Book Title: Bhaktamara Mahamandal Pooja
Author(s): Somsen Acharya, Mohanlal Shastri
Publisher: Bharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज्ञानदिवाकर, मर्यादा शिष्योत्तम, प्रशांतमूर्ति आचार्यश्री भरतसागर जी महाराज की स्वर्णजयंती वर्ष के उपलक्ष में : श्री सोमसेनाचार्य विरचित भक्तामर महामण्डल पूजा हिन्दी पद्यानुवाद, अंग्रेजी अनुवाद, ऋद्धि मन्त्र विधि, फल त श्रीमानतुङ्ग कृत भक्तापर सहित हिन्दी पद्यानुवाद पं० कमलकुमार शास्त्री 'कुमुद' अंग्रेजी अनुवाद बाबू रतनलाल जैन, डिब्रूगढ़ सम्पादक पण्डित मोहनलाल शास्त्री, काव्यतीर्थ अर्थ सहयोगी श्री कन्हैयालाल राखीदेवी तत्पुत्र पन्नालाल सेठी, डीमापुर IX भारतवर्षीय अनेकान्त विद्वत् परिषद् Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भक्तामर महामण्डल पूजा • प्राक्कथ न आदिनाथ स्तोत्र जिसका दूसरा नाम भक्तामर भी है जैन समाज मैं सबसे अधिक प्रचलित भक्तिरस का अपूर्व महाकाव्य है। इसका परिचय देना सूर्य को दीपक दिखाना है । मखिल जैन समाज में विरला ही कोई ऐसा होगा जो इस स्तोत्र के नाम से परिचित हो। प्रगाढ़ श्रद्धा रखने वाले बहुत से ऐसे भी जैन हैं जो तत्त्वायंसूत्र या भक्तामर का पाठ या श्रवण किये बिना न तक ग्रहण नहीं करते । पर हिन्दुनों में गणेशस्तोत्र का जो स्थान है, जैनियों में वही स्थान भक्तामर को प्राप्त है। बहुतसी सौफिक पुस्तकों के पढ़ चुकने के बाद भी जैन बालक जब तक उपर्युक्त दोनों महान् धार्मिक पुस्तकों को नहीं पढ़ लेता है तब तक वह समाज की दृष्टि में वेपका ही समझा जाता है। वास्तव में बालक-बालिकाओं की योग्यता परखने के लिए दोनों धर्म ग्रन्थों की जानकारी एक कसौटी की सरह है। इतने मात्र से समझ लेना चाहिए कि इस पवित्र पुण्यमय स्तोत्र का कितना अधिक माहात्म्य है और जंन लोग इसे कितने प्रादर तथा श्रद्धा की दृष्टि से देखते हैं । इस काव्य ग्रन्थ ने अपने जिन अपूर्व अनुपम श्रद्वितीय गुणों के कारण मद्दान् माहात्म्य, भ्रमर्यादित प्रचार और विशेषरूप से ख्याति प्राप्ति की है, यह किसी से भी छिपी हुई नहीं है। फिर भी हमारा सुषुप्त समाज समीचीन संस्कृतविद्या की जानकारी के अभाव में इसके सर्वोत्तम विविध गुणों को जानकारी से वंचित होता जाता है । वह यह नहीं समझ पाता कि ४५ श्लोक वाले इस छोटे से काव्य ग्रन्थ में ऐसा कौनसा अमृत भरा हुआ है, जिसे पान करके न केवल जैन अपितु इस पर विमुग्ध हुए जेनेटर विद्वानों तक ने इसको मुक्तकंठ से प्रशंसा की है । Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री भक्तामर महामण्डल पूजा जैन समाज के पपिकांश संस्कृत-विद्या विटीन नर-नारियों और चालकों को उसी अपूर्व अमृत का रसास्वादन कराने की कल्याणमयी कामना से हमारे समान मन्य भी अनेक जैन विद्वान् लेखकों और मुकवियों ने इस काव्य-अन्य की विविध टोका और अनुवाद करके साहित्पश्री में अभिवृमि को है। इस कृति से संस्कृतानभिज्ञ पाठक-पाठिकानों को बही रसास्वाद और मानन्दानुभव होगा जो मूल-प्रन्थ के पनने वाले संस्कृतज्ञों को होता है। प्रचार की दृष्टि से प्रस्तुत पुस्तक को अधिक उपयोगी बनाने के लिए इसमें ऋद्धि-मंत्र-विधि पोर उमके फल के साथ-साथ महामुनि सोमसेन कृत 'भक्तामर महाकाव्य मंडल पूना' भो जोड़ी है । यह पूजा अभी तक की प्रवाशित तमाम भक्तामर संस्कृत पूजात्रों से भिन्न है। श्री रसमलाल जी डिबगर कृत अंग्रेजी का अनुवाद दे देने से इस पुस्तक की उपादेयता और भी बढ़ गई है। Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री भक्तामर महामण्डल पूजा प्रखण्ड पाठ की विधि आत्मा को परमात्मा बनाने के लिये यह प्रावश्यक है कि परमात्मा के पवित्र गुणों का वारम्बार चिन्तन, मनन वा स्तवन कर उन्हें आत्मा में व्यक्त और विकसित करने का प्रयास किया जावे । इसी आन्तरिक भावना से भक्तामर स्तवन द्वारा परमात्मा की श्राराधना से आत्मविकाश की परिपाटी जैनसम्प्रदाय में शताब्दियों से प्रचलित है। जगतिंपी, बोतराग संदेश जिनेश के समक्ष भक्तामर स्तोत्र "" का या विधि इस प्रकार है। पाठ प्रारम्भ होने के एक दिन पहिले एक बड़े तखत पर पंचवर्ण सन्दुलों से इसी पुस्तक में पेज नं० ४ पर श्रति मण्डल ( माड़ना) बनाया जाए । दूसरे दिन प्रातः स्नान कर घौत वस्त्र पहिनकर पूजन सामग्री तैयार कर माड़ने के ऊपर ( प्रारम्भ में ) उत्तर या पूर्व भूख उच्चासन पर सुन्दर सिंहासन में श्री आदिनाथ भगवान की बड़ी और मझौल दो मूर्तियों तथा सामने एक उच्चासन पर श्री विनायक ( सिद्ध ) यन्त्र स्थापित किया जावे। पश्चात् मङ्गल और शोभा के हेतु भ्रष्ट मङ्गलद्रव्य, छत्रम और मष्टप्रातिहार्य यथास्थान स्थापित किये जायें। सिंहासन से कुछ नीचे एक छोटे वाजौटे पर प्रतिमा की बांई पर एक अखण्ड दीपक ( जो कार्य समाप्ति पर्यन्त बराबर जलता रहे ) प्रज्वलित किया जाये । पश्चात् वादिवनाद हो चुकने के अनन्तर उपस्थित सभी जनता उच्चस्वर से 'जैनवर्स की जय' 'श्रादिनाथ भगवान की जय' 'भक्तामर महामण्डल विधान को जय' बोलें । पश्चात् पचान्त में पुष्पप्रक्षेप करते हुये मङ्गलाचरण वा मङ्गलाष्टक पढ़ा जाये । तदनन्तर परिणामशुद्धि, रक्षासूत्रबन्धन, तिलककरा, रक्षाविधान, दिग्बन्धन कर मङ्गलकलश स्थापित करना चाहिये । Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री भक्तामर महामण्डल पूजा ___ मङ्गलकलश में हल्दी, सुपारी, पुष्प, नकद ।।) रखकर ऊपर सौषा श्रीफल रखकर पोतवस्त्र और पञ्चवर्ण सूत से उसे सुन्दर रीति से बांधना चाहिये । उसके भीतर प्रासुक जल भर कर उसमें पर्याप्त मात्रा में लवंग-चूर्ण डालना चाहिये । वह मङ्गलकलश प्रतिमा की बांई पोर एक छोटे चौके पर स्थापित करना चाहिये । पश्चात् विधिपूर्वक जलधारा (भिषेक) मौर शान्तिधारा कर २४, ४८, या ७२ घंटे तक 'प्रखण्ड पाठ' करने का साकल्प कर जयध्वनिपूर्वक श्रीभक्तामरस्तोत्र का पाठ प्रारम्भ करना चाहिये ।। यह अखपट पाल पनिमा के सामने बैठकर ममान स्वर में एकस्थल पर अनेक व्यक्ति संकल्पित समय तक करें। यदि बीच में पाठकर्ता बदले जावे तो जब तक नवीन पाटकर्ता पाठ-प्रारम्भ न कर दे तब तक पूर्व पाटकर्ता अपना स्थान नहीं छोड़ें । संकल्पित समय पूरा होने पर मङ्गलाष्टक तथा शान्तिपाठ पढ़ कर चौकी पाटे उहाकर उचित स्थान पर टेबिल जमाकर पुन: भगवान का अभिषेक एवं यन्त्र को यान्तिधारा की जाय । पश्चात् विधिपूर्वक नित्यपूजा' कर श्री भक्तामर महामण्डन पूजा (विधान) किया जावे । पूजन समाप्ति के बाद शान्ति कालशाभिषेक (पुण्याहवाचन) शान्ति-विसर्जन, प्रारती, परिकमा वगैरह यथाविधि किये जावें। यदि पाटके साथ जाप्य भी किया गया हो तो विधिपूर्वक हवन भी किया जाये । प्रावश्यक सामग्री - हल्दीगांठ, सुपारी, श्रीफल, पीलेसरसों, पीतवस्त्र, पञ्चवर्णसूत, शुद्ध घुत, रुई, दीपक, माचिस, अगरबत्ती, लवङ्ग, शुद्ध धूप, धूपदान, फूलमालाएँ, नकद रुपमा, चुम्नियां, मङ्गलकलश, चीकी, पाटे, ग्रासनी, दीपक बड़े, दीपक छोटे, कंडील, अष्टद्रव्य, बनयान, नवीन धोती दुपट्टे, छन्ना, मंगौछी, रूमाल, पञ्चवर्ण पांवस, तखत, प्रष्ट-मङ्गलद्रव्य, प्रष्टप्रासिहाय, छत्रत्रय, पाठ की पुस्तकें । Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री भक्तामर महा मण्डल पूजा मङ्गलाचरण मङ्गलं भगवान् वीरो, मङ्गलं गौतमो गणी । मङ्गलं कुन्दकुन्दार्यो, जैनधर्मोऽस्तु मङ्गलम् ॥१॥ नमः स्यादर्हद्भ्यो, विततगुणराड्भ्यस्त्रिभुवने । नमः स्यात् सिद्धेभ्यो, विगतगुणवदभ्यः सविनयम् ।। नमो ह्याचार्येभ्यः, सुरगुरुनिकारो भवति यः । उपाघ्यायेभ्योऽथ, प्रवरमतिधृद्भ्योऽस्तु च नमः ॥२॥ नमः स्यात् साधुभ्यो, जगदुदधिनीभ्यः सुरुचितः । इदं तत्त्वं मन्त्र, पठति शुभकार्ये यदि जनः ।। असारे संसारे, तव पदयुग-ध्यान-निरतः । सुसिद्धः सम्पन्नः स हि भवति दीर्घायुररुजः ।।३।। अर्हन्तो भगवन्त इन्द्रमहिताः, सिद्धाश्च सिद्धीश्वराः । माचार्या जिनशासनोन्नतिकराः, पूच्या उपाध्यायकाः ।। श्रीसिद्धान्तसुपाठका मुनिवरा, रत्नत्रयाराधकाः । पञ्च ते परमेष्ठिनः प्रतिदिनं, कुर्वन्तु बो मङ्गलम् ॥४॥ १-अनुष्टुप् , । २, ३-शिखरिणी । शार्दूलविक्रीडित । Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री भक्तामर महामण्डल पूजा ...- .-- अथ मङ्गलाष्टकम् (शार्दूलविक्रीडितकछन्दः) श्रीमन्नम्र-सुरासुरेन्द्र-मुकुट-प्रद्योतरत्न–प्रभाभास्वत्पादनखेन्दवः प्रवचनाम्भोधीन्दवः स्थायिनः । ये सर्वे जिनसिद्धसूर्यनुगतारते पाठकाः साधवः, स्तुत्या योगिजनैश्च पञ्चगुरवः, कुर्वन्तु वो मङ्गलम् ।।१।। नाभेयादिजिनाः प्रशस्तवदनाः, ख्याताश्चतुर्विंशतिः, श्रीमन्तो भरतेश्वरप्रभृतयो ये चक्रिणो द्वादश ।। ये विष्णुप्रतिविष्णुलाङ्गलधराः, सप्तोत्तरा विशतिः, काल्ये प्रयितास्त्रिषष्ठिपुरुषाः कुर्वन्तु वो मङ्गलम् ।।२।। ये पञ्चौषधिऋद्धयः श्रुततपो-वृद्धि गताः पञ्च ये, ये चाष्टाङ्गमहानिमित्तकुशलानाष्टौविधाश्चारिणः ।। पञ्चज्ञानघरास्त्रयोऽपि बलिनो, ये बुद्धिऋद्धीश्वराः । सप्तते सकलाचिंता मुनिवराः, कुर्वन्तु वो मङ्गलम् ।।३।। ज्योतिय॑न्तरभावनामरगृहे, मेरौ कुलाद्री स्थिताः । जम्शाल्मलिचत्यशाखिषु तथा, वक्षाररूप्यादिषु ।। इष्वाकारगिरौ च कुण्डलनगे, द्वीपे च नन्दीश्वरे । शैले ये मनुजोत्तरे जिनगृहाः, कुर्वन्तु वो मङ्गलम् ॥४॥ कैलाशो वृषभस्य निर्वृतिमही, वीरस्य पावापुरी । चम्पा वा वसुपूज्यसज्जिनपतेः सम्मेदशलोईताम् ॥ -- - - - - - - Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री भक्तामर महामण्डल पूजा • - - शेषाणामपि चोर्जयन्तशिखरी, नेमीश्वरस्याहताम् । निर्वाणावनयः प्रसिद्धविभवाः, कुर्वन्तु वो मङ्गलम् ।।५।। सर्पो हारलता भवत्यसिलता, सत्पुष्पदामायते । सम्पर्धेत रसायन विषमपि, प्रीति विधत्ते रिपुः ।। देवा यान्ति वशं प्रसन्नमनसः, किं वा बहु ब्रूमहे । धर्मादेव नभोऽपि वर्षति तरां, कुर्वन्तु वो मङ्गलम् ॥६॥ यो गर्भावतरोत्सबो भगवतां, जन्मा भिषकोत्सयो, यो जातः परिनिष्क्रमेण विभवो, यः केवलज्ञानभाक् । यः कैवल्यपुरप्रवेशमहिमा, सम्पादितः स्वगिभिः, कल्याणानि च तानि पञ्च सततं, कुर्वन्तु वो मङ्गलम् ॥७॥ आकाशं मूर्त्यभावा-दधकुलदहना-दग्निरुर्वी क्षमाप्त्या । नःसङ्गाद्वायुरापः प्रगुणशमतया, स्वात्मनिष्ठः सुयज्वा ।। सोमः सौम्यत्वयोगा-द्रविरिति च विदुस्तेजसः सन्निधानाद्, विश्वात्मा विश्वचक्षु-वितरतु भवतां, मङ्गलं श्रीजिनेशः।। इत्थं श्रीजिनमङ्गलाष्टकमिदं, सौभाग्यसम्पत्करं । कल्याणेषु महोत्सवेषु सुधियस्तीर्थङ्कराणां मुखाः । ये शृण्वन्ति पठन्ति तैश्च सुजनः, धर्मार्थकामान्विता । लक्ष्मी लभ्यत एव मानवहिता, निर्वाणलक्ष्मीरपि ॥६॥ ॥इति मङ्गलाष्टकम् ॥ Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री भक्तामर महामण्डम पूजा -:-- -- - - । मङ्गलकलश स्थापना ।।। प्रोम् अद्य भगवती महापुरुषस्य श्रीमदादिब्रह्मणों मतेऽस्मिन् विधीयमाने श्रीभक्तामरस्तोत्राखण्डकीर्तनकर्मणि अमुकबीरनिर्वाण सम्वत्सरे अमुकमासे, अमुकतिथी, अमुकदिने, प्रशस्तलग्ने, भूमिशुद्धधर्थ, शान्त्यर्थं, पुण्याहवाचनार्थं नवरत्नगन्धपुष्पाक्षतबीजपूरादिशोभितं शुद्धप्रासुकतीर्थ-जलपूरितं मङ्गलकलशस्थापनं करोमि श्री झ्वी क्ष्वी हं सः स्वाहा । इस मंत्र को पढ़कर शास्त्र जी के उत्तर कोने में जल, अक्षत, पुष्प. हलदो. सुपारी और रुपया सहित मङ्गलकलश स्थापित किया जाये। इस कलश को पुण्याहवाचन कलश भी कहते हैं। ॐ ह्रीं अज्ञान तिमिरहरं दीपकं संस्थापयामि । विघ्नाम् निवारय निवारय मा १क्ष रक्ष स्वाहा । इस मन्त्र को पढ़कर पूर्व दिशा की भोर पीले सरसों क्षेपे । ओं ह्रीं णमो सिद्धाणं ह्रीं दक्षिण दिशासमागतविघ्नान निवारय निवारय मां रक्ष रक्ष स्वाहा । इस मन्त्र को पढ़कर दक्षिण दिशा में पीले सरसों क्षेपे । प्रों हूं, णमो प्रायरीयाणं हं. पश्चिम दिशासमागतान् विघ्नान् निवारय निवारय मां रक्ष रक्ष स्वाहा । यह मन्त्र पढ़कर पश्चिम दिशा में पीले सरसों क्षेपे । मों ह्रौं णमो उवझायाणं ह्रौं उत्तरदिशासमागतविघ्नान् निवारय निवारय मां रक्ष रक्ष स्वाहा । मह मन्त्र पढ़कर उत्तर दिशा की पोर पीले सरसों क्षेपे । भों ह्रः णमो नोए सव्वसाहूरगहः सर्वदिशासमागत Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भी मक्तामर महामत भूषा ....--. -.. -- - ---- -- - - .. विघ्नान निवारय निवारय मां रक्ष रक्ष स्वाहा । यह मन्त्र पढ़कर सर्व दिशानों में पीले सरसों ोपे । परिणाम-शुद्धि-मन्त्र विधि विधातुं यजनोत्सवेऽहं, गेहादिमूर्खामपनोदयामि । अनन्यचित्ताकृतिमादधामि, स्वर्गादिलक्ष्मीमपि हापयामि । यह पद्य पड़कर प्रतिज्ञा करे कि मैं इस विधान पर्यन्त व्यापारादि की चिन्ता छोड़ एकाग्रता से कार्य करूंगा । रकासरवन्धन मात्र मङ्गल भगवान्वीरो, मङ्गलं गौतमो गणी। मङ्गलं कुन्दकुन्दाद्या, जनधर्मोऽ स्तु मङ्गलम् ।। प्रों ह्रीं पथवर्णसूत्रेण करे रक्षाबन्धनं करोमि । सिलक-मन्त्र ओं ह्रां ह्रीं ह्र हौं ह्रः मम सर्वाङ्गशुद्धिं कुरु कुरु स्वाहा । यह मन्त्र पढ़कर प्रङ्गशुद्धि के लिये तिलक लगाना राहिये। रमा मात्र ओं नमोऽहंते सर्व रक्ष रक्ष ह फट् स्वाहा । पीले सरसों और पुरुषों को इस मन्त्र से सात बार मन्त्रित कर फूक देकर सर्व पात्रों पर छिटकना चाहिये । ओं ह्रीं मध्यलोके जम्बूद्वीपे भरतक्षेत्रे आर्यखण्डे...... .... 'देशे........"नगरे......."धेत्यालमे......... श्रीवीरनिर्वाणमम्वत्सरे........... मासे ...........पो ..........."तिथी शुभ Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६ श्री भक्तामर महामण्डल पूर्ण बेलायां परमार्थानां देवशास्त्रगुरूणां सन्निधौ परमधार्मिक श्रावकाणां विदुषाम्त्रा सन्निधी शान्तिकपौष्टिक निखिल कार्यसिद्धयर्थम् प्रमुक्रवासरादारम्य अमुकवासरपर्यन्तं होरा ......... पर्यन्तं महामहिम समधिष्ठितस्य प्रचिन्तयामेयफलप्रदस्य श्री भक्तामर स्तोत्रस्याखण्डपाठ करिष्यामहे । जलधारा, अभिषेकपाठः श्रीमन्नतामरशिरस्तदरत्नदीप्ती — तोयावभासिचरणाम्बुजयुग्ममीशम् । त्वम्मूर्तिषूद्यदभिषेक विधि करिष्ये ॥ १॥ अथ पौर्वाह्निक माध्याह्निकपराह्नदेववन्दनायां पूर्वाचार्यानु क्रमेण सकलकर्मक्षयार्थ भावनुजास्तववन्दनासमेत श्रीमहागुरुभक्तिकायोत्सर्गं करोम्यहम् | इसको पढ़कर ६ बार रणमोकार मन्त्र की जाप देना चाहिये । प्रातःकाल के समय पौर्वाह्निक, मध्यकाल के समय माध्यालिक श्रोर अपराह्न के समय भापराह्निक बोलना चाहिये । याः कृत्रिमास्तदितराः प्रतिमा जिनस्य, शक्रादयः सुरवराः स्नपयन्ति भक्त्या । सद्भावलब्धिसमयादिनिमित्तयोगा अर्हन्तमुन्नतपदप्रदमाभिनम्य, 7 तत्रैवमुज्ज्वलधिया कुसुमं क्षिपामि ||२|| इति अभिषेकप्रतिज्ञाये चतुष्पादे पुष्पाञ्जलि क्षिपामः । श्रीपीठक्लृप्ते वितताक्षतौघे, श्रीप्रस्तरे पूर्णशशाङ्ककल्पे । श्रीवर्त के चन्द्रमसीति वार्ता, सत्यापयन्तीं श्रियमालिखामि । श्रीं ह्रीं पई श्रीलेखनं करोमि । Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -- श्री भक्तामर महामण्डस पूषा -- कनकादिनिभं क्रम, पावनं पुण्य कारणम् । स्थापयामि परं पीठं, जिनस्नानाय भक्तित: ॥४॥ प्रों ही उच्चचतुष्पाद कमनीयस्थाल्यां सिंहासनस्थापनम् । भृङ्गार-चामर-सुदर्पण-पीठ-कुम्भताल-ध्वजा--तप-निवारक—भूषिताने । वर्धस्व नन्द जय पाठपदावलीभिः, सिंहासने ! जिन भवन्तमहं श्रयामि ।।५।। वृषभादिसुवीरान्तान्, जन्माप्ती जिष्णुचितान् । स्थापयाम्यभिषेकाय, भक्त्या पोठे महोत्सबै: ॥६॥ ॐ ह्रीं महं श्रीधर्मसीर्याधिनाथ ! भगवनि पांडकशिलपी 1 सिंहासने तिष्ठ तिष्ठ । इति प्रतिमास्थापनम् । घण्टानाक्षपूर्वक दबपोषश्चेति 1 जहां तक हो प्रतिमा विमानाथ भगवान की ही स्थापित को बाग। श्रीतीर्थकृत्स्नपन-बर्यविधी सुरेन्द्रः, . क्षीराब्धिवारिभिरपूरयदर्थ-कुम्मान् । तांस्तादृशानिव विभाव्य यथार्हनीयान् संस्थापये कुसुमचन्दनभूषिताग्रान् !७॥ शातकुम्भीयकुम्भौघान् क्षीराब्धेस्तोयपूरितान् । स्थापयामि जिनस्नाने, चन्दनादिसुचितान् ॥८॥ मों ह्रीं स्वस्तये चतु:कोणेषु चतुःकलशस्थापन फरोमि । कौकी पर चारों दिशाओं में चार कलश स्थापित किये वाव । Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८ श्री भक्तामर महामण्डल पूजा - - - आनन्द --निर्भर--सुर----प्रमादिगानै-- दिवपूर-जयशब्द-कलप्रशस्तैः । उद्गीयमान-जगतीपति-कीतिमेना, पीठस्थली वसुविधार्चनयोल्लसामि ॥६॥ ॐ ह्रीं श्रीस्नपनपीठायार्थम् । वाद्यत्रोषणम् । जयशब्दोच्चारणम् । कर्मप्रबन्धनिगरपि होनताप्त, ज्ञात्वापि भक्तिवशतः परमादिदेवम् । त्वां स्वीयकल्मषगणोन्मथनाय देव, शुद्धोदकरभिनयामि नयार्थतत्त्वम् ॥१०॥ मों ह्रीं थीं क्लीं ऐं अहं वं मं हं संतं पं बं बं हूँ हैं सं सं तं तं पं पं झ झ न्वी हवी ध्वी क्ष्वी द्रा द्रां द्रीं द्रीं द्रावय द्रावय नमोव्हते भगवते श्रीमते पवित्रतरजलेन जिनमभिषेचयामि स्वाहा । इत्युच्चा शुद्धजलेन स्नपर्ने कार्यम् । तीर्थोत्तमभव नीरैः, क्षीरवारिधि--- रूपकैः । स्नपयामि सुजन्माप्तान्, जिनान्सर्वार्थसिद्धिदान् ||११|| दूरावनम्र-सुरनाथ-किरीटकोटीसंलग्नरत्न किरणच्छवि-धूसरांघ्रिम् । प्रस्वेदतापमल-मुक्तमपि प्रकृष्ट भक्तया जलै जिनपति बहुधाऽभिषिञ्चे ॥१२॥ प्रधाचे जम्मूदीपे भरतक्षेत्र मार्यखण्डे............ 'वेशे........ नगरे........ मासे शुभे....... 'पके . ......तियो... ... .. वासरे ..........बिनमन्विरे पूजनकारकपोताणतापसायिकामावक-धाविकारणा Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ थी भक्तामर महामण्डल पूजा ....... - --.. सकलकर्मक्षया श्रीवृषभाविचविशतितीपर-परमदेवान जलेन अभिषिञ्छ। यो हो श्रीवृषभादिनीरान्तान् बलेन स्नपयामि । नौर :-इस फ्लोफ और मन्त्र को एक अपमाला द्वारा १०८ वार. पढ़ते हुये क्रमशः १०८ क्सशों द्वारा जलाभिषेक करे । भर्यात् एक बार इलोक और मन्त्र पढ़कर १ कलश की धारा छोहे । इसी प्रकार १०८ बार किया जाये। पानीय चन्दनसदक्षतपुष्पपुजनैवेद्य-दीपक-सुधूप-फलवजेन । कर्माष्टकऋचनवीर-मनन्तशक्ति, संपूजयामि महसा महसां निधानम् ।।१३।। ओं ह्रीं अभिषेकाने वृषभादिवीरान्तेभ्योऽर्घम् । हेतोर्थपा निजयशोधवलीकृताशाः, सिद्धौषधाश्च भवदुःखमहागदानाम् । सद्भव्यहुजनित-पङ्कजवन्धकल्पा, यूयं जिनाः सततशान्तिकरा भवन्तु ।।