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________________ BHABHI जैनहितैषी ६१० RIA विविध प्रसङ्ग । REFERREETTEES ओंकी आर्थिक अवस्थाको धक्का लगेगा। यह स्वीकार करना पड़ेगा कि उनका अभिप्राय अच्छा है; परन्तु इसके साथ ही यह भी कहना PAKHREEKSHER पड़ेगा कि इस प्रकारकी 'चुप्पं कुरु चुप्पं कुरु' की नीतिसे कोई स्थायी लाभ नहीं होता-संस्था१ स्याद्वादविद्यालयकी दशा। ओंकी दशा कभी नहीं सुधर सकती । वह तभी अन्यत्र 'स्याद्वाद-महाविद्यालयकी भीतरी सुधरेगी जब लोग उनकी भीतरी दशासे समय दशा' शीर्षकका एक लेख प्रकाशित किया समय पर परिचित होते रहेंगे, कार्यकर्ताओंपर जाता है । इसके लेखक श्रीयुक्त बाबू निहाल- उनकी जानकारीका प्रभाव पड़ता रहेगा और करणजी सेठी एम. एस सी. हैं । आपको नव- कार्यकर्ता इस बातकी चिन्ता रक्खेंगे कि यदि स्थापित हिन्दू विश्वविद्यालयमें प्रोफेसरका कार्य हमारा कोई प्रमाद होगा तो लोग हमसे उत्तर माँगेगे। मिला है, इसलिए अब आप काशीमें ही रहते हैं। यह कितने आश्चर्यकी बात है कि जिस संस्थाम उपर्युक्त लेख आपने विद्यालयकी भीतरी दशाका ५०० ६०० रुपया मासिक खर्च होता है, उसके ज्ञान प्राप्त करके बहुत ही निष्पक्ष दृष्टि से लिखा सभापति, उपसभापति, अधिष्ठाता, उपधिष्ठाता है। हम आशा करते हैं कि जैनसमाज इसे यहाँतक कि मंत्री भी बाहर रहते हैं और एक ध्यानसे पढ़ेगा और देखेगा.कि जिन संस्थाओंका धर्माध्यापक महाशय उसके एक मात्र विधाता उसे अभिमान है, जिनके लिए वह अपनी गाढ़ी बन रहे हैं। चाहे जिसको नियत कराना ओर कमाईका धन खुले हाथों खर्च करता है और अलग करवाना उनके बायें हाथका खेल है । वे जिनकी सहायताके लिए उससे अपीलोंपर अपीलें मंत्रीका अपमान करते हैं, इसके कारण अलग की जाती हैं, उनकी भीतरी दशा कितनी कर दिये जाते हैं; पर अपनी 'चाणक्य-नीति' खराब है । वे खास खास आदमियोंके हाथोंकी से वे अपना बाल बाँका नहीं होने देते और कठपुतलियाँ हैं। अपने विरोधीको अलग कराके छोड़ते हैं। प्रब__ यह बात केवल दिखाने भरके लिए है कि न्धकर्ता जान जाते हैं कि उनका अपराध है, उनका प्रबन्ध समाजकी इच्छानुसार होता है। पर डर जाते हैं और कुछ नहीं कर सकते हैं। हमारा विश्वास है कि एक 'स्यादादविद्यालय, उन्हें भय है कि और कोई धर्माध्यापक न ही नहीं, और भी कई जैनसंस्थाओंकी यही मिलेगा ! अच्छा होता यदि इसके साथ मंत्री हालत है; परन्त दुर्भाग्यकी बात यह है कि सब महाशय भी खारिज कर दिये जाते और इस जगह उक्त सेठीजी जैसे हितैषी और स्पष्टवक्ता तरह धर्माध्यापक महाशयकी विजय पर एक पुरुष नहीं जो जनसाधारणको इस प्रकार निष्पक्ष कलश और चढ़ा दिया जाता। होकर संस्थाओंकी भीतरी दशाका ज्ञान प्राप्त २ कार्यकर्ताओंका चुनाव । करानेकी आवश्यकता समझते हो । जहाँ देखिए वहीं संस्थाओंकी भीतरी हालत पर पर्दा डालनेके हमारी संस्थाओंकी अव्यवस्थाका एक बड़ा पक्षपाती ही दिखलाई देते हैं। उन्हें भय रहता भारी कारण यह है कि अधिकारियोंका चुनाव है कि भीतरी दशाके प्रकाशित होनेसे संस्था- योग्यताके खयालसे नहीं किया जाता । यह Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.522829
Book TitleJain Hiteshi 1916 Ank 11 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherJain Granthratna Karyalay
Publication Year1916
Total Pages104
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jain Hiteshi, & India
File Size14 MB
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