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श्री भक्तामर महामण्डल पूजा
- .-. -. ...---. -- दन्ताग्रभिन्नेषु सुमस्तकेषु,
परस्परं पत्र गजाश्वयुद्ध मनुष्य प्रायाति सुकौशलेन,
त्वान्नाममन्त्रस्मरणाजिनेश ११४३।। रण में भालों से वेधित गज, तन मे बहता रक्त अपार । वीर लड़ाकू जहं आतुर हैं, रुधिर-नदी करने को पार ।। भक्त तुम्हारा हो निराश तह, लल भरिसेना दुर्जयरूप । तब पादारविन्द पा आश्रय, जय पाता उपहार-स्वरूप ।।४३।।
ऋद्धि | ॐ ही अहँ पमी पहरमबागं !
: मंत्र । ॐ मी चक्रेलरी देवा चक्रधरणी जिनशाशनसेवा कारिणी भद्रा द्रनिनाशनी धर्मशान्तिकारिणा नमः शांतिं कुरु कुरु इसिद्धि कुरु कुरु स्वाहा ।
(विधि) श्रद्धासहित ऋद्धि-मंत्र जपने से भय मिटता है और सब प्रकार की शान्ति प्राप्त होती है || ३||
प्रयं-है दुयशत्रमानभनक देव ! जिस महासमर में बरछों की मुफोलो नोंकों से वेषे गये हाथियों के विशालकाय बारीर से निःसृत, रक्त रुपी अमर्यादित अल-प्रवाह के बहाव में बहते हुये, उसे तैर कर प्रविलम्ब विजय प्राप्त करने के लिये अपीर बीर योद्धानों से जो प्रचण्ड युद्ध हो रहा है। एसे महायुद्ध में प्रापके पुनीत पावपनों को पूजा करने वाले भक्तजन अमेव शत्रु का अभिमान चूर २ कर बड़ी शान के साप विजयपताका फहराते हुए प्रानंद विभोर हो जाते हैं ॥४३॥ ॐ ह्रीं वनगजादिभयनिवारणाय क्लीमहावीजाक्षरसहिताय
श्रीवृषभजिनाथ अयम् ||४३।।। Those, who resort to Thy louts-fect, get victory hy descating the jovincibly victorious side (of the enemy) in