१४।। इत्युक्त्वा शान्त्यर्थ पुष्पांजलि क्षिपेत् । नत्वा परीत्य निजनेत्रललाटयोश्च, व्याप्तं क्षणेन हरतादघसंचयं मे । शुद्धोदक जिनपते ! तव पादयोगाद्, भूयाद् भवातपहरं धृतमादरेण ॥१५॥ Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री भक्तामर महामण्डल पूजा मुक्तश्रीवनिता- करोदकमिद, पुण्याङ्क रोत्पादकम् । नागेन्द्र त्रिदशेन्द्र-चक्रपदवी-राज्याभिषेकोदकम् । सम्यग्झान--चरित्रदर्शनलता--संवृद्धिसम्पादकम् कोतिश्रीजयसाधकं तव जिन ! स्नानस्य मन्धोदकम् ॥१६॥ इति प्रदक्षिणां नमस्कारं च कृत्वा मिनपरणोदकं शिस धारयामि । म श्लोकों को पढ़कर श्रीजिनेश का परणोदक स्वयं लेकर दूसरों को भी देखें। नत्वा मुह-निजकरैरमृतोपमेयः, स्वच्छ जिनेन्द्र ! सत्र चन्द्र-करावदातः । शुद्धाशुकेन विमलेन नितान्तरम्ये देहे स्थितान्जलकणान्परिमार्जयामि ||१८|| प्रों ह्रीं प्रमसाधुकेन जिनपिम्पमार्जनं करोमि । स्नानं विषाय-भवतोऽष्टसहस्रनाम्नामुच्चारणेन मनसो वचसो विशुद्धिम् । पादातुमिष्टिमिन ! तेऽष्टतयीं विधातुं, सिंहासने विधिवदत्र निवेशयामि ॥१६॥ इति सहस्रनामस्तोत्रं तदंध वा पठिया जिनबिम्ब सिंहासने स्थापयित्वा पूजनप्रतिशानाय पुष्पावलि क्षिपेत् । जलगन्धाक्षतैः पुष्पश्चरुदीपसुधूपकैः । फलैरधैं जिनमर्चे जन्मदुःखापहानये ॥२०॥ प्रों ह्रीं श्रीसिंहासन (पीठ) स्थितजिनायाभम् । Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री भक्तामर महामण्डस पूजा कमे नेले जाते. गुरुजलसिका सफलते ममेदं मानुष्यं, कृतिजनगणादेयमभवत् । मदीयाद् भल्लाटा-इशुभवमुकर्माटनमभूत् सदेदृक् पुण्योघो, मम भवतु ते पूजनविधौ ॥२१॥ इतोष्टप्रापनां कृत्वा पुष्पजलि क्षिपेत् । सूचना-प्रतिमाजी को यथास्थान स्थापित करने के बाद यदि शान्तिमारा पाठ पढ़ना हो तो प्रतिमा जी के साथ लाये हुये विनायक यन पर आने का मन्त्र पढ़ते हुये झारी ले प्रखण्ड बारा देना चाहिये । श्री शान्तिवारा पाठ प्रों ह्रीं श्रीं क्ली ऐं अहं व में हं संत पंव व मं म हं हं सं सं तं तं पं पं झ झ झ्वी इवीं क्ष्वी क्ष्वी द्रां द्रां द्रीं द्रीं द्रावय नमोऽहते भगवते श्रीमते । ओह्रीं क्रौं प्रस्माकं पापं खण्ड खण्ड, हन हन, दह दह, पच पत्र, पाचय पाचय, अहन में श्वी श्वी हं सः भै वं ह्वः पः हः क्षां क्षीं झू झें क्षं क्षों क्षी क्ष क्षः, क्ष्वीं हां ह्रीं हू, ह ह्रीं ह्रीं ह्रः । द्रां द्रीं द्राव्य द्रानय नमोऽहते भगवते श्रीमते ठः ठः ।। अस्माकं श्रीरस्तु, वृद्धिरर तु, तुष्टि रस्तु, पुष्टिरस्तु शान्तिरस्तु, कांन्तिरस्तु, कल्याणमस्तु स्वाहा । एवम्अस्माकं कार्यसिद्धयर्थ, सर्वविघ्ननिवारणार्थ, श्रीमद्भ Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री भक्तामर महामण्डल पूजा गवदर्हत्सर्वज्ञपरमेष्ठिपरमपवित्राय नमोनमः । श्रीशान्तिभट्टारकपादपद्मप्रसादात् अस्माकं सद्धर्म-श्रीबलायुरारग्यैश्त्रयांभिवृद्धि रस्तु । स्वक्षिप्यपरशिष्यबई: प्रसीदन्तु नः । __ो श्रीवृषभादिबद्धमानुपर्यन्ताश्चतुर्विशत्यहन्तो भगवन्तः सर्वज्ञाः परममाङ्गल्यनामधेयाः इहामुत्र न सिद्धि सन्वन्नु । सद्धर्मकार्येषु इहामुत्र च सिद्धि प्रयच्छन्तु नः । मों नमोर्हते भगवते. श्रीमते श्रीमत्पावतीर्थकराय द्वादश गणारिताय. शक्ल ध्यानपवित्राय: सर्वज्ञाय, स्वयम्भुके, सिद्धाय, बुद्धाय, परमात्मने, परमसुखाय, त्रैलोक्यमहिताय, अनन्तसंसारचक्रप्रमर्दनाय, अनन्तज्ञानदर्शनवीर्यसुखास्पदाय, सिद्धाय, बुद्धाय, त्रैलोक्यवशङ्कराय, सत्यज्ञानाय, सत्यब्रह्मणे, ऋष्यार्थिकाश्रावकश्राविकाप्रमुख चतुस्सङ्घोपसर्गविनाशाय,घातिकर्मविनाशाय, अघातिकर्मविनाशाय, अपवादम् अस्माकं छिन्द छिन्द, भिन्द भिन्द । मृत्यु छिन्द छिन्द, भिन्द भिन्द । प्रतिकामं छिन्द छिन्द, भिन्द भिन्द। रतिकाम छिन्द छिन्द, भिन्द भिन्द । क्रोधं छिन्द छिन्द, भिन्द भिन्द । अग्नि छिन्द छिन्द, भिन्द भिन्द । सर्वशत्रु छिन्द छिन्द, भिन्द भिन्द । सर्वोपसर्ग छिन्द छिन्द, भिन्द २ । सर्वविघ्नं छिन्द छिन्द, भिन्द २ । सर्व भयं छिन्द छिन्द, भिन्द भिन्द । सर्वराजभयं छिन्द छिन्द, भिन्द भिन्द। सर्वचोरभयं Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यी भक्तामर महामण्डल पूजा छिन्द छिन्द, भिन्द भिन्द । सर्वदुष्टभयं छिन्द छिन्द, मिन्द भिन्द । सर्वमृगभयं छिन्द छिन्द, भिन्द २। सर्वपरमन्त्रं छिन्द छिन्द, भिन्द भिन्द । सर्वमात्मवातभग्रं छिन्द छिन्द, भिन्द भिन्द । सर्वशुलभयं छिन्द छिन्द, भिन्द भिन्द । सर्वक्षयरोग छिन्द छिन्द, भिन्द भिन्द। सर्वकुष्ठरोग छिन्द छिन्द, भिन्द भिन्द । सर्वज्वरमारि छिन्द छिन्द, भिन्द भिन्द्र । सर्वगजमारि छिन्द छिन्द, भिन्द भिन्द । सर्वाश्यमारि छिद २ भिद २ । सर्वगोमारि छिन्द २, भिन्द २ । सर्वमहिषमारि छिन्द छिन्द, भिन्द भिन्द । सर्वधपत्यमारि दिन्द छिन्द, भिन्ट भिन्द, सर्ववृक्षमारि छिन्द छिन्द, भिन्द भिन्द । सर्वगुल्ममारि छिन्द छिन्द, भिन्द भिन्द । सर्वपत्रमारि छिन्द छिन्द, भिन्द भिन्द । सर्वपुष्पमारि छिन्द छिन्द, भिन्द भिन्द । सर्वफलमारि छिन्द छिन्द, भिन्द भिन्द । सर्वराष्ट्रमारि छिन्द छिन्द, भिन्द भिन्द। सर्वदेशमारि छिन्द छिन्द, भिन्द भिन्द । सर्व विषमारि छिन्द छिन्द, भिन्द भिन्द । सर्वक्रूररोग छिन्द छिन्द, भिन्द भिन्द । सर्ववेतालशाकिनीभयं छिन्द छिन्द, भिन्द २ । सर्ववेदनीयं छिन्द छिन्द, भिन्द भिन्द 1 सर्वमोहनीयं छिन्द छिन्द, भिन्द भिन्द । ओं चक्रविक्रमतेजोबलशौर्य शांति कुरु कुरु । सर्वजनानन्दनं कुरु कुरु । सर्वभमानन्दनं कुरु कुरु । सर्वगोकुला Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री भक्तामर महामण्डल पूजा नन्दनं कुरु कुरु। सर्वग्रामनगरखेटखर्वटमण्डपपत्तनद्रोभामुखसहानन्दनं कुरु कुरु | सर्वलोकानन्दनं कुरु कुरु । सर्व देशानन्दनं कुरु कुरु । सर्वयजमानानन्दनं कुरु कुरु । न्याधिव्यसनजितम् अभयक्षेमारोग्यं स्वस्तिरस्तु, शान्तिरस्तु, शिवमस्तु, कुल गोत्रधनं धान्यं सदास्तु । चन्द्रप्रभ-पुष्पदन्त-शोतल-वासुपूज्य-मल्लि-मुनिसुव्रतनेमिनाथ-पार्श्वनाथवर्धमाना: प्रसीदन्त । इत्यनेन मन्त्रेण शान्तिधाराविधानम् । यत्सुखं त्रिषु लोकेषु, व्याधिव्यसनवजितं । प्रभयं क्षेममारोग्यं, स्वस्तिरस्तु विधायिने ।। श्रीशान्तिरस्तु ! शिवमस्तु ! जयोऽस्तु ! नित्यमारोग्यमस्तु ! अस्माकं पुष्टिरस्तु ! समृद्धिरस्तु ! कल्याणमस्तु ! मुखमस्तु ! अभिवृद्धिरस्तु ! कुलगोत्रधन सदास्तु ! सद्धर्मश्रोबलायुरारोग्यश्वर्याभिवृद्धि रस्तु । प्रों ह्रीं श्रीं क्लीं अर्ह असिग्राउसा सर्वशान्ति कुरुत कुरुत स्वाहा । प्रायुर्वत्लोविलासं सकल-सुख-फलंदायित्वाखनल्पं । थोर होरं शरीरं, निरुपममुपनयत्यातनोत्वच्छकीर्तिम् ।। सिदि वृद्धि समृद्धि, प्रथमतु तरणिस्फूर्यदुच्चः प्रतापं । कांति पाांति समाधि, वितरतु जगतामुत्तमा शान्तिधारा ।। इति शान्तिधारापाठः समाप्तः Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीमन्महामुनि-सोमसेनप्रणीता श्री भक्तामर-महाकाव्य-मण्डल पूजा ओ जय जय जय । नमोऽस्तु नमोऽस्तु नमोऽस्तु । प्रार्या-व णमो अरिहताएं, णमो सिद्धाणं, णमो आइरियाएं । गमो उवज्झाया, मो लोए सव्वसाहूणं ।। प्रों ही अनादिमूलमन्त्रेभ्यो नमः (पुष्पाञ्जलि क्षिपेत् } चत्तारि मंगलं !) अरिहंता मंगनं । २) सिद्धा मंगलं ( ३ ) साहू मगलं (४) केवलिपमा सो धम्मो मंगलं । घसारि सोमुरुमा (१) अरिहंता लागुत्तमा (२) सिद्धा लोगुममा (३) साह लोगुसमा (४) कलिपातो धम्मो लोगुसमो। चत्सारि सरग पध्वजामि ( १ ) मरिहते मरणं पवजामि ( २ ) सिद्धे सरणं पवजामि (३) साहू सरण पबज्जामि ( ४ ) केवलिपण्णत धम्म सरलं पबम्जामि । ___ों नमो हते स्वाहा ( पुष्पाञ्जनि क्षिपेत । नोट-इत्यादि नित्यपूजा' नामक पुस्तक में प्रकाशित 'अपवित्र: पवित्रो वा' से लेकर सिद्धपूजा पर्यन्त नित्यपूजा करने के पश्चात् यह 'श्रीभक्तामर महाकाब्य मण्डल पूजा' प्रारम्भ करमा बाहिये । । २५ ) Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६ श्री भक्तामर महामण्डल पूजा पूर्व-पीठिका 1 श्रीमन्त- मानम्य जिनेन्द्रदेवं परं पवित्रं वृषभं गणेश । स्याद्वादवारांनिधिचन्द्रबिम्बं भक्तामरस्यार्चनमात्मसियै । वक्ष्ये सुवारं करुणार्णव च श्रीभूषणं केवलज्ञानरूपं । अलक्ष्यलक्ष्यं प्रणमाम्यल वे, भक्तामर सिद्धवधूप्रियं वं ॥ प्रादौ भव्यजनेनैव गत्वा चैत्यालयं प्रति । नन्तव्यः परया भक्त्या सर्वज्ञः शुद्धलक्षणः ॥ विनयानत - चेतसा । · -- 7 ततः सद्गुरु — मानम्य, प्रार्थना सुकृता भव्यैः पूजायै भावशुद्वितः ॥ दीयतां सुगुरो ! प्रज्ञा, पूजां इत्युक्ते गुरुणाभा णि, विधि श्रीखण्डागुरु -- कर्पूर, नारिकेलफलानि च । कर्तुं शुभां वरं । भक्तामरस्य वै ।। प्रचुराक्षत पुष्पौधा, मेलयित्वा नक्षताश्वरुसश्वयान् ॥ द्रोपमध्वजादिकान् । - प्रमोदेन, दीपान् धूपान् महावाद्य, गीतराजविराजितान् ॥ तोरणं णि सन्नद्ध, रुज्ज्वलै वामरैस्तथा । मण्डपैः पचवर्णैश्च द्रव्यं मङ्गलसूचकैः ॥ वसुदेव - मिते कोष्ठे वर्तुलाकार मण्डिते । रचयेद् बेदिकां तत्र श्रीजिनार्चन - हेतवे ॥ नातिवृद्धो न हीनाङ्गो, न कोपो न च बालकः । मलिनो न न मूर्खश्च सर्वव्यसन 1 वर्जितः ।। , P - - Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री भक्तामर महामण्डल पूजा २७ . . .--..-- - कलाविज्ञान - सम्पूर्णो, वाचाल: शास्त्रवाक्पटुः । पण्डितो मुज्यते तत्र, करुएा - रस - पूरितः । सर्वाङ्गसुन्दरो वाग्मी, सकली - करण-क्षमः ।। स्पष्टाक्षर श्र मन्त्रज्ञो. गुरुभक्तो विशेषतः । श्रावक्रान् श्राविकाश्चंव, योगिनश्चायिकांस्तथा । चतुर्विध परं सड घं, समाह्वयेत् सुभक्तितः ॥ पूजा करण - शुद्धेन, कार्या सर्वज्ञ-सद्मनि । ततोऽर्चनं श्रुतस्यापि, गुरोः पादार्चनं ततः ।। कार्य सर्वज्ञ - पूजायाः, प्रारम्भे सर्वसिद्धिदम् । अनेन विधिना भगः, पुजा मार्ग निरन्तरम् ।। रच - यन्नहतां पूजा-, पीठिका पुण्यमाप्नुयात् । फलन्ति सर्व - कार्याणि, विघ्नराशिः क्षयं ब्रजेत् ।। 11 इति पीठिका समाप्ता ॥ श्रीवृषभदेवस्तुति ( अग्धरावृत्तम् ) श्रीमद्देवेन्द्र - वन्द्यौ, जिनवरचरणौ, ज्ञानदीपप्रकाशौ । लोकालोकाबकाशी, भवजलधिहरी, संततं भव्यपूज्यो ।। नत्वा वक्ष्ये सुपूजां, वृषभजिनपते: प्राणिनां मुक्तिहेतुं । यस्मात्संसारपार,श्रयति स मनुजो, भक्तियुक्तः सदाप्तः।। Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री भक्तामर महामण्डल पूजा ( बसमा तिलकात्तम् ) श्रीनाभिराजतनुजं शुभमिष्टिनाथं, पापापहं मनुजनागसुरेशसेव्यम् । संसार - सागर - सुपोतसमं पवित्र, बन्दामि भव्यसुखदं वृषभं जिनेशम् ।।२।। यस्याब नाम जपतः पुरुषस्य लोके, पापं प्रयाति विलयं क्षणमात्रतो हि । सूर्योदये सति यथा तिमिरस्तथास्तं । वन्दामि भव्यसुखदं वृषभं जिनेशम् ।।३।। सर्वार्थसिद्धिनिलयाद्ध दि यस्य पुण्यात्, गर्भावतार - करणेऽमर - कोटिवगः । वृष्टि: कृता मणिमयी पुरुदेशतस्तं, वन्दामि भव्यसुखदं वृषभं जिनेशम् ।।४।। जन्मावतारसमये सुरवृन्दवन्द्यैः, भक्त्यागत: परमदृष्टितया नसस्तैः । नीत्वा सुमेरुमभिवन्ध सुपूजितस्तं, वन्दामि भव्यमुखदं वृषभं जिनेशम् ।।५।। षट्कर्म - युक्तिमवदर्य दयां विधाय, सर्वाः प्रजाः जिनधुरेण वरंण येन । मजीविताः सविधिना विधिनायकं तं, बन्दामि भव्यसुखदं वृषभं जिनेशम् ॥६॥ Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - ..-. - श्री भक्तामर महामएल पूरा . . . . .. .. .. .- दृष्ट्वा सकारणमरं शुभदीक्षिताङ्ग, कृत्वा तपः परममोक्षपदाप्ति हेतुम् । कर्मक्षयः परिकृतः भुवि येन तं हि, बन्दामि भव्यसुखदं वृषभं जिनेशम् ।।७।। ज्ञानेन येन कथितं सकलं सुनत्त्वं, दृष्ट्वा स्वरूपमखिलं परमार्थ-सत्यं । तर्शितं तदपि येन समं जनेभ्यो, वन्दामि भव्यसुखदं वृषभं जिनेशम् ।।८।। इन्द्रादिभिः रचितमिष्टिविधि यथोक्त, सत्प्रातिहार्यममलं सुखिनं मनोज । यस्योपदेशवशतः सुखता नरस्य, बन्दामि भव्यसुखदं वृषभं जिनेशम् ।।६।। पञ्चास्तिकायषद्रव्यसुसप्ततत्त्व त्रैलोक्यकादिविविधानि विकासितानि । स्याहादरूपकुसुमानि हि येन तं च, वन्दामि भव्यसुखदं वषभं जिनेशम् ॥१०॥ कृत्वोपदेशमखिलं जिनवीतरागो, मोक्षं गतो गतविकार-पर-स्वरूपः । सम्यक्त्वमुख्यगुणकाष्टकसिद्धकस्त्वं, वन्दामि भव्यसुखदं वृषभं जिनेशम् ॥११॥ Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - विविध विभव कर्ता, पाप सन्ताप हर्ता, - शिवपद सुख भोक्ता, स्वर्ग लक्ष्म्यादि दाता । गणवर मुनि सेव्यः, मुनि सेव्यः, "सोमसेनेन " पूज्यः, · वृषभ जिनपतिः श्रीं वाञ्छितां मे प्रदद्यात् ॥ १२ ॥ इदं स्तोत्रं पठित्वा हृदयस्थितसिंहासनस्योपरि पुष्पाञ्जलि क्षिपेत् । श्री भक्तामर महामण्डल पूजा - - अथ स्थापना मोक्षसौख्यस्य कर्तृणां भोक्ता शिवसम्पदाम् । आह्वाननं प्रकुर्वेऽहं जगच्छान्ति - विधायिनाम् ॥ ॐ ह्रीं श्रीं क्लीं महाबीजाक्षरसम्पन्न ! श्रीवृषभजिनेन्द्रदेव ! मम हृदये अवतर अवतर संवौषट् इत्याह्नाननम् । देवाधिदेव वृषभं जिनेन्द्र, इक्ष्वाकुवंशस्य परं पवित्रं । संस्थापयामीह पुरः प्रसिद्धं जगत्सुपूज्यं जगतां पति च ॥ ॐ ह्रीं श्रीं क्लीं महाबीजाक्षरसम्पन्न ! श्रीबुवभ जिनेन्द्रदेव ! मम हृदये तिष्ठ तिष्ठ ठः ठः । इति स्थापनम् । कल्याणकर्ता, शिवसौख्यभोक्ता, मुक्तेः सुदाता, परमार्थयुक्तः । यो वीतरागो, गतरोषदोषः, तमादिनाथं, निकटं करोमि || ॐ ह्रीं श्रीं क्लीं महाबीजाक्षरसम्पन्न ! श्रीवृषभ जिनेन्द्रदेव ! मम हृदयसमीपे सत्रिहितो भव भव वषट् । इति सनिधिकरणम | Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ को बक्तामर महामणल पूजा प्रथाष्टकम् मन्दान्तादत्तम गाङ्गेया यमुनाहरित्सुलरिताम्, सीतानदीया तथा । क्षीरान्धिप्रमुखाब्धितीर्थमहिता, नीरस्य हैमस्य च ।। अम्भोजीयपरागवासितमहद्गन्धस्य धारा सती . देया श्रीजिनपादपीठकमलस्याग्रे सदा पुण्यदा ।। ॐ ह्रीं परमशान्तिविधायकाय हृदयस्थित्ताम श्रीपभजिनचरणाय जलम् । श्रोखण्डाद्रिगिरौ भवेन गहने, ऋक्षः सुवृर्भ धनैः । श्रीखण्डेन सुगन्धिना भवभुता, सन्ताप-विच्छेदिना ।। काश्मीरप्रभवैश्च कुङ्कम रसः, पृप्टेन नीरेण च । श्रीमाहेन्द्रनरेन्द्रसे बितपदं, सर्वज्ञदवं यजे ।। ॐ ह्रीं परमशान्तिविधायकाम हृदयस्थिताय श्रीवृषभजिनधरणान चन्दनम् । श्रीशाल्युद्भवतन्दुलैः सुविलसद्गन्धे जगल्लोभकैः । श्री देवाब्धि-सरूप-हार-धवलैः नेत्र मनोहारिभिः ।। सौधौतरतिशुक्तिजातिमणिभिः, पुण्यस्य भागरिव । चन्द्रादित्यसमप्रभं प्रभुमहो, सञ्चर्चयामो वयम् ।। ___ॐ ह्रीं परमशान्तिविधायकाय हृदयस्थिताय श्रीवृषभजिनचरणाम प्रक्षतम् । मन्दाराब्ज-सुवर्ण-जाति - कुसुमैः, सेन्द्रीयवृक्षोद्भवः, येषां गन्धविलुब्ध-मत्त-मधुपः,प्राप्तं प्रमोदास्पदम् । Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री भक्तामर महामण्डल पूजा मालाभि: प्रविराजिभि: जिन ! विभो देवाधिदेवस्य ते, सखर्चे चरणारविन्द-युगल, मोक्षार्थिनां मुक्तिदम् ॥ ॐ ह्रीं परमशान्तिविधायकाय हृदयस्थिताय श्रीवृषभजिनचराम पुष्पम् । १२ 1 शाल्यन्नं घृतपूर्णसपिसहितं चक्षुर्मनोरञ्जकम् । सुस्वादु त्वरितोद्भवं मृदुतरं क्षीराज्यपक्वं वरम् ॥ क्षुद्रोगादिहरं सुबुद्धिजनकं, स्वर्गापवर्गप्रदम् । नैवेद्य जिन-पाद-पद्म-पुरतः, संस्थापयेऽहं मुदा ॥ ॐ ह्रीं परमशान्तिविषायकाय हृषयस्थिताय श्रीवृषमजिनमरणाम नैवेद्यम् । * कर्पूरदीप्तं वरैः । अज्ञानादि-मोविनाशन करें, कार्पासस्य विताग्रविहितैः दीपैः प्रभाभासुरैः ॥ विद्युत्कान्ति- विशेष-संशय-करें:, कुर्यादातिरातिको जिन ! विभो ! पादाग्रतो युक्तितः ॥ ॐ ह्रीं परमशान्तिविधायकाय हृदयस्थिताय श्रीवृषभचरणाथ दीपम् । कल्याणसम्पादकैः । श्री कृष्णागरु - देवतारु जनितः, धूमध्वजोद्वतिभिः । प्राकाशं प्रति व्याप्तधूम्रपटलं, श्राह्वानितैः षट्पदैः ॥ यः शुद्धात्मविबुद्धकर्मपटलोच्छेदेन जातो जिनः । तस्यैव क्रमपद्मयुग्मपुरतः सन्धूपयामो वयम् ॥ - ॐ ह्रीं परमशान्तिविधायकाय हृदयस्थिता व श्रीषभजिनचरणाय धूपम् । Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ RE श्रो भक्तामर महामण्डल पूजा ३३ -- - -.- . ... नारिङ्गाम्र-कपित्थ-पूग-कदली-द्राक्षादि-जातैः फलैः । चक्षुश्चित्तहरैः प्रमोदजनकः, पापापहै देहिनाम् ।। वर्णाद्यैः मधुरैः सुरेशतरुजैः, खजूरपिण्डस्तथा । देवाधीश-जिनेश-पाद-युगल, सम्पूजयामि क्रमात् ।। ___ॐ ह्रीं परमशान्तिविधायकाय हृदयस्थिताय श्रीवृषभजिनचरणाय फलम् । नीरश्चन्दन-तन्दुलैः सुसघनः, पुष्पैः प्रमोदास्पदैः । नयेः नवरत्नदीपनिकर, धूमैस्तथा धूपजः ।। अर्घ्य चारुफलश्च मुक्तिफलदं, कृत्वा जिनाहि. ब्र-द्वये । मसरमा श्रीमुभिसोसेनगणिना, मोक्षो ममा पार्थितः ।। ॐ ह्रीं परमशान्तिविधायकाय हुदपस्थिताय __ श्रीवृषभजिनाय अध्यम् । जिनेन्द्रपादाब्जयुगस्य भक्त्या, जिनेन्द्रमार्गस्य सुरक्षपाले । सम्यक्त्वयुक्त गुणरश्मिपूर्ण, गोवक्त्रयक्षं परिपूजयामि ।। ॐ ह्रीं श्रीवृषभदेवपादारविन्दसेवकगोदरपाय मागतविघ्ननिवारकाय पय॑म् । चक्रेश्वरी जैनपदारविन्द-सहानुरक्तां जिनशासनस्थां । विघ्नोपहन्त्री सुखधामकी, भक्त्या यजे तां सुखकार्य कीम् ॥ ॐ ह्रीं जिनमार्गरक्षाकयें दारिद्रयनिवारिकार्य चश्वयं अय॑म् । Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अथाष्टवलकमलपूजा (वसन्ततिलकावत्तम् ) सविघ्ननाशक भक्तामर - प्रगतमौलि - मणिप्रभारणा मुद्योतकं दलित - पापतमो - वितानम् । सम्यक्प्रणम्य जिनपादयुग युगादा-- वालम्बनं भवजले पततां जनानाम् ॥१॥ नम्रासुरासुरननाथशिरांसि यस्य, सम्बिम्बितानि नखविंशतिदर्पणेऽस्मिन् । तं विश्वनाथमभिवन्द्य सुपूजयामि, पक्वान्न - पुष्प - जलचन्दनतन्दुलाद्यैः ।।१।। भक्त अमर नत मुकुट सुमणियों, की सु-प्रभा का जो भासक । पापरूप अति सघन तिमिर का, मान-दिवाकर-सा नाशक || भव-जल पतित जनों को जिसने, दिया आदि में अवलम्बन । उनके चरण-कमल का करते, सम्यक बारम्बार नमन ।।१।। (ऋद्धि) ॐ ह्रीं अहं णमो अरिहताणं, एमो जिरणपणं जहां ह्रीं हूं. ह्रौं है: असि पाउ सा अप्रतिचक्रे फट् विचक्राय झा झौं स्वाहा। (मंत्र) ॐ ह्रां ह्रीं हूँ. श्रीं क्लीं ब्लं क्रीं ॐ ह्रीं नमः स्वाहा । (विधि) ऋद्धि और मंत्र श्रद्धापूर्वक प्रतिदिन १०८ बार जपने से समस्त विघ्न नष्ट होते हैं ॥१॥ अर्थ-विशेष वैभवशाली देवों से पूजित, अपने तथा प्रोरों के 'पापसमूह के नाशक और अपने वीतराा उपवेश द्वारा प्राणियों को ( ३४ ) Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री भक्तामर महामण्डल पूजा + - - - --+- .... संसारसमुा से निकालने वाले जिनेन्द्रदेव के घरों को नमस्कार कर में यह स्तुति करता हूं ॥१॥ ॐ ह्रीं विश्वविध्नहराय क्लींमहाबीजाक्षरसहिताय हृदयस्थिताय श्रीवृषभजिनाय अध्यम् ॥१॥ Having duly bowed down to the feet of Jina, which, at the beginning of the yuga, was the prop for med drowned in the ocean of worldliness, and which illumine the lustre of the gems of the prostrated heads of the devoted gods, and which dispel the vast gloom of sins. 1. सकलरोगनाशक यः संस्तुतः सकलवाङ - मयतत्त्वबोधा-- दुद्भुत - बुद्धि - पटुभिः सुरलोकनाथैः । स्तोत्र जगत्त्रितयचित्त - हरेरुवारः, स्तोष्ये किलाहमपितं प्रथमं जिनेन्द्रम् ॥२॥ रम्यैः सुसंस्तवन - कोटिभि - रादरेण, - देवैःस्तुतो विविधशस्त्रयुत जिनो यः । संसारसागर - सुतारण - नौसमानं, पूजामि चारुचरु - चन्दन - पुष्पतोयैः ।।२।। सकल वाङमय तत्त्वबोध से, उद्भव पटुतर धी-धारी । उसी इन्द्र की स्तुति से है, बन्दित जग-जन मन-हारी ।। अति आश्चर्य की स्तुति करता, उसी प्रथम जिनस्वामी की । जगनामी • सुखधामी तद्भव - शिवगामी अभिरामी को ।।२।। (ऋद्धि) ॐ ह्रौं पई एमो प्रोहिमिणाणं । Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री भक्तामर महामण्डल पूजा (मंत्र) ॐ ह्रीं श्रीं क्लीं ब्लू नमः । (विधि) श्रद्धासहित लगातार २१ दिन तक १०८ बार ऋद्धिमन्त्र जपने से समस्त रोग और शत्रु शान्त हो जाते हैं। अर्यः-सम्पूर्ण द्वादशाङ्ग का मान होने से प्रखरबुधि युक्त इगों ने तीनों लोकों के सित्त को लभाने वाले प्रशस्त स्तोत्रों से जिसकी स्तुति की थी उस माविनाथ भगवान की स्तुति करने के लिये में प्रल्पन "वृत्त होता. यह माल की है ।.२ ॐ ह्रीं नानामरस्तताम सकलरोगहराय फ्लीमहावीवाक्षरसहिताय हृदयस्थिताय श्रीवृषभजिनाय प्रध्यम् । I shall indeed pay homage to that First Jinedra, Who with beautiful orisons captivating the minds of al! the three Worlds, has been worshipped by the lords of the gods endowed with profound wisdom born of all the Shastras. 2. सर्वसिद्धि दायक बुद्धया विनापि बिबुधाचितपादपीठ ! स्तोतुं समुद्यतमति विगतप्रपोऽहम् । बालं विहाय जलसंस्थितमिन्दुबिम्ब मन्यः क इच्छति जना सहसा ग्रहीतुम् ।।३।। युक्ता क्रियास्तवनमादिजिनस्य मूढो, मत्या विनापि बुधसेवितपादकस्य । सम्पादयामि मनसीह कृतो विचारः, पूजारतः सुचिरतः सुखदायकस्य ॥३॥ Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री भक्तामर महामण्डल पूजा .. - - -+ - - - स्तुति को तय्यार हुअा हूँ, मैं निर्वृद्धि छोड़ के लाज । विज्ञजनों से अचित हे प्रभु, मंदबुद्धि की रखना लाज ।। जल में पड़े चन्द्र-मंडल को. वाला विना कीन पतिमान । सहसा उसे पकड़ने वाली, प्रबलेच्छा करता गतिमान ॥३।। (ऋद्धि) ॐ ह्रीं अह ए मो परमोहिजिणाणं । ( मंत्र) ॐ ह्रीं श्रीं फ्ली सिदेभ्यो बुद्धेभ्यः सर्वसिद्धदायकेभ्यो नमः स्वाहा । (विधि) श्रद्धापूर्वक सात दिन तक प्रतिदिन त्रिकास १०८ बार ऋद्धिमंत्र जपने से सर्वसिद्धियां प्राप्त होती हैं ॥३॥ अर्थ-हे देवों द्वारा पूजनीय जिनेन्द्र ! विशेष सुखि के न होने पर भी जो मैं पापकी स्तुति करने में तत्पर हो रहा हूँ, यह मेरी बौठता ही है, क्योंकि मेरा यह प्रयन पानी में प्रतिविम्बित चन्द्र प्रतिविम्ब को बड़े बाप से पकड़ने वाले बालक की भांति ही है ॥३॥ ॐ ह्रीं मस्पादिसुशानप्रकाशनाय क्लींमहावीजाक्षरसहिताय हृदयस्थिताय श्रीवृषभजिनाय मयम् ॥३॥ Shameless I am. O Lord, as 1, though devoid of wisdon, have decided to eulogise you, whose feet have been worshipped by the gods. Who, but an infant, sud. deply wishes to grasp the disc of the moon reflected ja water ? 3. जलजन्तु-मोषक वक्तुं गुणान् गुरगसमुन्द्र ! शशाङ्ककान्तान्, कस्ते क्षमः सुरगुरुप्रतिमोऽपि बुद्धधा। करूपान्त - कालपवनोद्धत - नक - चक्र. को वा तरोतुमलमम्बुनिधि भुजाभ्याम् ॥४॥ Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री भक्तामर महामण्डल पूजा ------ चन्द्रस्य कान्तिसदृशान् परमान् गुणौघान्, कोऽसा पुमान् तव विभो : कथितुं समर्थः । तस्माद् विधाय जिनपूजनमेव कार्यम् । मुक्ति व्रजामि वरभक्ति - जबात् देव ! ॥४॥ हेजिन ! चंद्रकान्त से बढ़कर, तव गुण विपुल अमलप्रतिश्वेत ! कह न सकें नर हे गुण-सागर, सुर-गुरु के सम बुद्धिसमेत ॥ मक-नक्र-चक्रादि जन्तु युत, प्रलय पवन से बढ़ा अपार । कौन भजामों से समुद्र के, हो सकता है परले पार ।।४।। (ऋद्धि) ॐ ह्रीं मह णमो सब्बोहिजिरगाणं ।। ( मंत्र ) * ह्रीं श्रीं क्लीं जलयात्रादेवताम्यो नमः स्वाहा । (विधि) सात दिन तक प्रतिदिन १००० बार श्रद्धापूर्वक ऋद्धिमंत्र जपने तथा २१ कंकरियों को कमशः एफ २ कंकरी को उक्त मंत्र से मंत्रित कर अल में डालने से जाल में मछलियाँ नहीं फंसती ॥४॥ अर्थ-हे गुणनिधे । जिस सरह प्रलयकाल की प्रचण्ड वायु से कुपित और लहराते हुये हिंसक मगरमच्छों से परिपूर्ण समुद्र को कोई भुजामों से नहीं तर सकता: उसी प्रकार बृहस्पति के समान बुद्धिमान पुरुष भी मापके निर्मल गुणों का पर्णम नहीं कर सकता, फिर मुझ पल्पज्ञ की तो बात हो क्या है ? ॥४॥ ॐ ह्रीं नानादुःखसमुद्रतारणाय क्लींमहाबीजाक्षरसहिताय हृदयस्थिताय धीवृषभजिनाय प्रय॑म् ।।४॥ Lore thou art the very occean of virtues who though vying in wisdom with the preceptor of the gods, can describe thine excellencey spotless like the moon? Whoever can cross with hands the ocean, full of alligators lashed to fury by the winds of the Doomsday. 4 Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री भक्तामर महामण्डल पूजा . अक्षिरोग संहारक सोऽहं तथापि तव भक्तियशान्मुनीश ! कर्तुं स्तवं विगतशक्तिरपि प्रवृत्तः । प्रीत्यात्मवीयमविचार्य भूमी ममेन्द्र, नाभ्येति कि निशिशोः परिपालनार्थम् ॥५॥ मूढोऽप्यहं जिनगुणेषु सदानुरक्तः, भक्ति करोमि मतिहीन उदार-बुद्धया । कार्यस्य सिद्धिमुपयाति सदैब पुण्यात्, तस्माद्यजामि जिनराजपदारविन्दम् ।।५॥ बह में हूँ कुछ शक्ति न रखकर, भक्ति प्रेरणा से लाचार । करता हूँ स्तुति प्रभु तेरी, जिसे न पौर्वापर्य विचार ।। निजशिशु की रक्षार्थ प्रात्म-बल, बिना विचारे क्या न मृगी। जाती है मृगपति के आगे, प्रेम-रंग में हुई रंगो ||५|| (ऋद्धि) ॐ ह्रीं अहं णमो प्रणंसोहिजिणाणं ! ( मंत्र ) ॐ ह्रीं श्रीं क्लीं की सर्व संकट निवारणेभ्यः सुपाययक्षेभ्यो ममो नमः स्वाहा । (विधि) श्रद्धासहित ७ दिन तक प्रतिदिन ऋद्धिमंत्र का १०.. बार जाप करने से सब तरह के नेत्ररोग-शमन हो जाते हैं। मर्म-हे मुनिनाथ ! से हरिणी शणित न रहते हुये भी केवल प्रेमवश अपने बच्चे की रक्षा के लिये सिंह का सामना करती है। उसी प्रकार में भी बौद्धिकशक्ति न होने पर भी बडामात्र से प्रापका लक्म करने के लिये प्रपत्त मा हूँ ॥५॥ -. Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Yo श्री भक्तामर महामण्डल पूजा ॐ ह्रीं सकलकार्यसिद्धिकराय क्लींमहादीमाक्षरसहिताय हृदयस्थिताय श्रीवृषभजिनाय अध्यम् ।।५।। Though devoid of power yet urged by devotion, O Great Sage, I am deterniined to culogise you. Does tot a detr, not taking into account its own might, face a lion to protect its young-one out of affection: 5. सरस्वती-भगवती-विद्या प्रसार अल्पश्रुतं श्रुतवतां परिहासधाम, त्वद्भक्तिरेव मुखरीकुरुते बलान्माम् । यत्कोकिलः किल मधो मधुरं दिरोति, तच्चान्न - चार - कलिका - निकरकहेतुः ॥६॥ ये सन्ति शास्त्रसबला प्रहसन्ति ते मां, भक्त्या तथापि जिन भक्तिवशात् करोमि । पूजाविधि जिनपतेः सुरचित्तचौर, स्वर्गापवर्गसुखदं परमं गुणोधम् ॥६॥ प्रल्पश्रुत हूँ श्रुतबानों से, हास्य कराने का ही धाम । करती है बाचाल मुझे प्रमु, भक्ति प्रापकी पाठों याम ।। करतो मधुर गान पिक मधु में, जगजन मनहर प्रति अभिराम | उसमें हेतु सरस फल फूलों, के युत हरे - भरे तरु - माम ॥६॥ (ऋद्धि) ॐ ह्रीं मह णमो कोडुबुखोग । (मंत्र ) * ह्रीं श्रीं श्रीं यूं कई सं या बरषः ठः ॐ सरस्वती भगवती विद्याप्रसादं कुरु २ स्वाहा । Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४१ --- - श्री भक्तामर महामण्डल पूजा --- ...- . .-.-..- - . . . . . . (विधि) २१ दिन तक प्रतिदिन १००० बार ऋद्धि मंत्र को श्रद्धा माहित जपने से बहत शीघ्र विद्या प्राती है ।।६।। अर्थ-हे जिनेश ! जिस तरह प्रबोष कोयल वसन्त ऋतु में केवल प्रासमवरी का निमित पाकर मधुर ध्वनि करती है, उसी प्रकार प्रल्पा और विद्वानों के हास्यपात्र मुझे केवल आपको भक्ति ही भापकी स्तुति करने के हेतु जबरन बाचाल कर रही है ॥६॥ ॐ ह्रीं याचितार्थप्रतिपावनशक्तिसहिताय क्लींमहाबोजाक्षरसहिताम हृदयस्थिताय श्रीवृषभजिनाय अय॑म् ॥६|| Though my lcarning is poor, and I am the butt of ridicule to the learned, yet it is my devotion towards You, which forces me to be vocal. The only cause of the cuckoo's sweet song in the spring-time is indeed the charming mango buds. 6. सर्वदुरित संकट भोपाव निवारक त्वत्संस्तवेन भव - सन्तति - सनिबद्ध, पापं क्षणाक्षय - मुपैति • शरीरभाजाम् । माकान्त - लोक - मलिनील - मशेषमाशु, सूर्या शुभिन्नमिव शार्वर-मन्धकारम् ॥७॥ स्तोत्रेण नाथ ! विलय क्षण मात्रतो यत् पापं प्रयाति पठतां भवतां नरस्य । मुक्तः सुखं स हि भुनक्ति निवार्य कुष्ट, पूजां करोमि सतत च ततो जिनस्य ॥७॥ जिनवर की स्तुति करने से, चिर संचित भविजन के पाप । पल भर में भग जाते निश्चित, इधर-उधर अपने ही भाप ।। Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री भक्तामर महामण्डल पूजा सकललोक में व्याप्त राम का, भ्रमर सरोसा काला ध्वान्त । प्रातः रवि को उग्र किरण लख, होजाता क्षण में प्राणान्त ।।७।। (ऋश्चि) ॐ ह्रीं प्रहं णमो वीजबुद्धौणं । (मंत्र) ॐ ह्रीं हं सं श्रां श्रीं क्रौं क्लीं सर्वदुरितसंकट द्रोपद्रवकाष्टनिवारणं कुरु २ स्वाहा । (विधि) २१ दिन तक प्रतिदिन १०८ बार ऋद्धिमंत्र भावसहित जपने से किसी प्रकार का विष नहीं चढ़ता । सपा कंकरी को १०८ बार मंत्रित कर सर्प के सिरपर मारने से सर्प कीलित हो जाता है |१७ पर्व-हे प्रभो! जिस तरह सूर्य की किरण द्वारा रात्रि का समस्त अन्धकार नष्ट हो जाता है उसी तरह अापके स्तवन से प्राणियों का अनेक जन्म में सञ्चित पाप नष्ट हो जाता है ॥७॥ ॐ ह्रीं सकलपापफलकष्टानिवारणाय, क्लोमहाबीजाक्षरसहिताय हृदयस्थिताय श्रीवृषभजिनाय अर्मम् ।। As the black-bce-like darkness of the night, overspreading the universe, is dispelled instantáncously by the rays of the sun, so is the sin of men, accumulated through cycles of births, dispelled by the eulogies offered to you. 7 सर्वारिष्ट योग निवारक मत्वेति नाथ ! तब संस्तवनं मयेद मारभ्यते तनुधियापि तव प्रभावात् । चेतो हरिष्यति सतां नलिनीदलेषु, मुक्ताफलद्युतिमुपैति ननूद-बिन्दुः ॥८॥ ज्ञात्वा मया सुरचितों जिननाथ-पूज्यां, पूजां विधाय पुरुषः शिवधाम याति । Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री भक्तामर महामण्डल पूजा - -- - सम्यक्त्वमुख्य - गुणकाष्टक - धारिसिद्धः, सिद्धः भवेत्स भविनां भवतापहारी ॥ में मति-हीन-दीन प्रभु तेरी, शुरू करू स्तुति अघहान । प्रभु-प्रभाव ही चित्त हरेगा, सन्तों का निश्चय से मान । जैसे कमल-पत्र पर जल-कण, मोती कैसे प्राभावान । दिपते हैं फिर छिपते हैं असली मोती में है भगवान ।। (ऋद्धि) ॐ ह्रीं अहं णमो मरिहताणं, रामो पादाणुसारिणं । ( मंत्र ) ॐ ह्रां ह्रीं ह्र, ह्रीं ह्रः असि प्रा उ सा अप्रतिचक्रे फट विच काय झी झों स्वाहा । ॐ ह्रीं लक्ष्मणरामचन्द्र देव्यै नमो नमः स्वाहा। (विधि) २१ दिन तक प्रतिदिन श्रद्धासहित ऋद्धि मंत्र का जाप करने से सब प्रकार के परिष्ट मिट जाते हैं ॥८॥ भर्य-हे प्रभो ! जिस तरह कमलिनी के पत्र पर पड़ी हुई पानी को बंब उस पसे के प्रभार से मोती के समान सुन्दर विलकर दर्शकों के चित्त को प्रसन्न करती है, उसी प्रकार मुझ मन्दबुद्धि द्वारा की गई पापको स्तुति भी भापके प्रभाव से सम्जनों के चित्त को प्रसन्न करेगी॥८॥ ॐ ह्रीं मने कसंकटसंसारदुःखनिवारणाय बलीमहावीजाक्षरसहिताय हृदयस्थिताय श्रीवृषभजिनाय अयम् ।।।। Thinking thus O Lord, I, though of little intelligence, begin this eulogy (in praise of you ), which will, through Your rragnanimity, captivate the minds of the righteous, water drops, indeed, assume the lustre of pearls on loutsLeaves. 8. Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री भक्तामर महामण्डल पूजा -..--. - - .... - . - . .-.- .... --- जलकुसुमसुगन्धे - रक्षतः दोपचूपैः । विविध - फल निवेद्य - रर्चयामोह देवम् ।। मुग्नरवरसेव्यं दोहदानां वरेशं । शिवसुखपदधामं प्राणिनां प्राणनाथम् ॥ ॐ ह्रीं अष्टदलकमलाधिपतये श्रीवृषभजिनेन्द्राय अध्यम् । अथ षोडश दलकमलपूजा सप्तभयसंहारक प्रभौमितफलदायक भात सब स्वामशात्महतो, स्वस्सङ कथापि जगतो दुरितानि हन्ति । दूरे सहस्रकिरणः कुरुते प्रभव, पपाकरेषु जलजानि विकास जि ।।। तव गुणावलिगानविधायिनो, भवति दूरतरं दुरितास्पदं । तव कथापिशिवाढयविधायिका, कुरुजिनार्चनकं शुभदायक दूर रहे स्तोत्र मापका, जो कि सर्वथा है निदोष । पुण्य-कथा ही किन्तु आपको, हर लेती है कल्मष-कोष ।। प्रभा प्रफुल्लित करती रहती, सर के कमलों को भरपूर । फेंका करता सूर्य-किरण को, पाप रहा करता है दूर ।।९।। (ऋद्धि) ॐ ह्री प्रहं णमो अरिहंताणं, णमो संभिणसोदाराएं हो ह्रीं है. फट् स्वाहा । (मंत्र) ॐ ह्रीं श्रीं कोसी वी र: र: हं हा नमः स्वाहा । Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री भक्तामर महामण्डल पूजा (विधि) श्रद्धापूर्वक चार कंकरी १०८ बार मंत्र कर चारों दिशाओं में फेंकने से पत्र कोलित हो जाता है तथा सप्तभय भाग जाते हैं। भावार्थ - हे जिनेश ! आपके निर्दोष स्तवनमें तो भविन्स्य शक्ति है ही, परन्तु आपकी पवित्र कयाका सुनना ही प्राणियों के पापों को नष्ट कर देता है। असे सूर्य तो दूर ही रहता है, परन्तु उसकी उक्ज्वल किरण ही सरोवरों में कमलों को विकसित कर देती हैं || १ | ॐ ह्रीं सकलमनोवांछित फलदात्रे क्लीं महाबीजाक्षर सहिताय हृदयस्थिताय श्रीवृषभदेवाय अर्घ्यम् ||६|| ४५ Let alone Thy eulog, which destryoys all blemishes; even the mere mention of Thy name destroys the sins of the world. After all the sun is far away, still his more light makes the lotuses bloom in the the tanks. 9 कुकरविवनिवारक नात्यद्भ ुतं भुवन भूषरण ! भूतनाथ ! W भूर्त गुंग भुवि भवन्तमभिष्टुवन्तः । तुल्या भवन्ति भवतो ननु तेन किम्बा, भूत्याश्रितं य इह्नात्मसमं करोति ॥ १० ॥ नहि विभोऽद्भूतमंत्रसमप्रभो, भवति यो भविनां भुवि भक्तिदः जिनवरार्चनतोऽर्चनताचितं फलमिदं भविता कथितं जिनैः त्रिभुवनतिलक जगपति है प्रभु ! सद्गुरुत्रों के हे गुरुवर्य्यं । सद्भक्तों को निजसम करते, इसमें नहीं अधिक आश्चर्य ।। स्वाश्रित जन को निजसम करते, घनी लोग धन घरनी से । नहीं करें तो उन्हें लाभ क्या ? उन धनिकों की करनी से || Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री भक्तामर महामण्डल पूजा (ऋद्धि) ॐ ह्रीं ग्रह णमो सयंदुद्धीणं । ( मंत्री जन्मसद्ध्यानतो जन्मतो वा मनोत्कर्षघृतावादि मोर्यानाक्षान्ताभावे प्रत्यक्षा बुद्धान्मनो ह्रां ह्रीं हं. लौं ह्रः श्रां श्री श्री श्र: सिद्धबुद्धकृतार्थों भव २ वषट् सम्पूर्ण स्वाहा । (!) (विधि) श्रद्धापूर्वक नमक की ७ डली लेकर प्रत्येक को १०८ बार मंत्रित कर खाने से कुत्ते के विष का असर नहीं होता। भावार्थ-हे भुवनररन ! पनि सत्यार्य गुरणों ारा पापको स्तुति करने वाले मानव अापके हो सदृश हो जाय तो इसमें कोई प्राश्चर्य नहीं है, क्योंकि संसार में उस स्वामी से लाभ ही पया ? जो अपने प्रधान व्यक्तियों को अपने समान नहीं बना लेवे ॥१०॥ ॐ ह्रीं प्रहज्जिनस्मरणजिनसम्भूताय कलीमहावीजाक्षरसहिताय हुदमस्थिताय श्रीवृषभदेवाय प्रय॑म् । O ornament of the world! O Lord of beings! No wonder that those, adoring You with (Thy) real qualities, become equal to you. What is the use of that (master), who does not make his subordinates equal to himself by (the gifts of) wealth. 10. प्रमाप्सित-माकर्षक दृष्ट्वा भवन्तमनिमेषविलोकनीयं, नान्यत्र तोषमुपयाति जनस्य चक्षुः । पीत्वा पयः शशिकरद्युतिदुग्धसिन्धोः, क्षारं जलं जलनिधेरसितुं क इच्छेत् ? ॥११॥ भवति दर्शनमेबमिते सति, भवति यादृश एव सुतोषकः। न हि तथा परतः क्वचिदेव तत्, सततमेव करोमि तवार्चनम् ॥ Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री भक्तामर महामण्डल पूजा हे अनिमेष दिलोकनाय प्रभु, तुम्हें देखबार परम-पवित्र । तोषित होते कभी नहीं हैं, नयन मानकों के अन्यत्र । चन्द्र-किरण सम उज्ज्वल निर्मल, क्षीरोदधि का कर जलपान । कालोदधि का सारा पानी, पीना चाहे कोन पुमान ।।११।। (ऋद्धि) ॐ ह्रीं प्रहं णमो पत्तेयबुद्धीम् । (मंत्र ॐ ह्रीं श्रीं क्लीं श्रां श्री कुमसिनिवारिण्य महामायाय नमः स्वाहा। (विधि) श्रद्धासहित १ दिन सम प्रतिदिन १०८ बार ऋद्धिमंत्र जपने से जिसे बुलाने की उत्कण्ठा हो वह पा सकता है। बारह हजार मंत्र जपकर सरसों के तीन घेर फरे तो वर्षा होय ॥१॥ अर्थ-हे लोकोत्तम ! जैसे औरसागर के निर्मल और मिष्ट जस का पान करने वाला मनुष्य अन्य समुद्र के खारे पानी को पीने की इच्छा नहीं करता, उसी तरह पापको वीतरागमुद्रा को निरण कर मनुष्यों के नेत्र अन्य देवों की सरागमुद्रा के देखने से तृप्त नहीं होते ।।११॥ ॐ ह्रीं सकलतुष्टिपुष्टिकराव क्लीमहावीजाक्षरसहिताय हुण्यस्थिताय श्रीपभदेवाय प्रय॑म् ।।