतएव यदि हमारी क्षतिका कोई कारण हो सम्मति यह भी सुनाई पड़ती है कि पहले हमें सकता है तो वह हमारे जन्मके परिमाणकी अल्पता बालविवाहको रोककर देखना चाहिए, और इससे ही होना चाहिए और हमें इस बातका विचार यदि यथेष्ट लाभ न हुआ तो बादमें परस्पर-विवाकरना चाहिए कि हमारी समाजमें जन्मके परि- हका प्रचार करना चाहिए, और उससे भी यदि Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.522829
Book TitleJain Hiteshi 1916 Ank 11 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherJain Granthratna Karyalay
Publication Year1916
Total Pages104
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jain Hiteshi, & India
File Size14 MB
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