११। Having (0:1cc) seen Yo:, fit to be seen with winkless eyes or by Gods. the eyes of man jo not find satisfuction clsewhere. Having drunk the moon-white milk of the milky Occan. wlio desires to drink the saltish water of the sea ?il. हस्ति-मद-विदारक, वांछित रूप प्रदायक यः शान्तरागरचिभिः परमाणभिस्त्वं, निर्मापितस्त्रिभुवनकललामभूत ! Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ YE श्री भक्तामर महामण्डल पूजा -.--.... - तावन्त एव खलु तेऽप्यणवः पृथिव्यां, यत्तं समानमपरं न हि रूपमस्ति ।।१२।। जिनविभो ! तव रूपमिव क्वचित्, ___ न भवतीह जने विभवान्विते ।। भवति पापलयं जिनदर्शनात्, जिन ! सदार्चनतां प्रकरोमि ते ।। जिन जितने जसे अणुमों से, निर्मापित प्रभु तेरी देह । थे उतने वैसे प्रण गम में, शांत- पाय निकन्देह ।। हे त्रिभुवन के शिरोभाग के, अद्वितीय प्राभूषण - रूप । इसीलिए तो आप सरीखा, नहीं दूसरों का है रूप ।।१२।। (ऋद्धि , ॐ ह्रीं मई णमो बोहिमबुद्धोणं । { मंत्र) ॐ प्रो प्रां पं प्रः सर्वराजप्रडामोहिनि सर्वजनवश्य कुरु कुरु स्वाहा । (विधि) बवासहित ४२ दिन तक प्रतिदिन १००० ऋद्धिमंत्र जपमा पाहिए। एक पाव तिलतेल को उक्त मंत्र से मंत्रित कर हाथी को पिलाने से उसका मद उतर जाता है ।।१२।। प्रर्प-हे सोकशिरोमण ! प्रापके शरीर की रचना लिन पुद्गल परमाणुओं से हुई है वे परमाणु संसार में उतने ही थे। परि प्रषिक होते तो आप सा रूप पोर का भी होना चाहिये था, किन्तु वास्तव में प्रापके समान सुन्दर पृथिवी पर कोई दूसरा महीं है ॥१२॥ ॐ ह्रीं वांछितरूपफलशक्तये बलीमहावीजाक्षरसहिताय हृदयस्थिताय श्रीवृषभदेवाम प्रध्यम् ।।१६।। Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री भक्तामर महामण्डस पूजा O supreine ornament of all the three worlds ! As many indeed in this world were the atoms possessed of the lustre of non-attachment, that went to the composi. tion of your body and that is why no other form like that of Yours exists on this custh. 12. लक्ष्मी-सुल-प्रदायक, स्वशरीररक्षक सक्नं य सुर - नरोरग - नेत्रहारि. निःशेष - निजित - जगस्त्रितयोपमानम् । विम्बं कलङ्क - मलिनं क्व निशाकरस्य, पद्वासरे भवति पाण्डु पलाशकल्पम् ॥१३॥ सुरनरोरग-मानसहारकं, सुवदनं शशितुल्यमतं त्वकं । जगति नाथ ! जिनस्य तवात्र भो, परियजे विधिनात्र जिन मुदा ॥१३॥ कहां आपका मुख अतिसुन्दर, मुर-नर-उरग नेत्र-हारी । जिसने जीत लिये सब जग के, जितने थे उफ्माधारी ।। कहाँ कलंकी बंक चन्द्रमा, रंक-समान कीट-सा दीन । जो पलाश-सा फीका पड़ता, दिन में हो करके छबि-छीन ।।१३।। (ऋधि) ॐ ह्रीं पई णमो ऋजुमदीयं । { मंत्र ) ॐ ह्रीं श्रीं हूं सः ह्रीं ह्रां ह्रीं क्रां दी द्रः मोहिनि सर्वजनवश्यं कुरु कुरु स्वाहा । (विधि) श्रद्धासहित ७ दिन तक प्रतिदिन १००० ऋद्धिमत्र का जप करने तथा ७ कंकरियों को १०८ बार मंत्रित कर चारों ओर फेंकने से चोर चोरी नहीं कर पाते और मार्ग में भय नहीं रहता ॥१३॥ मर्ष-हे प्रभो ! प्रापके मुल को चन्द्रमा को उपमा देने वाले विद्वान् गलती करते हैं। क्योंकि आपके मुख की प्रभा कभी फोकी नहीं Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री भक्तामर महामण्डल पूजा पड़ती, परन्तु चन्द्रमा को प्रभा दिन में फीकी पड़ जाती है। तपा। चन्द्रमा कलङ्गी है, किन्तु प्रापका मुल कालकरहित है ॥१३॥ ॐ ह्रीं सक्षमीसुखविधामकाय पलीमहावीजाक्षरसहिताय हृदयस्थिताय श्रोवृषभदेवाय अय॑म् ॥१३॥ Where is Thy fuce which attracts the cycs of gods, men, and divine serpents, and wbich has thoroughly surpassed all the standards of comparison in all ibe three worlds. That spotted moon-disc which by the day time becomes pale and lustrelcss fike the white, dry leaf, stands to comparison ! 13. माधि-व्याधि नाशक सम्पूर्ण - मण्डल - शशाङ्क - कलाकलाप शुभ्रा गुणास्त्रिभुवनं तव लड़यन्ति । ये संश्रितास्त्रिजगदीश्वरनाथमेकं, कस्तानिवारयति संचरतो यथेष्टम् ॥१४॥ तव गुणान् हदि धारकमानवो, भ्रमति निर्भयतो भुवि देववत् ।। शशिसमै जलचन्दनमुख्यकैः, परियजामि नतो जिनपादुकाम् ।।१४|| तव गुण पूर्ण-शशात क्रान्तिमय, कला-कलापों से बढ़के । तीन लोक में व्याप रहे हैं, जो कि स्वच्छता में चढ़के ।। विचरें चाहे जहाँ कि जिनको, जगन्नाथ का एकाधार । कौन माई का जाया रखता, उन्हें रोकने का अधिकार ।।१४।। (ऋद्धि) ॐ ह्रीं बह एमो विउलमदीणं । Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री भक्तामर महामण्डल पुजा ( मंत्र | ॐ नमो भगवत्य गुणवत्यं महामानस्यै स्वाहा । (विधि) श्रद्धापूर्वक ७ करियों को २१ बार मंत्रित कर चारों पोर फेंकने से प्राधि-व्याधि शत्रु प्रादि का भय मिट जाता है और लक्ष्मी की प्राप्ति होती है ।।१४।। पूर्व-हे गुणाकर । जैसे किसी राजाधिराज के माषित व्यक्ति को जहां तहां पच्छानुसार घुमते रहते कोई रोक नहीं सकता उसी प्रकार मापके मालित कीति माविक गुणों को त्रिसोक में कोई नहीं रोक सकता मात्र प्रापके गुण लोकत्रय में व्याप्त हो रहे हैं ॥१४॥ ॐ ह्रीं भूतप्रेतादिभयनिवारणाय मलींमहावीजाक्षरसहिताय हृदयस्थिताय थोवृषभदेवाय अय॑म् ।।१४॥ Thy virtues, which are bright like the collection of digits of full-moon, bestride the three worlds. Who can resist them while moving at will, having taken sesort to that supreme Lord Who is ihe sole overlord of all the three worlds. 14. सम्मान-सौभाग्य-संधर्वक चित्रं किमत्र यदि ते त्रिदशाङ्गनाभि नीतं मनागपि मनो न विकारमार्गम् । कल्पान्त - काल - मरुता चलिताघलेन, कि मन्दरादिशिखरं चलितं कदाचित् ॥१५॥ अमरनारिकटाक्षशरासन-न चलितो वृषभः स्थिरमेरुवत्। शिवपुरे उषितं च जिन *तं, परियजे स्तवनश्च जलादिभिः ।। मद को छकी अमर ललनाएँ, प्रभु के मन में तनिक विकार । कर न सकी आश्चर्य कौन सा, रह जाती हैं मन को मार ।। Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५२ श्री भक्तामर महामण्डल पूजा गिर गिर जाते प्रलय पवन से, तो फिर क्या वह मेरु-शिखर | हिल सकता है रंचमात्र भी, पाकर भंझावात प्रखर ।।१२।। (ऋद्धि) ॐ ह्रीं अर्ह णमो दशपुब्बीणं । ( मंत्र ) ॐ ह्रीं श्री श्री श्रं श्र थ द सरस्वती भगवती "वद्याप्रसादं कुरु २ स्वाहा । (विधि) श्रद्धापूर्वक ५४ दिन १००० जाप करे । २१ बार तैलमंत्रित कर मुख पर लगाने से सभा में सम्मान बढ़ता है ।। १५ ।। श्रयं --- हे मनोविजयिन् ! प्रलय की पवन से यद्यपि अनेक पत कम्पित हो जाते हैं परन्तु सुमेरु पर्वत लेशमात्र भी चलापयान नहीं होता, उसी प्रकार देवाङ्गनाओं ने यद्यपि अनेक महान् देवों का चित्त चलायमान कर दिया, परन्तु प्रापका गम्भीर चित्त किसी के द्वारा दामात्र भी चलायमान नहीं किया जा सका ॥ १२ ॥ ॐ ह्रीं मेरुवन्मनोबलकररणाय क्लींमहाबीजाक्षरसहिताय हृदयस्थिताय श्रीवृषभदेवाय मध्यंम् ||१५|| No wonder that Your mind was not in the least perturbed even by the celestial damsels. Is the peak of Mandaramountain ever shaken by the mountain-shaking winds of Doomsday ? 15. सर्व विजयवाक निर्धूम वतिरपर्वाजत तैलपूर:, कृत्स्नं जगत्त्रयमिदं प्रकटीकरोषि । 1 - गम्यो न जातु मरुतां चलिताचलानां, दीपोsपरस्त्वमसि नाथ ! जगत्प्रकाशः ११६। जगति दीपक इव जिन ! देवराट् प्रकटितं सकलं भुवनत्रयं पद- सरोज-युगं तु समर्चये, विमलनीरमुखाष्टविधैस्तव || Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री भक्तामर महामण्डल पूजा धूम न बत्ती तैल विना ही, प्रकट दिखाते तीनों लोक । गिरि के शिखर उड़ाने वाली बुझा न सकली मारुत झोक ॥ जिस पर सदा प्रकाशित रहते, गिनते नहीं कभी दिन-रात ऐसे अनुपम ग्राप दीप हैं। स्व-पर-प्रकाशक जग विख्यात ॥ १६ ॥ (ऋद्धि) ॐ ह्रीं यह रामो चउदसपूववीणं । 3 (मंत्र) शुद्ध कुरु कुरु स्वाहा | ५.३ सुमंगला सुसीमा नाम देवीभ्यां सर्वममीहितार्थ - (विधि) दिन तक प्रतिदिन श्रद्धासहित १००० ऋद्धि-मंत्र जपने से राजदरबार में प्रतिवादी को हार होती है और शत्रु का भय नहीं रहता । पेसी के दिन १०८ बार मंत्र पढ़कर स्वयं को वा दूसरों को श्रभूत का तिलक करे ।। १६ ।। अर्थ- हैप्रकाशक भाव समस्त संसार को प्रकाशित करने बाले मनखे दीपक है। क्योंकि अन्य दीपकों को बत्ती से धुआं निकलता है, परन्तु श्रापका वति ( मार्ग निर्धूम (पापरहित ) है। अन्य दीपक तेल की सहायता से प्रकाश करते हैं, परन्तु पाप बिना किसी की सहायता से ही प्रकाश (ज्ञान) फैलाते हैं। अन्य दीपक जरा भी हवाके झोक से बुझ जाते हैं, परन्तु प्राप प्रलयकाल की हवा से भी विकार को प्राप्त नहीं होते। तथा अन्य दीपक थोड़े से ही स्थान को प्रकाशित करते हैं, परन्तु श्राप समस्त लोक को प्रकाशित करते हैं ।। १६ । ॐ ह्रीं त्रैलोक्यलोकवशङ्कराय क्लीं महाबीजाक्षरस हिताय हृदयताय श्रीवृषभदेवाय अध्यम् । Thow art, O Lord ! an unparailed lamp as it were, the very light of the universe-which, though devoid of smoke, wick and oil, illumines all the three worlds and is invulnerable even to the mountain-shaking winds. 16. Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५४ श्री भक्तामर महामण्डल पूजा सर्वरोग प्रतिरोधक नास्तं कदाचिदुपयासि न राहुगम्यः, स्पष्टीकरोषि सहसा युगपज्जगन्ति । नाम्भोधरोवर -- निरुद्ध -- महाप्रभावः, सूर्यातिशायिमहिमासि मनीद्र ! लोके ।।१७।। शुभरवीव जिनः जिननायकः, दुरितरात्रिघनान्ध---तमोपहः । स्वजनपद्मविकाश-विधायकः, स्तवनपूजनश्च यामि तम् ।। मस्त न होता कभी न जिसको, अस पाता है राह प्रबल । एक साय बतलाने वाला, तीन लोक का ज्ञान विमल ॥ सकता कभी प्रभाव न जिसका, बादल की प्राकर के प्रोट । ऐसी गौरव-गरिमा बाले, आप अपूर्व दिवाकर कोट ॥१७॥ ( ऋद्धि ) ॐ ह्री अर्ह णभो अट्ठा महानिमित्कुमलाणं । ( मंत्र ) ॐ एमो मिऊए मट्ठ म? सदविघट्ट मुदपीड़ा अठरपीड़ा भंजय २, सर्वपीडा: निवारण २, सवंरोग-निवारणं कुरु कुरु स्वाहा । (विषि) प्रवासहित ७ दिन तक ... जाप जपना चाहिये। मछूता पानी २१ वार मंत्रित कर पिलाने से शारीरिक सभी रोग दूर हो जाते हैं ॥१७॥ प्रवं-हे मुनिमाय ! मापकी महिमा सूर्य से भी अधिक है। क्योंकि सूर्य सन्ध्या समय मस्त हो जाता है, परन्तु पाप सवा प्रकाशित Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यो भक्तामर महामण्डल पूजा रहते हैं । सूर्य को राहु ग्रस लेता है, परन्तु प्राग तक वह मापका स्पर्श तक नहीं कर सका । सूर्य दिन में क्रम झम से केवल एक द्वीप के मर्षमाग हो ही प्रकाशित करता है, परन्तु श्राप समस्त लोक को एकसाथ प्रकाशित करते हैं। और सूर्य के प्रकाश को मेघ हक देते हैं, परन्तु पापके प्रकाश (मान) को कोई भी नहीं इक सकता ॥१५॥ ॐ ह्रीं पापान्धकारनिवारणाय क्लींमहाबीजाक्षरसहिताय हृदयस्थिताय श्रीवृषभदेवाय अर्मम् ।।१।। O Great Sage, Thou knowest on sitting, nor art Thou cclipsed by Rahu. Thou dost illumine suddenly all the worlds at one and the sume time. The water-carrying clouds too can never bedim Thy great glory. Hence in respect of effulgence Thou art greater than the sun in this world. 17. वासन्य स्तम्भक नित्योदयं दलित - मोह - महान्धकार, गम्यं न राहुववनस्य न वारिवानाम् । विभ्राजते तय मुखाग्ज मनल्प-कांति, विद्योतपत्जगदपूर्व-शशाङ्क-बिम्बम् ॥१८॥ जिनशशी प्रकरोति विभासकं, सकलभव्य-सुपावनं घनं । निशिदिनं तिमिरप्रतिघातको, वरमहं सयजामि जलादिकैः ।। मोह महातम दलने वाला, सदा उदित रहने वाला। राहु न बादल से दबता पर, सदा स्वच्छ रहने वाला ।। Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री भक्तामर महामण्डल पूजा --. विश्व-प्रकाशक मुखस रोज लब, अधिक कांतिमय शांतिस्वरूप । है अपूर्व जगका दाशि-मण्डल, जगत शिरोमणि शिव का भुप । (ऋद्धि) ॐ ह्री प्रहं णमो विउयाट्टपत्ताणं । ( मंत्र } ॐ नमो भगवते जय विजय मोहय २, स्तम्भय २, स्वाहा । (विधि) धद्धासहित ३ दिन तक १००० आप जपना चाहिये । १०८ बार ऋद्धि-मंत्र जपने से यात्रुमुख स्तम्भित हो जाता है। अर्थ-हे चन्द्रवरन ! श्रापका मुखफमल एक विलक्षण चन्नमा है। क्योंकि प्रसिद्ध चन्द्र तो रात्रि में ही उदित होता है, परन्तु आपका मुखचन्द्र सदा उदित रहता है । चन्द्रमा साधारण अन्धकार का हो नाश करता है, परन्तु प्रापका मुखचन्द्र मोहरूपी महान अन्धभार को नष्ट कर देता है । चन्द्रमा को राष्ट्र ग्रस लेता है और बाइस छिपा देते हैं। परन्तु मापके मुखचन्द्र को न राहु ग्रस सकता है और न मावस छिपा सकते हैं । चन्द्रसी कान्ति कृष्णपक्ष में घट जाती है, परन्तु प्रापके मुखचन्द्र को कान्ति सदा सदा रहती है। तथा चन्द्रमा रात्रि में क्रम ऋम से केवल प्रधंद्वीप को ही प्रकाशित करता है, परन्तु प्रापका मुख चन्द्र समस्त लोक को एक साथ प्रकाशित करता है ।। १८॥ ॐहीं चन्द्रवत्सर्वलोकोद्योतनकराम सीमहावीजाक्षरसहिताय हृदयस्थिताय धीवृषभदेवाय अयम् ।।१८।। Thy lotus-like countenallcc, - which rises cotesbally, destorys to the great darkness of ignorance, is accessible neither the mouth of Rabu nor to the clouds; possCS$CS great of luminosity, is the universe-illuminatiog peerless wrioon. 18. Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री भक्तामर महामण्डन्न पूजा ५७ उच्चाटनादि रोषक कि शरीषु शशिनाह्नि विवस्वता धा, युरुमरमुखेन्दु - दलितेषु तमःसु नाथ ? निष्पनशालिवनशालिनि जीवलोक, कार्य कियज्जलधर जलभारनम्रः ॥१६॥ जिनमुखोद्भबकान्ति-विकाशितः, __ निखिललोक इतीह दिवाकरः । किमथवा सखदः प्रतिमानवं, ___ भवतु सः वृषभः शुभसेवया ।। नाथ आपका मुख जब करता, अन्धकार का सत्यानाश । तब दिन में रवि ग्रार रात्रि में, चन्द्र-बिम्ब का विफल प्रयास ।। धान्य-खेत जब धरती तल के, पके हुने हो अति अभिराम । शोर मचाते जन्न को लादे, हुयं घनों से तब क्या काम ?।।।९।। (ऋद्धि) ॐ ह्रीं ग्रह णमो विज्जाहराएं। ( नंत्र } ॐ हां ह्रीं हं ह्र: यक्ष ह्रौं वषट् नमः स्वाहा । (विधि) श्रद्धासहित ऋद्धि-मंत्र को १०८ बार जपने से अपने पर प्रयोग किये गये दूसरे के मंत्र, जादू टोना, टोटका, मूठ, उच्चाटन आदि का भय नहीं रहता ॥१६॥ अर्थ-हे निलोकीनाय ! जिस प्रकार अनाज के पक जाने पर जल का बरसना व्यर्थ है। क्योंकि उस जल से कीचड़ होने के सिवाय और कोई लाभ नहीं होता, उसी प्रकार मापके मुखचन्द्र के द्वारा चाँ अन्धकार नष्ट हो चुका है। यहाँ विन में सूर्य से मोर रात्रि में चन्द्र से कोई लाभ नहीं ॥१९॥ Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८ श्री भक्तामर महामण्डल पूजा ॐ ह्रीं सकलकालुष्यदोषनिवारणाय क्लीमहावीजाक्षरसहिताय हृदयस्थिताय श्रीवृषभजिनाय अय॑म् ।१६।। When Thy lotus-like face, O Lord, has destroyed tlie: darkness, ihal sile 45 otc sua b, !I:€ jay and moon by the night ? What's the use of clouds hcuvy with the Weight of water, after the ripening of the paddy-fields in the world. 19. सन्तान-सम्पत्ति-सौभाग्य प्रसाधक शानं यथा त्वयि विभाति कृतावकाश, नवं तथा हरिहरादिषु नायकेषु । सेज: स्फुरन्मरिणषु याति यथा महत्त्वं, नवं तु काचशकले किरगाफुलेऽपि ॥२०॥ त्वयि प्रभो ! प्रतिभाति यथा शुचि न हि तथा हरिमुख्यसुरादिषु । वसतु सः प्रभुरादिजिनेश्वरो, मम मनःसरसीव सु-हंसवत् ।। असा शोभित होता प्रभु का, स्वपर-प्रकाशक उत्तम ज्ञान । हरिहरादि देवों में वैसा, कभी नहीं हो सकता भान ।। अति ज्योतिर्मय महारतन का, जो महत्त्व देखा जाता । क्या वह किरणाकुलित कोच में, अरे कभी लेखा जाता ।।२०।। (ऋषि) ॐ ह्रीं मह णमो चारणाणं । . [ मंत्र ) ॐ श्री श्री श्रः शृं शत्रुभयनिवारणाय ठः ठः नमः स्वाहा । Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री भक्तामर महामण्डल पूजा (विधि) थदासहित प्रतिदिन ऋद्धि-मंत्र को १०८ बार जपने से सन्तान. सम्पत्ति, सौभाग्य, बुद्धि और विनय की प्राप्ति होती है ॥२०॥ मर्थ हे सर्वज्ञ ! निज मौर पर का प्रकाशक तथा निर्मल जैसा मान पाप में सुशोभित होता है, सा जान ब्रह्मा, विष्णु, महेश प्रादि किसी अन्य वेव में नहीं होता। क्योंकि तेज को शोभा महामरिण में ही होतो है न कि काय के टुकड़े में ॥२॥ ॐ ह्रीं केवल जानप्रकाशितलोकालोकस्वरूपाप क्लींमहावीजाक्षरसहिताप हृदयस्थिताय श्रीवृषभदेवाय अध्यंम् ।।२०।। Knowledge abiding in the Lords like Hari and Hara does not shine so brilliantly as it does in You, Esulgence, in a piece of glass, though filled with rays, the rays never attains that glory, which it does in sparkling geins. 20. संबंसोल्य सौभाग्य साधक मन्ये वरं हरिहरादय एव दृष्टा, दुष्टषु येषु हृदय त्वयि तोषमेति । कि पीक्षितेन भवता भुवि येन नान्यः, कश्चिन्मनो हरति माय भवान्सरेऽपि ॥२१॥ तव शुभं वरदर्शनमजसा, हरति पापसमूहकमेव तत्। भवतु ते चरणाब्जयुगं प्रभो, स्थिरकरं मम चित्तशुःकरम् हरिहरादि देवों का ही मैं, मान उत्तम प्रवलोकन । क्योंकी उन्हें देखने भर से, तुझसे तोषित होता मन ।। है परन्तु क्या तुम्हें देखने, से हे स्वामिन ! मुझको लाभ । जन्म जन्म में भी न लुभा पाते कोई यह मम, अमिताभ ॥२१॥ Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भी भक्तापट महामाल (ऋद्धि) ॐ ह्रीं अहं रामो पणासमणारणं । (मंत्र) ॐ नमः श्री मरिणभद्रः, जम:. विजयः, अपराजितन, सदसौभाग्यं सर्वसौख्यं च कुरु २ स्वाहा । (विधि) श्रद्धासहित मंत्र को ४ दिन तक 2०८ बार जपने से मब अपने वशवी होते हैं और सुख सौभाग्य बढ़ता है ।।२१।। प्रर्य---हे लोकोत्तम ! दूसरे देवों के देखने से तो पाप में संतोष होता है यह लाभ है, परन्तु अापके देखने से अन्य किसी देव की भोर चित्त नहीं जाता यह हानि है। भषवा हरिहरादिक देवों को देखना अच्छा है, क्योंकि ये रागी देषी हैं; उन के दर्शन से चित्त सन्तुष्ट नहीं होता तब आपके वशंन को लालायित होता है, क्योंकि आप बीतराग हैं। प्रापफे दर्शन से चित्त इतना सन्तृष्ट होता है कि मृत्यु के बाद भी वह किसी दूसरे पेव का वर्शन नहीं करना चाहता । वहाँ व्यजोक्ति अलङ्कार है ॥२१॥ ॐ ह्रीं सर्वदोषहरशुभदर्शनाम कलीमहावीजाक्षरराहितात्र हुदस्थिताय श्रीवृषभदेवाय अयम् ।।२१।। Assuresily great I feel. is the sisht of Hari, Hara and other gods, but seeing them the heart finds satisfaction only in you. What happens on selg You on Earth. None else, cvep through all the future lives, shall be able to attract my mind. 21. भूत पिशाचावि बाधा निरोषक स्त्रीणां शतानि शतशो जनयन्ति पुत्रान्, नान्या सुतं त्वदुपमं जननी प्रसूता । सर्वा दिशो दधति भानि सहस्ररश्मि, प्राग्येव विग्जनयति स्फुरदंशुजालम् ॥२२॥ Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री भक्तामर महामण्डल पूजा ६१ सुवनिता जनयन्ति सुतान् बहून्, तब समो नहि नाथ! महीतले तनुवरं सुखदं सुरभासुरं मनसि तिष्ठतु मे स्मरणं तु ते ॥ सौ सौ नारी सौ सौ सुत को, जनती रहती सो सो ठौर । तुम से सुत को जनने वाली, जननी महती क्या है और ? तारागरण को सर्व दिशाएँ, घरें नहीं कोई खाली । पूर्व दिशा ही पूर्ण प्रतापी दिनपति की जनसेवा गमो श्रागासगामिरां (ऋद्धि) (मंत्र) ॐ नमो वीरेहि भय २ मोहय २ स्तम्भय २ पद धारणं कुरु २ स्वाहा । ( ! ) (विधि) श्रासहित हल्दी की गांठ को १०८ बार मंत्रित कर चबाने से डाकिनी शाकिनी भूत पिशाच चुड़ैल ग्रादि भाग जाते हैं ||२२|| अर्थ- हे महीतिलक ! जिस प्रकार सूर्य को पूर्व दिशा ही उत्पन्न करती है; अन्य दिशाएं नहीं, उसी प्रकार एक भ्रापको माता हो ऐसी हैं जो आप जैसे पुत्ररत्न को पैदा कर सकीं, भ्रम्य किसी माता को ऐसे पुत्ररत्न को पैदा करने का सौभाग्य उपलब्ध नहीं हुआ ॥ २२ ॥ ॐ ह्रीं मद्भूतगुणाय क्लीं महाबीजाक्षरसहिताय हृदयस्थिताय श्रीवृषभदेवाय श्रष्यंम् Though all the directions do possess stars, yet it is only the castern direction which gives birth to the thousandrayed (son), whose pencils of ra ys shine forth brilliantly. So do hundreds of mothers give birth to hundreds of sons, but there is no other mother who gave birth to a son like You 22 Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री भक्तामर महामण्डल पूजा प्रेतबाधा निवारक त्वामामनन्ति मुनयः परमं पुमांस मादित्यवर्णममलं तमसः पुरस्तात् । त्वामेव सम्यगुपलभ्य जयन्ति मृत्यु, नान्यः शिवः शिवपदस्य मुनीन्द्र! पन्थाः ।।२३।। पदयुगस्य सुसंस्मरणत्रारः, शिवपदं लभतेऽति-सुखप्रदं । परियजे वर-पादयुगं मुदा, जिन । ददातु सुवाञ्छितमत्र में । तुम को परम पुरुष मुनि माने, बिमल वर्ण रवि तमहारी । तुम्हें प्राप्त कर मृत्यु जय के, बन जाते जन अधिकारी ।। तुम्हें छोड़कर अन्य न कोई, शिवपुर-पा बतलाता है । किन्तु विपर्यय मार्ग बता कर, भव-भव में भटकाता है ।।२३।। (ऋद्धि) ॐ हीं अहं णमो प्रासौविसारणं । (मंत्र ) ॐ नमो भगवती जपावती मम समीहितार्थ मोशसौख्यं च कुरु २ स्वाहा । (विधि) श्रद्धासहित ऋद्धि-मंत्र को १०८ बार जपकर अपने पारीर की रक्षा करे । पश्चात् इसी मंत्र से झाड़ने पर. प्रेतबाधा दूर होती है। अर्थ-हे योगीन्द्र ! मुनिजन प्रापको परमपुरुष, कर्ममलरहित होने से निर्मल, मोहान्धकार का नाशक होने से सूर्य के समान तेजस्वी पापको प्राप्ति से मत्यु होने के कारण मृत्युञ्जय तपा मापडे Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री भक्तामर महामण्डल पूजा - - - - - --- ---. -.-.. . - - - अतिरिक्त कोई दूसरा निरूपद्रव मोक्ष का मार्ग नहीं होने से प्रापको हो मोक्ष का मार्ग मानते हैं ॥२३॥ ॐ ह्रीं सहस्रनामाधीश्वराय क्लीमहाबीजाक्षरसहिताय हृदयस्थिताय श्रोवृषभदेवाय अध्यंम् ।।२।। The great sarres consider You to be the Supreme Being. Who possesses the effulgence of the sun, is fres from blemishes, and is beyond darkness. Having perfectly realized You, meu even conquer death. O Sage of sages! there is no other a auspicious path (except You) leading to Supreme blessedacs. 23. शिरोरोग शामक त्वामव्ययं विभचिन्त्य - मसंख्यमाद्यं, ब्रह्माण - मोश्वर - मनन्त मनङ्गकेतुम् । योगीश्वरं विदित - योग - मनेक - मेकं, ज्ञानस्वरूपममलं प्रवदन्ति सन्तः ॥२४॥ त्वमिह देवहरि जिननायकः, प्रभुवरः यतिराज-मुनीश्वरः । त्वदभिधानमहो जगतां प्रभो । प्रतिक्षणं भवतु प्रतिमानसम् ।। तुम्हें प्राद्य अक्षय अनन्त प्रभु, एकानेक तथा योगीश । ब्रह्मा ईश्वर या जगदीश्वर, विदितयोग मुनिनाथ मुनीश ।। विमल ज्ञानमय या मकरध्वज, जगन्नाथ जगपति जगदीश । इत्यादिक नामों कर माने, सन्त निरन्तर विभो निधीश ॥२४॥ Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री भक्तामर महामण्डल पूजा ! (ऋद्धि) ॐ ह्रीं महं णमो दिद्विविसाए । { मंत्र ) स्थावरजंगमकायकृतं सकलविर्ष यद्भक्ते: ममतायते दृष्टिविपास्ते मुनयः बढमाणस्वामी व सर्वहितं कुरुतर स्वाहा । (विधि) राख मंत्रित कर शिर में लगाने से शिरपीड़ा दूर होती है ॥२४॥ प्रर्य हे गुणार्णव ! अापकी प्रात्मा का कभी नाश नहीं होने से पाप प्रध्यम (अविनाशी), ज्ञान के लोकत्रय व्यापी होने से अथवा कर्मनाश में समय होने से स्वरूप से प्राचन्त्य, संख्यातीत या प्रभुत गुणयुक्त होने से असंख्य, युगादिजन्मा या यतमान चौबीसी प्रथम होने से प्राध (प्रयम), कर्मरहित पा निवृत्तिरूप होने से ब्रह्मा, कृत्कृत्य होने से ईश्वर, अन्तरहित होने से धनन्त, कामनाश के लिए केतुग्रह के उदय समान होने से मनङ्गकेतु, मुनियों के स्वामी होने से योगोश्वर, एनत्रयरूप योग के नाता होने से विदितयोग, गुरणों और पर्यायों की अपेक्षा भनेक, तीर्घ शरीय भेद की अपेक्षा एक, केबलशानी होने से नामस्वरूप तथा कर्ममल रहित होने से प्रमत' कहे जाते हैं। अर्थात् ऋषिगण पृथक् पपक गुणों की अपेक्षा प्रापको प्रव्यय प्रादि कहकर स्तुति करते है ॥२४॥ ॐ ह्रीं मनोवांछित फलदायकाय क्लीमहावीजाक्षरसहिताय हृदयस्थिताय श्रीवृषभदेवाय अय॑म् ।।२४।। The righteous consider You to be immutable omdipotent, incomprehensible unumbered the the first, Brabme, the supreme Lord Siva, endless the enemy of Ananga (Cupid), lord of yogis, the knower of yoga, marny. one, of the nature of knowledge, and stainless. 24. Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ त्री भक्तामर महामण्डल पूजा हत्वा कर्मरिपून बहून् कटुतरान्, प्राप्तं परं केवलं । ज्ञानं येन जिनेन मोक्षफलदं, प्राप्तं द्रुतं धर्मजम् ।। अर्घेणात्र सपूजयामि जिनपं, श्री सोमसेनस्त्वहं । मुक्तिश्रीष्वभिलाषया जिन ! विभो! देहि प्रभो ! वांछित्तम् ।। ॐ ह्रीं हृदयस्थितषोडशदलकमलाधिपतये श्री वृषमदेवायाम् । अथ चतुर्विंशतिदलकमलपूजा पुष्टियोपनियोक बुद्धस्त्वमेव विबुधाचितबुद्धिबोधात् त्वं शङ्करोऽसि भुवनत्रय - शङ्करत्वात् । घालासि धीर ! शिवमार्गविषे विधानात् म्यक्तं त्वमेव भगवन् ! पुरुषोत्तमोऽसि ॥२॥ बुद्धः प्रबुदो वरबुद्धराजो मुक्ते विधानाद्भविनां विधाता। सौख्यप्रयोगात् जिन ! शङ्करोऽसि, सर्वेषु मत्येषु सदोत्तमस्त्वम् ।।२।। शान पूज्य है, अमर अापका, इसी लिए कहलाते बुद्ध । भुबनत्रय के सुख-सम्बर्द्धक, अतः तुम्हीं शङ्कर हो शुद्ध । मोक्ष-मार्ग के प्राद्य प्रवर्तक, अतः विधाता कहें गणेश । तुम सम भक्तीपर पुरुषोत्तम, और कौन होगा अखिलेश ॥२५॥ Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री भक्तामर महामण्डल पूजा -- - - --- -.. (ऋद्धि) ॐ ह्रीं प्रहं णमो उग्गतवाणं । ( मंत्र) ॐ ह्रां ह्रीं ह्रीं ह्रः प्रसि मा उ सा झा झौं स्वाहा । ॐ नमो भगवते जयविजयापराजिते सर्वसौभाग्यं, सर्वसौख्य घु कुरु २ स्वाहा । (विधि) श्रद्धासहित प्रतिदिन ऋद्धि-मंत्र के जपने से नजर उतरती है | और अग्नि का प्रसर आराधक पर नहीं होता ।।२।। प्रयं-हे पुरुषोत्तम ! विश्व को बराचर वस्तुओं को एक साथ एक समय में जान लेने वाला प्रापका बुधिरोष (केवलमान देवदेवेन्द्रों द्वारा पूजित होने से प्राप बुद्ध कहे जाते हैं। सब प्राणियों को बिना भेव-भाष सुख-शान्ति का पथ प्रदर्शन कर उन्हें प्रारम-कल्याण ही प्रोर अग्रसर करते हैं, अतः प्रापको शङ्कर कहते हैं। आपने कमबन्धन-पुक्त जीरों को संसार से छुटकारा पाने का रास्ता बता कर प्रतियोषित किया है, मतः मापको ब्रह्मा कहते हैं। प्रवनीतल पर प्रापके समान उपरोक्त गुरखों वाला कोई दूसरा पुरुष पैदा नहीं हुआ है। प्रसः पापको पुरुषोत्तम भी कहते हैं ॥२५॥ ॐ ह्रीं षड्दर्शनपारङ्गसाय कलीमहाव जाक्षरसहिताय ___ थीवृषभजिनेन्द्राय प्रय॑म् ।।२५।। As Thou.possessest that knowledge which is adored by gods, Thou indeed art Buddha, as Thou dost good to all the three worlds, Thou art Shankar; as Thou prescribest the process leading to the parth of Salvation, Thou. art Vidhata; and Thou, O Wise Lord, doubtless art Purushottama.25. Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री भक्तमाल ! - - -- -- -- अर्धशिर पीसा विनाशक तुभ्यं नमस्त्रिभुवनाति-हाय नाथ ! सुभ्यं नमः क्षितितलामलभूषणाय । तुभ्यं नमस्त्रिजगतः परमेश्वराय, तुभ्यं नमो जिन! भवोवधि-शोषणाय ॥२६॥ लोकातिनाशाय नमोऽस्तु तुभ्यं, नमोऽस्तु तुभ्यं जिनभूषणाय । त्रैलोक्यनाथाय नमोऽस्तु तुभ्यं, _ नमोऽस्तु तुभ्यं भवतारणाय ।। तीनलोक के दुःखहरण करने वाले हे तुम्हें नमन । भूमण्डल के निर्मल-भूषण, आदि जिनेश्वर तुम्हें नमन ।। हे त्रिभुवन के अखिलेशर हो, तुमको बारम्बार नमन ! भव-सागर के शोषक पोषक, भव्य जनों के तुम्हें नमन ।। (ऋदि) ॐ ह्रीं अहं णमो दित्ततवाणं । ( मंत्र ) ॐ नमो ह्रीं श्रीं क्लीं ह्रह, परजनशान्तिव्यवहारे अयं कुरु २ स्वाहा । (विधि) श्रद्धासहित ऋदि-मंत्र द्वारा तेल को मंत्रित कर सिर पर लगाने से पाधाशीशी (प्रर्दसिर की पीड़ा दूर होती है ॥२६॥ प्रर्य-हे नमस्करणीय देव ! हम प्रापकी भक्ति करते हैं, विनय करते हैं, स्तुति करते हैं, नमस्कार करते हैं, पयों ? इसलिए कि माप ही सब जीवों के समस्त दुःखों को दूर कर उन्हें राहत पहुंचाते हैं । पाप ही प्रवनीतल के सर्वोत्तम प्रसार हैं। भाप ही तीनों लोकों Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भी पर मामला -.. - .-...-.. ....-.- -. -..--.के एकमात्र उपास्य उत्कृष्ट ईश्वर हैं। आप ही संसार-समुद्र को सुखा कर मामयों को प्रजर-अमर पद देने वाले सत्यवेव हैं। प्रतः हम, बारबार प्ररामन करते हैं । पुनश्च पाप पूजक को जगत्पुल्य बना देते हैं, पतः पाप भति नमस्करणीय हैं ॥२६॥ ॐ ह्रौं नानादुःखविलीनाय क्लींमहादीजाक्षरसहिताम श्रीवृषभजिनेन्द्राय पर्यम् ॥२६॥ O God Jinendra ! O Lord ! you are the destroyer of the miseries of all the three worlds. therefore I bow down to you. I offer my salutes to you who is like a pure matchless ornament, you are the Lord of all the tcree worlds you can dry up the ocean of the world 26. __ शत्रून्मूलक को विस्मयोऽत्र वि नाम गुरगरशेष स्त्वं संश्रितो निरवकाशतया मुनीश ! दोष- रुपात्त - विविधाश्रय - जात - गईः, स्वप्नान्तरेऽपि न कदाचिवपीक्षितोऽसि ॥२७॥ कमद्धतं दोषसमुच्चयेन, कृत्वाऽत्र गर्व जिन! संश्रितोऽसि । स्वप्नेऽपि न त्वं गुणराशिधामा, दोषाश्रितो मर्त्यसमाश्रयेण ॥२७|| गुणसमूह एकत्रित होकर, तुझमें यदि पा चुके प्रवेश । क्या प्राश्चर्य न मिल पाये हो, अन्य प्राश्रय उन्हें जिनेश ।। देव कहे जाने वालों से, प्राश्रित होकर गर्वित दोष । तेरी मोर न झांक सके वे, स्वप्नमात्र में हे गुणकोष ॥२७॥ Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री भक्तामर महामण्डल पूजा । ऋद्धि) ॐ ह्रीं अर्ह णमा तितवाणं । ( मंत्र ) ॐ नमो चक्रेश्वरी देवी पत्रधारिणी चक्रेरणानुकूलं साधय साधय शत्रूनुन्मूलयोन्मूलय स्वाहा । (विधि) श्रद्धासहित ऋद्धि-मंत्र की उपासना से प्राराधक को शत्रु म हानि नहीं पा सकता ! प्रर्य-हे गुणनिधान ! संसार के समस्त गुणों ने प्राप में सहसा इस तरह निवास कर लिया है कि कुछ भी स्थान शेष नहीं रहा पौर शोषों ने यह सोधकर अभिमान से प्रापकी मोर देला भी नहीं; कि जब संसार के बहुत से देवों ने हमें अपना भाभय दे रहा है। सब हमें एक जिनमेव की क्या परवाह है, यदि उनमें झमें स्थान नहीं मिला तो न सहो । सारांश यह है कि माप में केवल गुणों का हो निशान है, रोबों का नामभिधान मौ नहीं। ॐ ह्रीं सफलदोषनिर्मुक्ताम क्लीमहावीजाक्षरसहिताय श्रीवृषभजिनेन्द्राय अय॑म् । No wonder that, after finding space nowbere, You have, O Great Sage !, been resorted to by all the excellenes; and in dreams cven Thou art never looked at by olemishes, which, having obtained many resorts, have become inflated with pride. 27. सर्व मनोरष प्रपूरक उच्चर - शोकतरु-संश्रित - मुन्मयूख माभाति रूपममलं भवतो नितान्तम् । स्पष्टोल्लसत्किरणमस्त - तमो - वितानं, बिम्ब रवेरिय पयोधरपार्वति ॥२८॥ Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री भक्तामर महामण्डल पूजा -. ...-..-- -- .- -. . अशोकवृक्षाः सुकृता विचित्राः, ___ छायाघना नाथ ! सुपुण्ययोगात् । तवोपरि प्रीतजनेषु नित्यं, सुखपदाः स्युः परमार्थना भाः। उन्नत तरु प्रशोक के आश्रित, निर्मल किरगोन्नत वाला । रूप आपका दिपता सुन्दर, तमहर मनहर छवि वाला ।। वितरण किरण निकर तमहारक,दिनकर घनके अधिक समीप। नीलाचल पर्वत पर होकर, नीराजन करता ले दीप ॥२८॥ (वि) ॐ ह्रीं अहं गमो महातबाणं । , [ मंत्र ) ॐ नमो भगवते जय-विजय जूभन्य जंभव मोहय मोहय सर्व सिद्धि सम्पत्ति. सौख्यं च कुरु ? स्वाहा । (विधि) प्रतिदिन श्रद्धासहित १०८ शर ऋद्धि-मंत्र जपने से सभी अच्छे कार्य सिद्ध होते हैं और व्यापार में भी लाभ होता है ।।२८॥ पर्ष-हे पतिशयरूप ! ऊँचे और हरे "अशोकवन" के नीचे प्रात्पका स्वर्णमय उम्पसप ऐसा मालूम होता है अंसा काले काले मेघ के मीचे पीसवर्ष सूर्य का मण्डल । यह प्रशोकल प्रातिहार्य का पर्णन है ॥२८॥ ॐ ह्रीं अशोकतरुविराजमानाय क्लीमहावोजाक्षरसहिताय श्रीवृषभजिनेन्द्राय मय॑म् । Thy shining forc, the rays of which go upwards, and which is really very much lustrous and dispels the expanse of darkness, looks excellently beutiful vader the Ashoka-tree the orb of the sun by the side of clouds. 28. Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री भक्तामर महामण्डल पूजा -- --.--- .. ---- नेत्रपौड़ा विनाशक सिंहासने मरिणमयूखशिखाविचित्रे, विभ्राजते तव वपुः कनकावदातम् । बिम्ब विदिल सदंशुलतावितानं, तुङ्गोदयाद्रिशिरसीव सहस्ररश्मः ॥२६॥ सिंहासनं प्राणिहितकर यत्, सुशोभते हेममयं विचित्र । सहस्रपत्रोपरिकणिकायाम, विराजते जैनतनुः सुशोभा ॥ मणि-मुक्ता किरणों से चित्रित, अद्भ त शोभित सिंहासन । कान्तिमान् कंचन-सा दिखता, जिसपर तब कमनीय वदन ।। उदयाचल के तुङ्ग शिखर से, मानो सहस्ररश्मि वाला । किरण-जाल फैलाकर निकला, हो करने की उजियाला ॥२९।। (ऋदि) ॐ ह्रीं अहं णमो घोरतवाणं । (मंत्र ) ॐ ह्रौं णमो गमिऊरण पासं विसहर फुलिंगमंतो विसहर नाम रकारमंतो सर्वसिद्धिमोहे इह समरंताणमपणे जागई कप्पदुम सर्वसिद्धि ॐ नमः स्वाहा । (!) (विधि) बवासहित प्रतिदिन १०८ बार ऋद्धि-मंत्र जपमै से हर प्रकार की नेत्रपीड़ा दूर होती है ॥२६॥ पर्थ हे रलजटित सिंहासनस्य र ! तपापे हए सोने की चमकती प्राभा के समान पापका कांतिमान् विष्य सुम्बर मनोहारी शरीर, झिलमिलाती रत्न-मणियों की किरण-पंक्ति से मुशोभित, मावचर्यजनक सिंहासन पर ऐसा ही शोभा देता है, जैसा कि उदयाचल पर्वत के उत शिवार पर, सहस्र-प्रार-किरणसमूह का बितान(मंजप) Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री भक्तामर महामण्डल पूजा सानता हमा सुन्दर सूर्यविम्म । अर्थात् जैसे उदयाचल पर्वत के शिखर पर पूर्व शोमा पाता है वैसे ही रत्नजटित सिंहासन पर पापका शरीर शोभायमान होता है.। (विसीय प्रातिहार्य वर्णन) ॐ ह्रीं महिलासचितसिंहासनप्रातिहार्ययुक्ताय क्लीमहावीनाक्षर ___सहिताय श्रीवृषभजिनेन्द्राय अयम् । Thy gold-lustred body shines verily on the throne in the 15 f:10:11: s itr'i which is varigated with the mass of rays of gems, of the high Rising mouptain, the rays of which (disc), spreading in the firmament like a creeper, look (excecdingly) graceful. 29. पात्र सम्भक कुन्दावदात - चलचामर - चार - शोभं, विभ्राजते तव वपुः कलधौतकान्तम् । उद्यच्छशाङ्क - शुचिनिर्भर • वारिधार मुच्चस्तदं सुरगिरेरिव शातकौम्भम् ।३०। गङ्गातरङ्गाभविराजमानं, विभ्राजते चामरचारुयुग्मं । सुदर्शनाद्रो गतनिर्भरं वा, तनोति देशेऽत्र-महाविकाश ।। ठुरते सुंदर चवर विमल अति, नवल कुन्द के पुष्प-समान । शोभा पाती देह प्रापकी, रौप्य धवल-सी प्राभावान ।। कनकाचल के तुङ्ग शृङ्ग से, झर झर झरता है निझर । चन्द्र-प्रभा सम उछल रही हो, मानो उसके ही तट पर ।। (ऋति) * ह्रीं पहं णमो घोरगुणागं । Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -..- -. .... श्रो भक्तामर महामण्डल पूजा ७३ . ( मंत्र) ॐ नमो अट्ठ मट्ठे क्षुद्रविघठे क्षदान् स्तम्भय २ रक्षा कुरु कुरु स्वाहा । (विधि) श्रद्धापूर्वक ऋद्धि-मंत्र को प्राराधना करने से शत्रु का गौर्य नष्ट होता है ॥३०॥ अर्थ-हे चामराधिपते ! जिस पर देवों द्वारा सफेव पर होरे जा रहे हैं ऐसा भापका सुवर्णमय शरीर ऐसा सुहावमा मासूम होता है, जैसा करने के सफेद जल से शोभित शुभेच पर्मत का तट । यह (बामर प्रातिहाथ) का वर्णन है ॥३०॥ ॐ ह्रीं चतुःषष्टिचामरप्रातिहायंयुक्ताय क्लींमहावीजाक्षर सहिताय श्रीवृषभजिनेन्द्राय प्रय॑म् । Thy gold-lustred body, to which grace has been imparted by the waving chawties which is as white as the Kunda-flower, shines like the high golden baow of Sumeru-mountain, on which do fall the streams of rivers which are bright with (like) the rising moon. 30. राज्य सम्मानरायक छनत्रयं तव विभाति शशाकान्त मुचः स्थितं स्थगितभानुकरप्रतापम् । मुक्ताफल - प्रकर - आल - विवद्ध - शोभ, प्रत्यापयत् त्रिजगतः परमेश्वरत्वम् ॥३१॥ त्रैलोक्यराज्यं कथितं प्रमाणं, क्षत्रत्रयं शऋसमानकान्ति। मुक्ताफलैः संयुतकं सुशोभ, विराजते नाथ! तवोपरिष्टात || Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री भक्तामर महामण्डल पूजा चन्द्र-प्रभा राम झरियों से, मरिण-मुक्तामय अति कमनीग । दीप्तिमान् शोभित होते हैं, सिर पर छत्रत्रय भवदीय ।। ऊपर रह कर सूर्य-रश्मि का, रोक रहे हैं प्रखर - प्रताप । मानों वे घोषित करते है, त्रिभुवन के परमेश्वर पाप ।।३।। (ऋद्धि) ॐ ह्रीं अहं नमो घोरगुणपरक्कमारणं । ( मंत्र ) ॐ अवसग्गहरे पासं वदामि कम्मघणमुक्कं बिसहर निमिणमिगलरलाही नम: स्याहा । (विधि) श्रद्धासहित ऋद्धि-मंत्र को जपने से राज्य-मान्यता होती है और हर जगह सम्मान प्राप्त होता है ॥३१॥ मपं . हे छत्रत्रयाषिपसे ! मापके शिर पर मुशोभित, बन के समान रमणीय, सूर्य की किरणों के सन्ताप का रोषक और रत्नों के जमाव से सुशोभित "छत्रप" प्रापके तीनों लोकों के स्वामीपन को प्रकट करता है । यह छत्रत्रय प्राप्तिहार्य है ॥३१॥ ॐ ह्रीं क्षत्रव्यप्रतिहार्ययुक्ताय कलीमहावीजाक्षरसहिताय श्रीवृषभजिनादाय प्रय॑म् । The three umbrellas charming like the moon, wluich are held high above Thee, and the beauty of wlich has been cnhanced by the net-work of pearls and which obstructs the heat of the sun's rays, looks very beautiful, proclainiing, as it were. Thy supreme lordship over all the three worldy. 31. संग्रहणी-संहारक गम्भीरतार • रयपूरित - दिग्विभाग-- स्त्रलोक्यलोक - शुभसङ्गम - भूतिदक्षः । Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ " श्री भक्तामर महामण्डल पूजा -- -. .-- सद्धर्मराजजय - घोषण • घोषक: सन्, खे दुन्दुभि लनति ते यशसः प्रवादी ।। ३२।। बादित्रनादो ध्वनतीह लोके, घनाधनध्वान । समप्रसिद्धः । प्राज्ञां त्रिलोके तत्र विस्तराप्तां, पूज्यां करोम्यत्र जिनेश्वरस्य ।। ऊँचे स्वर से करने वाली, सर्व दिशाओं में गुञ्जन । करने वाली तीन लोक के, जन-जन का शुभ-सम्मेलन ।। पीट रही है डंका-"हो सत् धर्म"-राज की ही जय-जय । इस प्रकार बज रही गगन में, भेरी तव यश की अक्षय ।।३२॥ र ऋद्धि ) ॐ ह्रीं अहं णमो धोरगुणान्नभचारिणं । ( मंत्र | ॐ नमो ह्रां ह्रीं है. ह्रः सर्वदोष निवारणं कुरु कुरु स्वाहा । (विधि) श्रद्धासहित ऋद्धि-मंत्र द्वारा कुमारी कम्पा के हाप से काते गये सूत को मंत्रित कर गले में सामने से संग्रहणी तपा उदर की भयानक पीड़ा दूर होती है ॥३२॥ अर्थ-हे दुम्बुभिपते ! अपने गम्भीर भोर उच्च शब्द से विशाओं का व्यापक, त्रैलोक्य के प्राणियों को शुभसमागम की विभूति प्राप्त कराने में वक्ष और जैनधर्म के समोचोन स्वामी जिनदेय का यशोगान करने वाला "सुन्दुभि" बामा पापका सुपश प्रगट कर रहा है। यह (दुन्दुभि प्रातिहार्य का वर्णन है ॥३२॥ *ह्रीं लोफ्याज्ञाविधायिने क्लींमहाबीजाक्षरसहिताप श्रीदृषभजिनेन्द्राय अय॑म् । Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ CE श्री भक्तामर महामण्डल पूजा There sounds in the sky the celectial daun, which fills the directions with its deep and loud note, and which is capable of bestowing glory and prosperity on all the beings of the three worlds, and which proclaims the victory-sound of the lord of supreme righteousness, proclaiming Thy famc. 32. सर्व श्वरसंहारक मन्दार • सुन्दर - नमरु • सुपारिजास सन्तानमाद - कुसुमोत्कर - वृष्टिरद्धा । गन्धोदबिन्दुशुभ - मन्दमरुत्प्रपाता, दिव्या दिवः पतति ते वचसां तति , ।।३३।। मन्दार-कल्पद्रुम-पारिजात-चम्पाब्ज-सन्तानक-पुष्पवृष्टिः । मरुत्प्रयाता जलबिन्दुयुक्ता, यस्य प्रभावाच्च तमर्चयामि ।। कल्पवृक्ष के कुसुम मनोहर, पारिजात एवं मंदार । गन्धोदक को मन्द वृष्टि कर - ते हैं प्रमुदित देव उदार ॥ तथा साथ ही नभ से बहती, धीमी धीमी मन्द पवन । पंक्ति बांध कर बिखर रहे हों, मानों तेरे दिव्य-वचन ॥३३।। (ऋद्धि) ॐ ह्रीं भर्ह णमो सयोसहिपत्ताग। ( मंत्र ) ॐ ह्रीं श्रीं क्लीं इस ध्यानसिखि-परमयोगीश्वराय नमो नमः स्वाहा । (विधि) थासहित ऋद्धि-मंत्र द्वारा कच्चे धागे को मंत्रित कर हाय में बांधने से कतरा, तिजारी, तापज्वर पादि सब रोग दूर होते है ॥३६॥ Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री भक्तामर महामण्डल पूजा ७७ अर्थ- -हे कुसुमवर्षाषिपते [ अाफाश से कल्पवृक्षों के फूलों की सुगन्धित जल और मन्द मन्द हवा के साथ जो कर्णमुखी और देवकृत वर्षा होती है वह भापकी मनोहर पदमावली के समान शोभायमान होती है। मा कुपति मारिहा गरे ।३३।। ॐ ह्रीं समस्तपुष्पजातिवृष्टिप्रातिहास पलीमहावीजाक्षरसहिताम श्रीवृषभजिनेन्द्राय अय॑म् ।।३३।। Like Thuy divine utteranccs falls from the sky the shower of celestial 1104 cts such as the Mandara, Nameru, Parijata and Santanaka accompanied by gentle breeze that is made charming with scented water drops, 33. गर्भ संरक्षक शुम्भप्रभा - वलय भूरि-विभा विभोस्ते, ___ लोकत्रये द्युतिमतां द्युतिमाक्षिपन्ती । प्रोचदिवाकरनिरन्तरभूरिसंख्या दीप्त्या जयत्यपि निशामपि सौमसौम्याम् ॥३४॥ भाममण्डलं सूर्यसहस्रतुल्यं, चक्षुर्मनोऽल्लादकरं नराणाम् । सम्बाधिताज्ञान-तमोवितानं, तत्संयुतं देव ! सुपूजयामि ॥ तीन लोक की सुन्दरता यदि, मूर्तिमान बनकर आवे । तन-भा-मंडल की छवि लखकर, तब सन्मुख शरमा जावे ।। कोटिसूर्य के ही प्रताप सम, किन्तु नहीं कुछ भी माताप । जिनके द्वारा चन्द्र सुशीतल, होता निष्प्रभ अपने आप ।।३४।। Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री भक्तामर महामण्डल पूजा दि । ॐ हीं अर्ह णमो खेल्लासहिपत्ताणं । । नत्र ! ॐ नमो ह्री श्री कली , त्यो पद्यावत्यै देव्यै नमो नमः, म्बाहा। (विधि) श्रद्धासहित ऋद्धि-मंत्र कच्चे धागे से मंत्रित कर कमर में बांधने से असमय में गर्भ का पतन नहीं होता ।।३४|| अर्थ-हे भामण्डलाधिपते ! प्रापके भामडल की प्रभा यद्यपि कोटिसूर्य के समान तेजोयुक्त है तथापि सन्ताप करने वाली नहीं है। चन्द्र के समान सुन्दर होने पर भी कान्ति से रात्रि को जीतती है-- अर्थात् रात्रि का प्रभाव करती है। यह "भामालमातिहार्य" का वर्णन है॥३४॥ ॐ ह्रीं कोटिभास्करप्रभामंडितभामण्ड सप्रातिहार्याय क्लींमहा वीजाक्षरसहिताय श्रीवृषभजिनेन्द्राय अयम् ॥३४॥ ___Effulgence. surpasses lustre or all the luminaries in the world and though it (Thinc halo) is made up of the radiance of many suns rising simultancously, yet it outshines the night dacorated with the gentle lustre of the moon. 34. ति-भीति-निवारक स्वर्गापवर्ग • गममार्ग - विमार्गणेष्टः.. सद्धर्म-तत्व - कथनक - पटुस्त्रिलोक्याः । दिव्यध्वनि भवति ते विशदार्थसर्व-- भाषास्वभाव - परिणाम-गुणः प्रयोज्य ॥३५॥ दिव्यध्वनि र्योजनमात्रशब्दः, गम्भीरमेघोद्भव-गर्जनाकः । सर्वप्रभाषात्मक-धीरनादः, यः संस्तुतः देव ! तवास्य भूतः ।। Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री भक्तामर महामण्डल पूजा ७६ मोक्ष-स्वर्ग के माम प्रदर्शक, प्रभवर नेरे दिव्य-वचन । फरा रहे हैं 'सत्य-धर्म' के, अमर-तत्त्व का दिग्दशन ।। मुनकर जग के जीव वस्तुतः, कर लेते अपना उद्धार । इस प्रकार परियतित होते, निज-निज भाषा के अनुसार ॥३५।। । ऋद्धि) ॐ ह्रीं अहं णमो जल्लोसहिगत्ताणं । ( मंत्र ) ॐ नभी जयविजयापराजितमहालक्ष्मी: अमृतवर्षिगी : अमृतवाविण अमृतं भव भव वषट सुधाय स्वाहा । (विधि) श्रद्धासहित ऋद्धिमंघ की अराधना से चोरी, मारी, मगो, दुभिक्ष, गजभय प्रादि नष्ट हो जाते हैं ॥३५॥ अर्ष-हे दिव्यध्वनिपते ! पापको विध्यध्वनि स्वर्ग और मोक्ष का मार्ग बतलाती है, सब जीवों को धर्मतस्थ (हित) का उपदेश देतो है । और समस्त श्रोताओं की भाषाओं में बदल जाती है। अर्गात जो प्रारणी जिस भाषा का जानकार होता है, अापकी विष्म ध्वनि उसके कान के राम पहुँचकर उसी भाषाम्प हो जाती है। (यह विध्यध्वनि प्रतिहार्य का वर्णन है) ॥३५॥ ॐ ह्रीं जलधरापटलगजितसर्वभाषात्मकयोजनप्रमाणदिव्यम्वनि प्रातितहार्याय क्लीमहावीजाक्षरसहिताम श्रीवृषभजिनेन्द्राय मध्य॑म् ।।३५|| Thy divine voice, which is sought by those who wish to tread the path of emancipation leading to Heaven and Salvation and wbich alone can expound the truth of the supreme celigion, is endowed with those natural qualities which transform it (Divya-dhwani) into all the languages capable of clear meaning. 35. Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री भक्तामर महामण्डल पजा लक्ष्मीबायक उन्निद्रहेमनवपङ्कज - पुञ्जकान्तो, पर्यल्लसन्नखमयुख-शिखाभिरामौ । पादौ पदानि तव पत्र जिनेन्द्र ! धत्तः, __ पानि तत्र विबुधाः परिकरूपयन्ति ॥३६॥ विहारकाले रचयन्ति देवाः, पानि पादं प्रति सप्त सप्त। सम्प्राप्य पुण्यं शिवशं व्रजन्ति, तव प्रभावेन करोमि पूजाम् ।। जगमगात नख जिसमें शोभे, जैसे नभमें चन्द्रकिरण । विकसित नूतन सरसीरुहसम, हेप्रभु तेरे विमल चरण ।। रखते जहां वहीं रचते हैं, स्वर्णकमल, सुरदिव्य ललाम । अभिनन्दन के योग्य चरण तव, भक्ति रहे उनमें अभिराम ॥३६॥ (ऋद्धि) ॐ ह्रीं अहं णमो विप्पोसहिपत्ताणं । {मन्त्र) ॐ ह्रीं श्रीं कलिकुण्डदण्डस्वामिन् आगच्छ प्रागच्छ पात्ममंत्रान् प्राकषय, भाकर्षय पात्ममंत्रान् रक्ष रक्ष, परमंत्रान् छिन्न छिन्द मम समोहितं च कुरु कुरु स्वाहा । (विधि) श्रद्धासहित १२०० ऋद्धिमन्त्र का जाप करने से सम्पत्ति का लाभ होता है ॥३६॥ मर्प-हे पूज्यपाद ! घोपवेश देने के लिये जब पाप प्रापंलग में बिहार करते है, तब देवगण पापके चरणों के नीचे कमलों की रचना करते हैं ।३६॥ ॐ ह्रीं पावन्मासे पद्मश्रीयुक्ताय क्लींमहावीजाक्षरसहिताय श्रीवृषभजिनेन्द्राय भयम् ॥१६॥ Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री भक्तामर महामण्डल पूजा मास्ति दुष्टता प्रतिरोधक इत्थं यथा तव विभूतिभूज्जिनेन्द्र !, धर्मोपदेशनविधौ न तथा परस्य । यादृक्प्रभा दिनकृत : प्रहतान्धकारा, तादृक्कुतो ग्रहगणस्य विकासनोऽपि ॥३७॥ लक्ष्मी विभो देव ! यथा तवास्ति, तथा न ादिषु नायकेषु । तेजो यथा सूर्यविमानकस्य, तारागणस्य प्रभवतोह नो वा।।३७।।। धर्म-देशना के विधान में, था जिनवर का जो ऐश्वर्य । वेरा क्या कुछ अन्य कुदेवों, में भी दिखता है सौन्दर्य ।। जो छधि घार-तिमिर के नाशक, रवि में है देखी जाती । वैसी ही क्या अतुल कान्ति, नक्षत्रों में लेखी जाती ।।३७।। (ऋद्धि) ॐ ह्रीं अहं गमो सन्योसहिपत्ताणं । (मंत्र) ॐ नमो भगवते अप्रतिषके ऐं क्लीं ब्लू * ह्रीं मनोवाछितसिद्धधै नमो नम: । अप्रतिनके ह्रीं ठः ठः स्याहा। (विधि) श्रद्धासहित ऋद्धि-मंत्र द्वारा घोड़ासा जल मंत्रित कर मुंह पर छींटा देने से दुर्जन पुरुष वश में हो जाया करते हैं और उनकी जबान बन्द हो जाती है ।।३७।। अर्थ-समवसरणाधिपते ! घमोपदेश के समय समवसरणादिक जसो विभूति पापको प्राप्त हुई, वैसी विभूति अन्य किसी वैव को प्राप्त नहीं हुई । ठीक ही है कि जैसी शान्ति सूर्य को होती है घसी कान्ति शुक्र मावि ग्रहों को प्राप्त हो सकती है क्या? अर्थात नहीं॥३७॥ --- -- - -- 'r Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री भक्तामर महामण्डल पूजा *डौं धर्मोपदेशसारे सममामिलामीवितिनिगजमानाय क्लींमहावीजाक्षरसहिताय श्रीवृषभजिनेन्द्राय प्रय॑म् ।। ३७।। The glory, which Thou attained at the time or giving instruction in religious matters, is attained, Jinendra! by nobody else. How can the lustre of the shininig planets and stars be so (bright) as the darkness-destroying cffulgence of the sup? 37. हस्तिमवर्भयक तथा वैभषक श्च्योतन्मदाविल • विलोल - कपोलमूल मसभ्रमभ्रमर - नाब - विबुद्ध - कोपम् । ऐरावतामिभमुद्धत - मापतन्तं दृष्ट्वा भयं भवति नोभवदाश्रितानाम् ।३। मत्तोऽपि हस्ती मदलीलया च, नायाति नाम्ना निवसन्मुखे हि संसारपाथोनिधितारकस्य, देवाधिदेवस्य जिनस्य कर्तुः ॥३८॥ लोल कपोलों से झरती है, जहाँ निरन्तर मद की धार । होकर अति मदमत्त कि जिस पर, करते हैं भौंरे गुंजार ॥ क्रोधासक्त हुआ यों हाथी, उद्धत ऐरावत सा काल । देख भक्त छुटकारा पाते, पाकर तब प्राश्रय तत्काल ।।३।। (ऋसि) ॐ ह्रीं मई णमो मणवलीणं । ( मंत्र ) ॐ नमो भगवते महानागकुलोच्चाटिनी कालदष्टमृतकोपस्थापिनी परमंत्रप्रणाशिनो देवि-शासन ही नमो नमः स्वाहा । Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ थी भक्तामर महामण्डल पूजा (विधि) श्रद्धासहित ऋद्धि-मंत्र का प्राराधन करने से हस्ति का मद नष्ट होता है और मर्यप्राप्ति होती है ।।३८॥ मर्ष-हे अभयप्रद ! जो प्राणी प्रापकी शरण लेते हैं। वे मरोन्मत्त, उच्छल, प्राक्रमणकारी और प्रवश हापी को बेल कर भी भयभीत नहीं होते ॥३८॥ ॐ ह्रीं हस्त्यादिगदुद्धरभयनिवारणाय क्लींमहावीजाक्षर सहिताय श्रीवृषभजिनेन्द्राय अयम् ||३८|| Those, who have resorted to You are not afraid even at the sight of the Airavata-like infuriated elephant, whose anger has been incr-ased by the buzzing sound of the intoxicated bees hovering about its checks soiled with the flowing rut, and which rushes forward. 38. सिंहशक्ति-संहारक भिनेभकुम्भ - गलदुज्ज्वल -शोरिंगतात मुक्ताफल - प्रकर - भूषित - भूमिभागः । बद्धक्रमः क्रमगतं हरिणाधिपोऽपि, नाकामति क्रमयुगाचलसंश्रितं ते ॥३६॥ उत्तुङ्ग-पुच्छेन विराजमानः, आरक्तनेत्रैः रदनै विशिष्टः। को केशरी देव ! सुनाममात्रात्, ___करोति क्रीडां तु विडालवत्सः ||३६॥ क्षत-विक्षत कर दिये गजों के, जिसने उन्नत गण्डस्थल । कांतिमान् गज-मुक्ताओं से, पाट दिया हो अवनी-तल ।। Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८४ श्री भक्तामर महामण्डल पूजा - -- - -- ..- .-. - जिन भक्तों को तेरे चरणों, के गिरि की हो उन्नत प्रोट । ऐसा सिंह छलांगें भरकर, क्या उसपर कर सकता गोट?॥३९॥ (ऋद्धि) ॐ ह्रीं णमो वचनबलीरणं । (मंत्र) ॐ नमो एषु दत्तेषु वर्द्धमान तब भयहरं वृत्ति वर्णा यै मंत्राः पुनः स्मर्तव्या अतोना परमं शनिवेदनाय नमः स्वाहा । (!) (विधि) श्रद्धासहित ऋद्धि-मंत्र का पाराघन करने से बङ्गल का मा सिंह भी रस हो जाता है । और सर्प का भम भी नहीं रहता। अर्थ-हे परमश तिवायक देव ! जिसने मदोन्मत्त हस्तियों के उन्नस गण्डस्थलों को अपने नुकीले नाखूनों से क्षत-विक्षत करके उनसे निकलने वाले दधिर से सने गज-मुक्तामों को बिखर कर प्रवनीतल को मलंकृत कर दिया और अपने शिकार पर छलांग गरकर माफमरण करने के लिये उचत ऐसे वहाड़ते हुए सूखार सिंह के पंजों के बीच पड़े हुए मापके परम भक्तों पर वह बार नहीं कर सकता प्रर्थात् हिंसक सिंह मापके भक्त के समक्ष अपनी स्वाभाविक करता को भी छोड़ देता है । १९ ॐ ह्रीं युगादिदेवनामप्रसादात् केशरिभयविनाशकाय क्लीं महावीजाक्षरसहिताय श्रीवजिनेन्द्राम अय॑म् ॥३६।। Even the lion, which las decorated part of the earth with the collection of ricarls bcsineered with bright blood flowing from the pierced licuds of the elephants though ready to pounce, docs not attack the traveller who has resorted to the mountain of Thy feet, 39. सर्वाग्नि शामक कल्पान्तकाल - पवनोद्धतबह्निकल्पं, दावानलं ज्वलितमुज्ज्वलमुत्स्फुलिङ्गम् । विश्वं जिघत्सुमिव सम्मुखमापतन्तं, स्वनामकीर्तनजलं शमयत्यशेषम् ।।४।। Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री भक्तामर महामण्डल पूजा त्वन्नामतोयेन कृता सुधारा, बलिप्रतापं हरति क्षणात्सा | भवाग्नितापप्रलयङ्करस्त्वं, अतस्तवेष्टिं विदधे वरार्थः ॥ ४० ॥ प्रलय काल की पवन उठाकर, जिसे बढ़ा देती सब ओर । फिकें फुलिंगे ऊपर तिरछे, प्रजारों का भी होवे जोर ।। भुवनत्रय को निगला चाहे प्राती हुई अग्नि भभकार प्रभु के नाम - मन्त्र जल से वह, बुझ जाती है उसही बार ||४०|| (ऋद्धि) ह्रीं पहं सुमो कायवलीणं । (मंत्र) ह्री श्री क्लो ह्रां ह्रीं अग्नेः उपशमं कुरु स्वाहा । (विधि) श्रद्धा सहित ऋद्धि-मंत्र का श्राराधन करने से अग्नि का भय मिट जाता है |४०|| वर्ष - हे लोकपालक ! प्रापके गुरंगगान से भयङ्कर तथा बेग से बढ़ता हुआ दावानल भी भक्तजनों का कुछ भी बिगाड़ नहीं कर संता ॥४०॥ ॐ ह्रीं संसाराग्नितापनिवारणाय क्लींमहाबीजाक्षरसहिताय श्रीवृषभ जिनेन्द्राय मध्यंम् ॥१४०॥ The conflagration of the forest, which is equal to the fire fanned by the winds of the doomsday and which emits bright burning sparks and which advances forward as if to devour the world, is totally extinguished by the recitation of Thy neme. 40. Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - - ----- -- - -- - -.- - -. श्री भक्तामर महामण्डल पूजा - - - - . .. - भुजंग (सर्प) भय भंजक कोण समद-कोकिल-कण्ठ-नीलं, क्रोधोद्धतं फरिगनमुत्फरएमापतन्तम् । प्राकामति क्रमयुगेन निरस्तशङ्क स्त्वन्नाम-नागदभनी हृदि यस्य पुंसः ॥४१।। क्रोधेन युक्तः फणिराजसर्पः, क्रोधं परित्यज्य प्रलापवान्सः । करोति दूरं वरदेवनाम्ना, नानाविधप्राणनिधानदानात् ॥४१॥ कंठ कोकिला सा अति काला,क्रोधित हो फरण किया विशाल । लाल-लाल लोचन करके यदि, झपटै नाग महा विकराल !! नाम-रूप तव अहि-दमनी का, लिया जिन्होंने हो अाश्रय । पग रख कर निशक नाग पर, गमन करें वे नर निर्भय ॥४१॥ (ऋद्धि) ॐ ह्रीं महँ णमो नीरसवीणं । । मंत्र ॐ नमो श्रां श्री श्रृं श्रओं अ: जलदेवि कमले कमले पद्महनिवासिनि पद्मोपरिमंस्थिते सिद्धि देहि मनोवांछितं कुरु कुरु स्वाहा । (विधि ) श्रद्धासहित ऋद्धि मंत्र जपने और झाड़ने से सर्ष का विष उतर जाता है । ॥४१॥ पर्य--हे सातिश्य नाम वाले देव ! भापके पापविमोचक, पुण्यगर्दक शुभनामरूपी नागदमनी (जड़ी बूटी) को भक्तिसहित गारपदापूर्वक प्रन्तःकरण में धारण करने वाले मानव उस भयंकर उस फुकार करते हुए जहरीले नाग को भी निर्भग होकर रोंपते हुए चले पाते हैं। कि जिसके नेत्र पषकते हुए गारे जो सरह मारपत वर्ण हो Page #82 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री भक्तामर महामण्डल पूजा -. ..--- --- रहे हों और जो काली कोएल के कंठ समान काला हो तया जो कोषो. न्मत्त होकर विशाल फरण फलाये उसन के लिए प्रतिशोत्रता से पवनवेग सा झपटता चला पाता हो ॥४॥ ॐ ह्रीं त्वन्नामनागदमनीशक्तिसम्पन्नाच क्लीमहावीजाक्षर महिताय श्रीवषमजिनेन्द्राय प्रय॑म् । ४१ __The man, in whos: heart abides the Mantra that Subdues serpents, viz, Your nunc, can interpidly go near the skat, wliich has its food expanded, cyes blood-shot, und which is baughty with anger and black like the throan of the passionate cuckoo. 41. पुरभय विम्वंसक बल्गत्तुरंग-गजर्गाजत-भीमनाद माजौ बलं बलवतामपि भूपतीनाम् । उद्यद्दिवाकरमयूख-शिखापविद्धं, त्वत्कीर्तनातम इवाशुभिवामुपैति ॥४२॥ संड ग्रामभूमो मृतभूरिजीवे, मातङ्ग--चक्राश्वपदातिमध्ये । सुखेन चायान्ति विजित्य शत्रून्, सदा मनोऽब्जे मुदितो यजे तम् ॥४२॥ जहाँ अश्व की और गजों की, चीत्कार सुन पड़ती घोर । शूरवीर नृप की सेनाएँ, रब करती हों चारों ओर । वहाँ अकेला शक्तिहीन नर, जप कर सुन्दर तेरा नाम । सूर्य-तिमिर सम शूर-सैन्य का, कर देता है काम तमाम॥४२।। Page #83 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मी भक्तामर महामण्डम पूजा -- - - -- - --- - - - -- -- द्धि ) ॐ ही अहं जामा सप्पिसवाणं ।। । मंत्र }ो नमो गपिऊणावधविषप्रणा रानगेगशोकदोयग्रहकप्पदुमजाई महागाप- गगसकलयहरे ॐ नमः म्वाहा । {!) (विधि ) श्रद्धासहित ऋद्धि-की साधना से भयङ्कर युद्ध का भय मिट जाता है ।। ४२ ॥ अर्थ है वृषभेश्वर ! इस प्रकार जो विवेकशील बुद्धिमान् पुरुष प्रापके इस पवित्र स्तोत्र का रात-दिन श्रद्धासहित चिन्तयन, अध्ययन, माराधन और मनन करते हैं, उनके मदोन्मत्त हाथी, विकराल सिंह, भमकता दावानल, भयंकर सर्प, बीभत्स संग्राम, विशुम्प समुद्र, शस्त्रप्रहार और बन्धनजनित भय भी भयाकुल होफर अतिशीन नष्ट हो जाते है । और फिर प्रापके भक्तमनों की मोर लौटकर वार नहीं करते ॥४२॥ ॐ ह्रीं संग्राममध्ये क्षेमङ्कराय क्लीमहावीजाक्षरसहिताय धीवृषभजिनेन्द्राय अध्यम् ।।४२॥ Like the Darkness dispelled by tlie luster of the rays of the rising sun, the army. accompanid by the loud roar of the prancing horses and elephants, cren of powerful kings, is dispersed in the battle-field with the mere recitaion of Tlay na me, 42. सर्व शान्तिवायक कुन्तानभिन्न-गजशोणित - वारिवाह, वेगावतार - तरणातुर - योष-भीमे । यद्धे जयं विजितदुर्जयजेयपक्षाः, त्वत्पादपङ्कजवनयिणो लभन्ते ॥४३॥ Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ --- - श्री भक्तामर महामण्डल पूजा - .-. -. ...---. -- दन्ताग्रभिन्नेषु सुमस्तकेषु, परस्परं पत्र गजाश्वयुद्ध मनुष्य प्रायाति सुकौशलेन, त्वान्नाममन्त्रस्मरणाजिनेश ११४३।। रण में भालों से वेधित गज, तन मे बहता रक्त अपार । वीर लड़ाकू जहं आतुर हैं, रुधिर-नदी करने को पार ।। भक्त तुम्हारा हो निराश तह, लल भरिसेना दुर्जयरूप । तब पादारविन्द पा आश्रय, जय पाता उपहार-स्वरूप ।।४३।। ऋद्धि | ॐ ही अहँ पमी पहरमबागं ! : मंत्र । ॐ मी चक्रेलरी देवा चक्रधरणी जिनशाशनसेवा कारिणी भद्रा द्रनिनाशनी धर्मशान्तिकारिणा नमः शांतिं कुरु कुरु इसिद्धि कुरु कुरु स्वाहा । (विधि) श्रद्धासहित ऋद्धि-मंत्र जपने से भय मिटता है और सब प्रकार की शान्ति प्राप्त होती है || ३|| प्रयं-है दुयशत्रमानभनक देव ! जिस महासमर में बरछों की मुफोलो नोंकों से वेषे गये हाथियों के विशालकाय बारीर से निःसृत, रक्त रुपी अमर्यादित अल-प्रवाह के बहाव में बहते हुये, उसे तैर कर प्रविलम्ब विजय प्राप्त करने के लिये अपीर बीर योद्धानों से जो प्रचण्ड युद्ध हो रहा है। एसे महायुद्ध में प्रापके पुनीत पावपनों को पूजा करने वाले भक्तजन अमेव शत्रु का अभिमान चूर २ कर बड़ी शान के साप विजयपताका फहराते हुए प्रानंद विभोर हो जाते हैं ॥४३॥ ॐ ह्रीं वनगजादिभयनिवारणाय क्लीमहावीजाक्षरसहिताय श्रीवृषभजिनाथ अयम् ||४३।।। Those, who resort to Thy louts-fect, get victory hy descating the jovincibly victorious side (of the enemy) in Page #85 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री भक्तामर महामण्डल पूजा - - - - - - - - - . . .. . - --. . the battle-ficld trade terrible with warriors, engaged in crossing speedily the flowing currents of the river of the blood-water of the clephants picrced with the pointed spears, 43, सर्वापत्तिविनाशाक अम्भोनिधौ क्षुभितभीषण - नऋचक्र-- पाठीनपीठ - भयदोल्वरण - वाडवाग्नौ । रङ्गत्तरङ्ग शिखरस्थित - यानपात्रा स्त्रासं विहाय भवतःस्मरणाद् ब्रजन्ति ।।४४।। कल्पान्तवातेन गतं विकारं, सचक्रमकादिकजीवपूर्ण । अब्धि समुत्तीर्य नरो भुजाभ्यां प्रयाति शीघ्रं तव पादचित्तः ।।४४।। वह समुद्र कि जिसमें होव, मच्छ मगर एवं घडियाल । तुफां लेकर उठती होवें, भयकारी लहरें उत्ताल । भ्रमर-चक्र में फंसी हुई हो, बीचों बीच अगर जल-यान । छुटकारा पा जाते दुख से, करने वाले तेरा ध्यान ।।४४।। (ऋद्धि) ॐ ह्रीं अर्ह पमो प्रमयसवीणं । (मंत्र) ॐ नमो रावणाय विभीषणाय कुम्भकरणाय लङ्काधिपतये महाबलपराक्रमाय मनश्चिन्तितं कुरु २ स्वाहा (!)। (विधि) श्रद्धासहित ऋद्धि-मंत्र की प्राराधना से सब प्रकार की मापत्तियाँ हट जाती हैं ॥४४॥ Page #86 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री भक्तामर-महामण्डल पूजा अर्थ-हे भक्सवरसल ! अापके निष्कलङ्क प्रनन्त गुणों का बारम्बार चितवन करने वाले शरणागत मानवों के विकराल मुंह फैलाये हए इधर-उधर लहराते विशालकाय मच्छ मगर आदि अल जन्तुओं से प्रोत-प्रोत और भयावनी बडवाग्नि से विक्षम्य हो रहे समुद्र को तूफानी लहरों में जगमगाते जल-पोत बिना विपत्ति के निर्भयतापूर्वक प्रपारपारावार से पार हो जाते हैं । अर्थात् मापके स्मरण से भक्तों पर पाई हुई प्राकस्मिक आपत्तियां प्रविलम्ब विलीन हो जाती हैं ॥४४॥ ॐ ह्रीं संसाराधितारणाय क्लीमहावीजाक्षरसहिताय श्रीवृषभजिनेन्दाय अर्यम् ।४४१ Ben on liiki (2011, which was e dreadful submarine fire, the agitated and therefore, terrific alligators and fishes fearlessly move those, though tlicir ships are placed on high dashing waves, who but remember Thee,44. जलोदरादिरोग एवं सपित्तिहारक उद्भूतभीषण - जलोदर - भारभुग्नाः, शोच्यां दशामुपगताश्च्युतजीविताशा: । त्वत्पादपङ्कजरजोमतदिग्धदेहा:, मा भवन्ति मकच्चजतुल्यरूपाः ॥४५॥ जलोदरः कुष्टकुशुलरोगैः, शिरोव्यथा - व्याधिबहुप्रकारः । सुपीडितानां भवतिक्षणे हि, विरोगिता स्वस्मरणात्प्रभोऽत्र ॥४५॥ Page #87 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री भक्तामर महामण्डल पूजा असहनीय उत्पन्न हुप्रा हो, विकट जलोदर पीड़ा भार । जीने की प्राशा छोड़ी हो, देख दशा दयनीय अपार ॥ ऐसे व्याकुल मानव पाकर, तेरी पद - रज संजीवन । स्वास्थ्य-लाभकर बनता उसका, कामदेव सा सुन्दर तन ।।४५।। (ऋद्धि) * मह णमो अक्खीणमहारगसाणं । मंत्र । ॐ नमो भगानी क्षुद्रोपद्रवशान्तिकारिणी रांग ज्वरोपशम । शान्ति ! कुरु कुरु स्वाहा : (विधि) श्रदासहित ऋद्धि-मंत्र को माराधना से समस्त रोग भाट हो जाते हैं तथा उपसर्ग प्रादि का भय नहीं रहता ।।४।। प्रयं-हे पूज्यपाद ! जैसे अमृत के लेप से मनुष्य निरोग और मुन्धर हो जाता है, उसी प्रकार प्रापके चरणकमल के रजरूपी अमृत के लेप से (चरणों को सेवा) से भीषरण जलोदर प्रावि रोगों से पीड़ित मनुष्य भी कामदेव के समान सुन्दर हो जाते हैं ॥४५।। ॐ ह्री दाहतापजलोदराष्टदशकुष्ट सन्निपातादिरानहाय क्लीं महावीजाक्षरसहिताय श्रीवृषभजिनेन्द्राय अयम् ॥४५॥ Even those, who are drooping with the weight of 1errible dropsy and have given up the hope of life and have reached a deplorable conditon, become as beautiful as Cupid hy besincuring their bodies with the nectarlike pollen dust of Thy lotus-fcet. 45. रन्धन विमोक्षक प्रापादकण्ठ – मुरुश्रङ्खलवेष्टितानाः, गाढं बह निगडकोटिनिवृष्टजङघाः । त्वन्नाममन्त्रमनिशं मनुजाः स्मरन्तः, सद्यः स्वयं विगतबन्धभया भवन्ति ।।४६॥ Page #88 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री भक्तामर महामण्डल पूजा - --- -- -- केनापि दुष्टेन नृपेण धर्मी, सम्बन्धितः श्रङ्खलया नरश्न । स त्वां जवं मुञ्चति बन्धतोऽद्य, संसारपाशप्रलयं नमामि ॥४६॥ लोह-गृङ्खला से जकड़ी है, नख से शिख तक देह समस्त । घुटने-जंघे छिले बेड़ियों, से अधीर जो हैं अतिग्रस्त ।। भगवन ऐसे बन्दीजन भी, तेरे नाम-मन्त्र की जाप । जप कर गत-बन्धन हो जाते, क्षणभर में अपने ही पाप ।।४६।। । द्धि ) ॐ ह्रीं अर्ह पाम सिद्धोदयाणं । ( मंत्र ) ॐ नमा ह्रां ह्री श्री हूँ ह्रीं ह्र: ठः ठः जः जः क्षा भी शं क्षः शायः स्वाहा । विधि । श्रद्धाम्महित प्रतिदिन ऋद्धिमंत्र को १०८ बार जपने से शत्रु वश में हात' है. विजयलक्ष्मी प्राप्त होता है और शस्त्रादि के घाव शरीर में नह हो पाते ।।४।। पर्थ-हे महामहिम ! लोहे की बड़ी २ वमनदार सांकलों से जिनके शरीर के समस्त अवयव शिर से लेकर पांव सक बहुत ही मजबूती से जकड़े हुये हैं और हाथों पैरों में कड़ी पो लोहशलाकों की बेड़ियों के पड़े रहने से निरन्तर उसको बार बार रगड़ से घुटने और जंघायें छिल गई हैं, ऐसे लोह लावद्ध मानव भी मापके शुभ नामरूपी परप-विनाशक पवित्र मंत्र का सत्य हृदय से स्मरण कर भराभर में अपने प्रापही बंधन को कठोर यासमा से छुटकारा पाकर निईन्द और निर्भय हो जाते हैं ॥४६॥ ॐ ह्रीं नानाविधकठिनबन्धनदूरकरणाय क्लींमहादीजाक्षरसहिताय श्रीवृषभजिनेन्द्रीय अध्यम् ।।४६॥६ Page #89 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री भक्तामर महामण्डल पूजा ---- - - - - ----- By niuttering day-and-night the sacred syllables of Thy nanc, even those, whose bodies are fettered from head to fiet by heavy chains and whose shanks are lacerated by the night gyves, instantaneously get rid of the fear of their bondage 46. अस्त्रशस्त्राविशक्ति निरोधक मसहिपेन्द्र - मृगराज - देवानलाहि, संग्रामवारिधिमहोदर बन्धनोत्थम् । तस्याशु नाशमुपयाति भयं भियेब, यस्तावकं स्तवमिमं मतिमानधीते ॥४७॥ रोगज्वराः कुष्टभगन्दराद्याः, जलाग्निघोरा विविधाश्च विघ्नाः । शीघ्र क्षय यान्ति जिनेशनाम, सञ्जप्यमानस्य नरस्य पुण्यात् ॥४७|| वृषमेश्वर के गुण स्तवन का, करते निशिदिन जो चितन । भय भी भयाकुलित हो उनसे, भग जाता है हे स्वामिज ॥ कुंजर-समर-सिह-शोक-रुज, अहि दावानल कारागार । इनके अतिभीषण दुःखों का, हो जाता क्षण में संहार |४|| ( ऋद्धि । ॐ हीं अहे णमो बनुमाणाण । ( मंत्र ) ॐ नमो ह्रां ही हूं ह्रौं ह्र: यक्ष श्रीं ह्रीं फट् स्वाहा । ठः ठः ज: ज. क्षां क्षी झू क्षों क्ष: य: स्वाहा ।।४।। Page #90 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री भक्तामर महामण्डल पूजा (विधि) श्रद्धासहित प्रतिदिन ऋद्धि-मन्त्र को १०८ बार जपने से शत्रु वश में होता है और शस्त्रादि के धाव शरीर में नहीं हो पाते ।।४।। अर्थ-हे वृषभेश्वर ! इस प्रकार जो विवेकशील बुद्धिमान पुरुष मापके इस परम पवित्र स्तोत्र का रात दिन अवासहित चिन्तवन, अध्ययन, भाराषन और मनन करते हैं, उनके मोमत्त हाथी, विकराल सिंह, भभकता दावानल, भयंकर सर्प, बीभत्स संग्राम, विष समुद्र, शस्त्रमहार और बन्धनजनित भय भी भयाकुल होकर अतिशीर नष्ट हो जाते हैं। और फिर मापके भक्तजनों को मोर लौटकर पार नहीं करते ॥४७॥ ॐ ह्रीं बहुविधविघ्नविनाशाय क्लींमहावीजाक्षरसहिताम श्रीवृषभजिनेन्द्राम प्रय॑म् ।।४७|| The intelligent man, who chants this prayer offered to Thee is in no time liberated from the fear born of wild elephants, lion, forest-conflagration, snakes, battles oces - ns, dropsy and shaekles. 47. ___ सर्व सिद्धि वामक स्तोत्रस्त्रजं तव जिनेन्द्र ! गुण - निबद्धां, भक्त्या मया रुचिरवर्णविचित्र-पुष्पाम् । धत्ते जनो य इह कण्ठगतामजस्रं, तंम. मवशा समुपैति लक्ष्मीः ॥४॥ भक्तामराख्यं स्तवनं यजामि, श्रीमानतुङ्गेन कृतं विचित्रं । Page #91 -------------------------------------------------------------------------- ________________ थौ मत्तामर महामण्डल पूजा कवित्वहीनो मतिशास्त्रहीनो, भक्त्यैकया प्रेरितसोमसेनः ॥४८॥ है प्रभु तेरे गुणोद्यान की, क्यारी से चुन दिव्य-ललाम । गूंथी विविध वर्ण सुमनों की, गुण-माला सुन्दर अभिराम ।। घद्धासहित भविकजन जो भी, कण्ठाभरण बनाते हैं। मानतुन-सम निश्चित सुन्दर, मोक्ष-लक्ष्मी पाते हैं ।।४८।। (अद्धि ) ॐ हीं अहं णमो मनसाहू । । मंत्र ) ॐ ह्री अर्ह नमो भगवते महर्तिमहावीरवद्रमाणबद्धिरिसीणं। ॐ ह्रां ही ह नौ हहः अ मि आ 3 सा झी झों स्वाहा । (विधि) श्रद्धासहित ४६ दिन तक १०८ बार ऋद्धि-मंत्र अपने मनोवांछित समस्त कामों को सिद्धि होती है ।।४६|| अर्थ-जैसे पुष्पमाला पारण करने से मनुष्य को शोभा ( लक्ष्मी) प्राप्त होती है उसी प्रकार इस स्तोत्ररूपी माला के पहिनने । सदा पाठ करने से मनुष्य को परम्परा से भोभ-लक्ष्मी प्राप्त होती है ॥४॥ ॐ ह्रीं सकलकायंसाधनसामर्थाय क्लींमहाबीजाक्षरसहिताय श्रीवृषभजिनेन्द्राय अध्यम् ।।४८|| ___The Goddess of wealth of her own accord resorts to that man of high self-respect in this world, who alwe Place round his neck, o Jinendra. this garland of orisons, weich has been stumg by me with 111c strings of The excellences out of devotion, and which looks charming on account of the multi-coloured flowers in the shape of beautiful words. 48. Page #92 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री भक्तामर महामण्डल पूजा । । नानाविघ्नहरं प्रतापजनकं, संसारपारप्रदं । संस्तुत्यं श्रीदं करोमि सततं, श्रीसोमसेनोऽप्यहम् ॥ पूर्णायेग मुदा सुभव्यसुखदं, प्रादीश्वराच्यापरं । हीरापण्डितसपरोधवशतः स्तोत्रस्य पूजाविधिम् ॥४६॥ ॐ ह्रीं हृदयस्थिताय चतुर्विशति-दलकमलाधिपतये क्लीं महावीजाक्षरसहिताय श्री वृषभजिनेन्द्राय पूसाधम् ।।४।। थरसुगन्ध-सुतन्दुलपुष्पकः, प्रवरमोदक-दीपक-धूपकः । फलभरः परमात्म-प्रदत्तक,प्रवियजेजयदंधनदं जिनम्॥५०॥ ॐ ह्रीं हृदयस्थिताय पष्टचत्वारिंशद्दलकमलाधिपतये कसीमहाबीजाक्षर सहिताय श्री वृषजिनेन्द्राय महापूर्णाध्यम् ।।५० ।। जलपन्धाष्टभि व्य-युगाविपुरुषं यजे । सोमसेनेन संसेव्यं, तीर्थ-सागर धितम् ॥ ॐ ह्रीं अहं णमो जिरगाणं अध्य॑म् । ॐ ह्रीं महं णमो ओहिजिणाणं अय॑म् । ॐ ह्रीं अहं णमो परमोहि जिणाणं अय॑म् । ॐ ह्रीं अहं णमो सव्वोहिजिणाणं अय॑म् । ॐ ह्रीं अहं णमो प्रणतोहिजिणाणं अय॑म् । ॐ ह्रीं अहँ णमो कुबुद्वीणं अय॑म् । ॐ ह्रीं अहं गमो बीजबुद्वीणं अय॑म् । ॐ ह्रीं हूँ एमो पादानुसारीणं अय॑म् । ॐ ह्रीं अहं रखमो संभिन्नसोदाराणं अय॑म् । ॐ ह्रीं अहं गमो सयंबुबीरणं पय॑म् । ॐ ह्रीं अर्ह णमो प्रत्येयबुद्धाणं अय॑म् । - Page #93 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५ भो भतार हापप्पल जा ___ॐ ह्रीं अह गमो बोहियबुद्धा अय॑म् । ॐ ह्रीं अहं गमो ऋजुमदीरणं अय॑म् । ॐ ह्रीं अहं रामो विपुलमदीरगं अर्घ्यम् । ॐ ह्रीं अहं रामो दसपुवीरणं अयम् । ॐ ह्रीं अहं णमो चउदसपुवीणं अय॑म् । ॐ ही अहं रामो अट्ठांगमहाकुशलाणं अय॑म् । ॐ ह्रीं अर्ह गमो विउयरायट्टिपत्ताणं अर्घ्यम्। ॐ ह्रीं अह गमो विज्जाहराणं अयम् । ॐ ह्रीं अहं गमी चारगाणं अय॑म् । ॐ ह्रीं अहूँ एमो पण्णसमरणाणं अय॑म् ।। ॐ ह्रीं अहं गणमो आगासगामिणं अय॑म् । ॐ ह्रीं अहं गमो प्रासीविसार प्रय॑म् । ॐ ह्रीं अर्ह शामो दिट्ठिबिसारणं अध्यम् । ॐ ह्रीं अर्ह गमो उरगतबारणं गर्मम् । ____ॐ ह्रीं अहं णमो दित्ततवाणं अय॑म् । ॐ ह्रीं अहं एमो तत्ततवारणं अय॑म् । ॐ ह्रीं अहं णमो महातवारणं अय॑म् । ॐ ह्रीं अहं णमो घोरतवाणं अय॑म् । * ह्रीं अर्ह णमोघोरगुणाणं अय॑म् । ॐ ह्री अह णमो घोरगुणपरक्कमाणं अध्यम् । ॐ ह्रीं अर्ह णमो घोरबेभचारिणं अय॑म् । ॐ ह्रीं अर्ह णमो सवोसहिपत्ताणं अय॑म् । ॐ ह्रीं अहँ गमो खिल्लोसहिपसारणं अय॑म् । ॐ ह्रीं अर्ह णमो जल्लोसहिपत्तारणं अय॑म् । Page #94 -------------------------------------------------------------------------- ________________ " श्री भक्तामर महामण्डल पूजा ॐ ह्रीं ग्रहं रामो विप्पोसपित्तारणं अर्ध्यम् । रामो सम्बोस पित्ताणं अर्ध्यम् । ॐ ह्रीं ॐ ह्रीं अहं रामो मरणोबलीणं श्रर्घ्यम् । ॐ ह्रीं श्रीं णमो वचनवलीणं श्रर्घ्यम् । ॐ ह्रीं श्रीं शामो कायबलीगं अर्घ्यम् । ॐ ह्रीं श्रीं गमो खीरसवीणं अर्ध्यम् । ॐ ह्रीं श्रहं रामो सप्पिसवार अर्घ्यम् । ॐ ह्रीं अहं रामो महुरसवाणं ध्यम् । ॐ ह्रीं श्रीं गमो अमिय सवारणं श्रध्यंम् ॐ ह्रीं अहं रामो प्रवीण महाराणं प्रध्यंम् । €€ ॐ ह्रीं अर्ह णमो बड्ढमारणारणं अर्ध्यम् । ॐ ह्रीं श्रीं णमो सब्बसाहूणं अर्ध्यम् । ॐ ह्रीं श्री क्ली अहं श्रीवृषभनाथतीर्थङ्कराय नमः | अनेन मंत्रेण लवङ्गष्टोतरशतं १०८ माप्यं विधेयम् । भक्तामर महाकाव्य मंडल - पूजा जयमाला ( त्रोटक वृत्तम् ) शुभदेश - शुभङ्कर कौशलकं, पुरुपट्टन - मध्य-सरोज- समं । नृप - नाभि-नरेन्द्र-सुतं सुधियं प्रणमामि सदा वृषभादिजिनं ।। कृत- कारित-मोदन - मोदधरं मनसा वचसा शुभकार्य परं । दुरिता पहरं चामोद-करं, प्रणमामि सदा वृषभादिजिनं ॥ तव देव सुजन्म दिने परमं वरनिर्मित- मङ्गल द्रव्यशुभं । कनकाद्विसु-पांडुक-पीठगति, प्रणमामिसदावृषभादिजिनं । । , - Page #95 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०० श्री भक्तामर महामण्डल पूजा --- - व्रतभूषण-भूरि-विशेष तनू, करकङ्कण-कञ्जल-नेत्रचणं । मुकुटाब्ज-विराजित-चारुमुखं प्रणमामि सदा वृषभादिजिनम् ललितास्य-सुराजित-चारुमुखं,मरुदेवि-समुद्भव-जातसुखं॥ सुरनाथसुताण्डवनृत्यधरं, प्रणमामि सदा वृषभादिजितम्।। वर-वस्त्र-सरोज-गजाश्वपदं, रथ-भृत्यदलं चतुरङ्गजदं । शिव-भीरु-सुभोग-सुयोगधनं,प्रणमामिसदावृषभादिजिन। गतरागसुदोष-विराग-कृति, सुतपोबल-साधितमुक्तिगति। सुख-सागर-मध्य-सदानिलयं,प्रणमामिसदावृषभादिजिन। सुसमोसरणे रति-रोगहरं, परिसदृश युग्म सुदिव्य-ध्वनि । कृत-केवलज्ञान-विकाशतनं प्रणमामि-सदा वृषभादिजिन।। उपदेश-सुतत्त्व-विकाशकरं, कमलाकर-लक्षण पूर्ण-भरं । भवित्रासित-कर्म-कलङ्कहर,प्रणमामि सदावृषभादिजिन।। जिन ! देहि सुमोक्षपदं सुखदं, घनघाति-घनावन-वायुपदं। परमोत्सवकारित-जन्म-दिनं प्रणमामिसदावृषभादिजिनम् संसार-सागरोत्तीर्ण, मोक्षसौख्य-पदप्रदं । नमामि सोमसेनाय॑म, प्राविनाथं जिनेश्वरम् ।। भों ह्रीं पूजाकर्तुः कर्मनाशनाय मागतविघ्नभयमिवारणाय भय॑म् । स भवति जिनदेवः पञ्चकल्याणनाथः, कलिलमलसुहर्ता, विश्वविघ्नौघहन्ता ॥ शिवपदसुखहेतुः नाभिराजस्य सुनुः, भवजलनिधिपोतो, विश्वमोक्षाय नायः ॥ Page #96 -------------------------------------------------------------------------- ________________ थी भक्तामर महामण्डल पूजा इत्याशीर्वादः । परिपुष्पालि क्षिपेत् । दोर्धारस्तु शास्त. एकोलिनस्तु , सद्बुद्धिरस्तु धनधान्य-समृद्धिरस्तु । प्रारोग्यमस्तु विजयोऽस्तु महोऽस्तु पुत्र पौत्रोद्दोऽस्तु तय सिद्धपति-प्रसादात् ॥ पुष्पाञ्जलि क्षिपेत् । अथ शान्ति--पाठ शास्त्रोक्त विधि पूजा महोत्सव, सुरपती चक्री करें। हम सारिखे लघु पुरुष कैसे, यथाविधि पूजा रचें। धन-क्रिया-ज्ञान-रहित न जानें, रीति पूजन नाथ जी । हम भक्तिवश तुम चरण आगे, जोड़ लीने हाथ जी ।। दुख हरन, मंगल करन, पाशाभरन, पूजन जिन सही । यह चित्त में श्रद्धान मेरे, भक्ति है स्वयमेव ही ॥ तुम सारिखे दातार पाये, काज लघु जाचों कहा । मुझ आप सम कर लेहु स्वामी, यही इक बांछा महा ॥ संसार भव-बन विकट में वसुकर्म मिल पातापियो। तिस दाह से पाकुलित चिरतें, शांति-थल कहुँ ना लियो । तुम मिले शान्ति स्वरूप शान्ति, सुकरण समरथ जगपती। वसुकर्म मेरे सान्त करदो, शान्तिमय पंचम-गती ॥ जब लों नहीं शिव लहों तब लों, देहु यह धन पाबना । सत्सङ्ग शुद्धाचरण श्रुत, अभ्यास प्रातम भावना ।। Page #97 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री भक्तामर महामण्डल पूजा तुम बिन अनन्तानन्त काल, गयो रुलत जग जाल में । अब शरण आयो नाथ युगकर, जोड़ नावत भाल मैं ।। बोहा - कर प्रमाण के माप तें, गगन नपे किह भंत । त्यों तुम गुण वर्णन करत, कवि पावे नहि अंत ॥ टुक अवलोकन प्राप को, भयो धर्म अनुराग । इकटक देखूं नित्य तो बढ़े ज्ञान वैराग || पन्थी प्रभु मत्थी मथन, कथन तुम्हार अपार । करो दया सब पै प्रभो, जामें पावें पार | मिक पाठ 1 १०२ ॐ ह्रीं श्रस्मिन् भक्तामर महाकाव्य मंडल पूजा विधान कर्मणि श्राहूयमाना देवगणाः स्वस्थानं गच्छन्तु । अपराधक्षमापणं भवतु | भारती ओम् जय आदिनाथ देवा, ओम् जय प्रादिनाथ देवा ॥ सुर नर मुनि गुण गाते, तुम कैलाशपती कहलाते, हम दर्शन कर पाप मिटाते, अन्तर बाहर दीप जलाते, करते चरणों की सेवा, ओम् जय प्रादिनाथ देवा ॥ इति श्री सोमसेनकृत भक्तामरमहामण्डलपूजा समाप्ता । Page #98 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री भक्तामर महामण्डल पूजा भक्तामर स्तोत्र के मन्त्रों की साधन विधि भक्तामर - ३ ४८ श्लोकों के जो ४. सम्म , ननकी माधन विधि तथा फल क्रमशः नीचे लिखे अनुसार हैं : --प्रतिदिन ऋद्धि और मन्त्र १०८ वार जपने से तथा यन्त्र पास रखने के सव तरह के उपद्रव दूर होते हैं । -काले वस्त्र पहन कर, काले प्रामन पर दंडासन से बैठकर, काली माला से पूर्व दिशा की ओर मुख करके प्रतिदिन १०८ बार ऋद्धि, मंत्र २१ दिन तक अथवा ७ दिन तक प्रतिदिन १००० अपना चाहिये इससे शत्र तथा शिर पीड़ा नष्ट होती है। यन्त्र पास रखने से नजर बन्द होता है । इन दिन में एक बार भोजन करना चाहिये तथा प्रतिदिन नमक से होम करना चाहिए। ३---कमलगट्टा को माला से ऋद्धि और मन्त्र ७ दिन तक प्रतिदिन १०८ बार जपना चाहिये । होम के लिये दश.गधूप हो और गुलाब के फूल चढ़ाये जावें । चुल्लू में जल मंत्रित करके २१ दिन तक मुख पर छींटे देने से सम्म प्रसन्न होते हैं । यन्त्र पास में रखने से शत्रु को नजर बन्द हो जाती है। ४---सफेद माला द्वारा ७ दिन तक प्रतिदिन १००० बार ऋद्धि और मंत्र जपना चाहिये, सफेद फूल चढ़ाना चाहिमे । पृथ्वी पर सोना तथा एकाक्षन करना चाहिए । यदि कोई मछली पकड़ रहा हो तो २१ कंकड़ियां लेकर प्रत्येक कंकड़ो ७ बार मंत्र पढ़ कर जल में डाली जावे तो एक भी मछली जाल या कांटे में न पायेगी। ५-पीला वस्त्र पहिन कर सात दिन तक १००० ऋद्धि, मंत्र प्रतिदिन जपना, पीले फूल चढ़ाना तया कुन्दरू की धूप जलाना चाहिये। Page #99 -------------------------------------------------------------------------- ________________ थी भक्तामर महामण्डल पूजा - - - - -- जिसके नेत्र दुखते हों, उसे दिन भर भूखा रखकर बतासे जल में घोल कर पिलाये जायें या नेत्रों पर छींटे दिये जावे तो नेत्र को आराम हो जासा है । मंत्रित जल कुंए में छिड़कने से लाल कीड़े कुंए में नहीं होने पाते । यन्त्र अपने पास रखना चाहिये। ६-२१ दिन तक प्रतिदिन १००० जाप करने से और यन्त्र अपने पास रखने से विद्या प्राप्त होती है । बिछुड़ा हुआ व्यक्ति प्रा मिलता है। मन्त्र ऋद्धि का जाप लाल वस्त्र पहिन कर करना चाहिए, पृथ्वी पर सोना तथा एक बार भोजन करना चाहिये, लाल फल चहाना चाहिये अथवा कुन्दरू की धूप खेन। पहि ७.-प्रतिदिन हरी माला से १०८ वार ऋद्धि मन्य २१ दिन जपना चाहिये । ऐसा करने से तथा यन्त्र को गले में बाधने से सांप का विष प्रमाय नहीं करता। यदि १०८ वार ऋद्धि मंत्र से कंकड़ी मंत्रित करके सर्प के शिर पर मारी जावे तो सर्प कीलित हो जाता है । लोबान की धूप खेना चाहिये । यन्त्र हरा होना चाहिये। -प्ररीठे रीठा के बीजों को माला के द्वारा २१ दिन तक १००० जाप करने से तथा यन्त्र को अपने पास रखने से सब प्रकार का परिष्ट दूर होता है । यदि नमक के छोटे टुकड़ों को १०८-१०८ वार मंत्र पढ़कर मंत्रित करके पीडायुक्त किसी अंग को झाड़ा जावे तो पीड़ा दूर हो जाती है । घी भौर दूध खेना चाहिये तथा नमक की डली से होम करना चाहिये। E-एक सौ पाट पार ऋद्धि मंत्र द्वारा पार ककड़ियों को मंत्रित करके यदि उनको चारों दिशाओं में फेंका जावे तो चोर डाकू आदि का किसी तरह का भय नहीं रहता। Page #100 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री भक्तामर महामण्डल पूजा १०-पीली माला से प्रतिदिन १०८ वार ऋद्धि मंत्र का ७ या १० पिन जाप करने से तथा यन्त्र पास में रखने से कुत्ते के काटने का विष उतर जाता है। नमक को ७ डलियों को, प्रत्येक को १०८ बार मंत्र द्वारा मंत्रित करके खिलापा जाय तो कुत्ते का विष असर नहीं करता । धूप कुन्दरू की होना चाहिये । ११-लाल माला से २१ दिन तक (प्रतिदिन १०८ वार) बैठकर मा खड़े रहकर सफेद माला से १०८ बार अपने पर (दीप, धूप नैवेद्य फस लिये हुये) एकाने पास इसमें से जिप पास बुलाना हो वह पा जाता है । धूप कुन्दरू की हो। १२–लाल माला से मन्त्र और ऋद्धि का जाप ४२ दिन त । प्रतिदिन १०८० करना चाहिये । पशाग धूप खेनी चाहिये । यन्त्र अपने पास रम्झने तथा मंत्र द्वारा १०८ वार तेल मंत्रित करके हाथी को पिलाने पर हाथी का मद उतर जाता है । १३ -पीली माला के द्वारा ऽ दिन प्रतिदिन १००० दि मंत्र का जाप करना चाहिये, एक बार भोजन तथा पृथ्वी पर शयन करना चाहिये । यन्त्र पास रखने से तथा ७ कंकड़ी लेकर प्रत्येक को १०८ वार मंत्र से मंत्रित कर चारों दिशाओं में फेंकने से चोरों का भय नहीं रहता, मार्ग में और भी कोई भय नहीं माने पाता। १४–सात ककड़ी लेकर प्रत्येक को २१ वार ऋद्धि मंत्र द्वारा मंत्रित करके चारों भोर फेंकने से तथा पत्र अपने पास रखने से व्याधि, शत्रु आदि का भय नष्ट हो जाता है, लक्ष्मी प्राप्त होती है तथा वात रोग नष्ट होता है। १५-- ऋद्धि मंत्र द्वारा २१ वार तेख मंत्रित करके उस तेल को मुख पर लगाने से राजदरवार में प्रभाव बढ़ता है, सौभाग्य और लक्ष्मी Page #101 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री भक्तामर महामण्डल पूजा की प्राप्ति होती है। १४ दिन तक लाल माला से १००० जाप करना चाहिए । दशांग धूप खेना चाहिये । एक बार भोजन करना चाहिए । १६-हरी माला से प्रतिदिन १००० ऋद्धि मंत्र का जाप ९ दिन सक करे, कुन्दरू की धूप खेवे । यन्त्र पास में रखने से तथा मंत्र का १०८ वार जाप करने से राजदरबार में प्रतिपक्षी की हार होती है। शत्रु का भय नहीं रहता। १५-सफेद माला से प्रतिदिन १००० ऋद्धि मंत्र का जाप ७ दिन तक करे, चन्दन को धूप खेवे । यंत्र पास रखने से तथा शुद्ध अछूता जल २१ वार मंत्र कर पिलाने से पेट की असाध्य पीडा, वायुशूल, वायुगोला प्रादि मिट जाते हैं। १८. लाल माला द्वारा प्रतिदिन ऋद्धि मंत्र का १००० जाप ७ दिन तक करना चाहिये, दशांग धूप खेनी चाहिये, एक वार भोजन करना चाहिये । यंत्र को पास में रखने से तया १०८ बार जाप करने से पात्रु की सेना का स्तम्भन होता है । १६-यन्त्र अपने पास रखने से तथा ऋद्धि मंत्र का १०८ बार जाप करने से अपने ऊपर दूसरे के द्वारा प्रयोग किया गया मंत्र प्रयोग, जादू, मूठ, टोटका आदि का प्रभाव नहीं होने पाता, न उच्चाटन का भय रहता है। २० यन्त्र को अपने पास रखने से तथा मन्त्र को १०८ वार जपने से सन्तान प्राप्त होती है, लक्ष्मी का लाभ होता है, सौभाग्य बढ़ता है, विजय मिलती है. बुद्धि बढ़ती है। २१-यन्त्र अपने पास रखने से तथा प्रतिदिन १०८ धार ऋद्धि मन्त्र ४१ दिन तक जपने से सब अपने अधीन हो जाते हैं। Page #102 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री भक्तामर महामण्डल पूजा १७ २२-यन्त्र गले में बांधने से तथा हल्दी की गांठ को २१ वार मन्त्र द्वारा मंत्रित करके चबाने से भूत, पिशाच, चुडेल प्रादि दूर हो जाते हैं। २३–पहले १०८ बार मन्त्र जप कर अपने शरीर की रक्षा करे फिर जिसको प्रेत बाधा हो उसे झाड़े, यन्त्र पास रक्खे तो प्रेत-बाधा दूर होती है। २४-प्रतिदिन १०८ बार मन्त्र जपना चाहिये । २१ बार मन्त्र पड़ कर राख मंत्रित करके उसे शिर पर लगाने से शिर पीड़ा दूर हो जाती है। २५–ऋद्धि और मंत्र के जपने से तथा यन्त्र को पास में रखने से धीज उतरतो है तथा पाराधक पर अग्नि का प्रभाव नहीं होता । २६-ऋद्धि मंच द्वारा १०८ बार तेल मंत्रित करके शिर पर लगाने से तथा यन्त्र अपने पास रखने से प्राधा शीशी आदि शिर के रोग दूर हो जाते हैं । उस तेल की मालिश करने से तथा मंत्रित जल पिलाने से प्रसूति शीध्र प्रासानी से हो जाती है । २७-काली माला से ऋद्धि मन्त्र का जाप करने से, प्रतिदिन एक बार अलोना भोजन करने से तथा कालीमिर्च से हवन करने पर शत्रु का नाश होता है । ऋद्धि और मन्त्र का जाप करते रहने से तथा यन्त्र अपने पास रखने से मन्त्र पाराधना में मात्र कुछ हानि नहीं पहुंचा सकता। २८-ऋद्धि मंत्र की प्राराधना से मोर यंत्र पास में रखने से व्यापार में लाभ, विजय और सुख प्राप्त होता है । सब कार्य सिद्ध होते हैं Page #103 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री भक्तामर महामण्डस पूजा २६--ऋद्धि तथा मन्त्र के द्वारा १०८ बार मंत्रित जल पिलाने से भौर मंत्र को पास रखने से दुखती हुई प्रासं अच्छी हो जाती हैं, बिच्छू का विष उतर जाता है। ३०-मंत्र की माराधना करने तथा यन्त्र अपने पास रखने से शत्रु का स्तम्मन होता है, चोर तथा सिंहादि का भय नहीं रहता । ३१ --मन्त्र अपने पास रखने तथा मन्त्र की जाप से राज्य में सम्मान होता है, दाद, खुजली आदि चर्मरोग नहीं होते। ५२ कुमारी कन्या के द्वारा कासे हुए सूत को ऋद्धि मन्त्र द्वारा मंत्रित करके, उस सूत को गले में बांधने से यौर यन्त्र पास रखने से संग्रहणी आदि पेट के रोग दूर हो जाते हैं। ३३-मुमारी कन्या द्वारा काते हुए मूत को ऋद्धि मंत्र द्वारा २१ बार मंत्रित करके, उस सूत का गंडा गले में बांधने से, झाड़ा देने तथा यंत्र पास में रखने से एकातरा ज्वर, तिजारो, ताप मादि रोग दूर होते हैं । गुग्गुल मिथित बी की धूप खेना चाहिये । २४..-कसूम के रंग में रंगे हुए सूत को ऋद्धि मंत्र द्वारा १०८ बार मंत्रित करके तथा उसको गुग्गुल का धूप देकर बांधने से और यंत्र पास में रखने से गर्भ असमय में नहीं गिरता।। ३५--ऋद्धि मन्त्र की आराधना करने यन्त्र पास रखने से दुभिक्ष, चोरी, मरी, मिरगी. राजभय भादि नष्ट होते हैं । इस मंत्र की माराधना स्थानक । ! ) में करनी चाहिये और यंत्र का पूजन करें। ३६ -ऋद्धि मंत्र की माराधना से और यंत्र पास रखने से सम्पत्ति का साभ होता है। विधान-१२.० जाप लाल पुष्प द्वारा करना चाहिए मौर यंत्र की पूजन भी साथ करना चाहिये। Page #104 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री भक्तामर महामण्डल पूजा ३७-ऋसि मन्त्र द्वारा २१ बार पानी मंत्र कर मुह पर छौंटने से और यंत्र पास रखने से दुर्जन वश में हो जाता है उसकी जीभ का स्तम्भन होता है। ३८-ऋद्धि मंत्र जपने से मीर मंत्र पास रखने से धन का लाभ और हाथी दश में होता है । : ६.-ऋद्धि मंत्र जपने और यंत्र पास रखने से सर्प और सिंह का दर नहीं रहता तथा भूला हुमा रास्ता मिल जाता है । ४०-ऋद्धि मंत्र द्वारा २१ बार पानी मंत्रकर पर के चारों प्रोर छौंटने से मौर यंत्र पास रखने से अग्नि का भय मिटता है । ४१-ऋद्धि मन्त्र के जपने से और यंत्र के पास रखने से राजदरबार में सम्मान होता है और माड़ा देने से सर्प का विष उतरता है। कोसे के कटोरे में जल १०८ बार मंत्रकर पानी पिलाने से विष उतर जाता है। ४२-ऋद्धि मंत्र की माराधना से और यंत्र के पास रखने से युद्ध का भय नहीं रहता। ४३--ऋद्धि मंत्र को प्राराधना और यंत्र पूजन से सब प्रकार का भय मिटता है । युद्ध में हथियार की चोट नहीं लगती तथा राजद्वारा धन लाभ होता है । धिना मौर यंत्र के पास रखने से मापत्ति मिटती है समुद्र में तूफान का भय नहीं होता। समुद्र पार कर लिया जाता है। ४५---ऋद्धि मंत्र जपने पौर मंत्र पास रखने तथा उसकी प्रतिदिन त्रिकाल पूजा करने से सर्व रोग नष्ट होते है और उपसर्ग दूर होता है। ४४. Page #105 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११० श्री भक्तामर महामण्डल पूजा ४६ - ऋद्धि मंत्र जपने और यन्त्र पास रखने तथा उसकी त्रिकाल पूजा करने से कंद से छुटकारा होता है । राजा प्रादि का भय नहीं रहता है । दिन १०८ बार जाप करना चाहिए। ४७ -- ऋद्धिमंत्र को १०८ बार भारतनाकर करते वाले को विजय लक्ष्मी प्राप्त होती है। शत्रु का नाश होता है, वैरी के शस्त्रों की धार व्यर्थ हो जाती है, बन्दूक की गोली मरी आदि के घाव नहीं हो पाते । -प्रतिदिन १०८ बार २१ दिन तक मंत्र जपने से और यन्त्र पास रखने से मनोवांछित कार्य की सिद्धि होती है, जिसको अपने अधीन करना हो उसका नाम चिंतन करने से वह व्यक्ति अपने वश होता है । मन्त्र-साधना अपनी कार्य-सिद्धि के लिये जैसे अन्य उपाय किये जाते हैं उसी प्रकार मन्त्र प्राराधना भी एक उपाय है। मंत्रों द्वारा देव देवी अपने वश में किये जाते हैं, उन वशीभूत देवों के द्वारा अनेक कठिन कार्य करा लिये जाते हैं तथा मंत्रों द्वारा मानसिक वाचनिक शारीरिक शक्ति में वृद्धि भी की जा सकती है । परन्तु इतनी बात निश्चित है कि जब मनुष्य के शुभकर्म का उदय होता है उसी दशा में यन्त्र, मंत्र, तंत्र सहायक या लाभदायक हो सकते हैं किन्तु, जब अशुभ कर्म का उदय होता है, उस समय यंत्र मंत्र तंत्र काम नहीं भाते । रावण ने प्रचल ध्यान से बहुरूपिणी विद्या सिद्ध की थी किन्तु लक्ष्मण के साथ युद्ध करते समय प्रशुभ कर्म से कारण वह विद्या रावण के काम नहीं भाई इसलिये सदाचार, दान, व्रतपालन, परोपकार Page #106 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री भक्तामर महामण्डल पूजा आदि शुभ कार्यों द्वारा शुभकर्म संचय करते रहना चाहिये । श्रेष्ठ बात तो यह है कि समस्त सांसारिक कार्य छोड़ कर, रागद्वेष की शसना से दूर होकर कर्मबन्धन से छुटकारा पाने के लिये शुद्ध आत्मा का ध्यान किया जावे, परन्तु यदि मनुष्य उस अवस्था तक न पहुंच सके तो उसे प्रशुभ ध्यान, अशुभ विचार, अशुभ कार्य छोड़कर शुभ ध्यान, शुभ कार्य, शुभविचार करना चाहिये । जहाँ तक हो सके अन्य व्यक्ति को दुख पीड़ा या हानि पहुंचाने के लिये मंत्र का प्रयोग नहीं करना चाहिये । स्व-परहित तथा लोक-कल्याण के लिये मन्त्रप्रयोग करना उचित हैं । विधि १-मंत्र साधन करने के लिये किसी मंत्रवादी विद्वान से मन्त्रसाधन करने की समस्त विधि जान लेना अावश्यक है । बिना ठीक विधि जाने मन्त्र-साधन करने से कभी कभी बहुत हानि हो जाती है मस्तिष्क खराब हो जाता है, मनुष्य पागल हो जाते हैं । २-मंत्र-साधन करने के दिनों में खान पान शुद्ध वा सात्विक होना चाहिये, जहां तक हो सके एक बार शुद्ध सादा पाहार करे। इन दिनों में ब्रह्म पर्य से रहकर पृथ्वी पर सोना चाहिये । ३---शुद्ध धुले हुये वस्त्र पहिन कर शुद्ध एकान्त स्थान में बैठना चाहिये, प्रासन शुद्ध होना चाहिये । सामने लकड़ी के पटे पर दीपक असता रहना चाहिये और पग्नि में धूप डालते रहना चाहिये । विशेष मंत्र-साधन विधि में कुछ फेर-फार भी होता है । ४.--यंत्र को सामने चौकी पर रखना चाहिये । ५-यंत्र तांबे के पत्र पर उकेरा हुअा हो, अथवा भोजपत्र पर प्रनार की लेखनी से केसर द्वारा लिखा हुप्रा हो । Page #107 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 112 श्री भक्तामर महामण्डल पूजा ६-मंत्र का उन्चारण शुद्ध होना चाहिये। ७-मंत्र जपते समय मन को इधर उधर नहीं भटकाना चाहिये / ८-शरीर में एक प्रासन से बैठे रहने की क्षमता होना चाहिये / साधन-विधि वशीकरण मंत्र सिद्ध करने के लिये वस्त्र घोती, दुपट्टा, बनयान पीले रंग की होनी चाहिये, बैठने का प्रासन और जपने की माला भी पीली होनी चाहिए। पनलाम-के लिये मंत्र-साधन में सफेद वस्त्र, सफेद प्रासन मौर सफेव मोती की माला होना चाहिए। माकर्षण-मंत्र-साधन में हरे वस्त्र, हरी माला और हरा भासन होना चाहिए। मोहन में लाल वस्त्र, लास माखन और मूंगे की माला होना चाहिए / जिस मंत्र-साधन के लिए कोई विपा न बतलाई गई हो उसका साधन पूर्व दिशा की मोर मुख करके करना चाहिए / * अन्य समाप्ति: *