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भक्तामर महामण्डल पूजा
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प्राक्कथ न
आदिनाथ स्तोत्र जिसका दूसरा नाम भक्तामर भी है जैन समाज मैं सबसे अधिक प्रचलित भक्तिरस का अपूर्व महाकाव्य है। इसका परिचय देना सूर्य को दीपक दिखाना है । मखिल जैन समाज में विरला ही कोई ऐसा होगा जो इस स्तोत्र के नाम से परिचित हो। प्रगाढ़ श्रद्धा रखने वाले बहुत से ऐसे भी जैन हैं जो तत्त्वायंसूत्र या भक्तामर का पाठ या श्रवण किये बिना न तक ग्रहण नहीं करते ।
पर
हिन्दुनों में गणेशस्तोत्र का जो स्थान है, जैनियों में वही स्थान भक्तामर को प्राप्त है। बहुतसी सौफिक पुस्तकों के पढ़ चुकने के बाद भी जैन बालक जब तक उपर्युक्त दोनों महान् धार्मिक पुस्तकों को नहीं पढ़ लेता है तब तक वह समाज की दृष्टि में वेपका ही समझा जाता है। वास्तव में बालक-बालिकाओं की योग्यता परखने के लिए दोनों धर्म ग्रन्थों की जानकारी एक कसौटी की सरह है। इतने मात्र से समझ लेना चाहिए कि इस पवित्र पुण्यमय स्तोत्र का कितना अधिक माहात्म्य है और जंन लोग इसे कितने प्रादर तथा श्रद्धा की दृष्टि से देखते हैं ।
इस काव्य ग्रन्थ ने अपने जिन अपूर्व अनुपम श्रद्वितीय गुणों के कारण मद्दान् माहात्म्य, भ्रमर्यादित प्रचार और विशेषरूप से ख्याति प्राप्ति की है, यह किसी से भी छिपी हुई नहीं है। फिर भी हमारा सुषुप्त समाज समीचीन संस्कृतविद्या की जानकारी के अभाव में इसके सर्वोत्तम विविध गुणों को जानकारी से वंचित होता जाता है ।
वह यह नहीं समझ
पाता कि ४५ श्लोक वाले इस छोटे से काव्य ग्रन्थ में ऐसा कौनसा अमृत भरा हुआ है, जिसे पान करके न केवल जैन अपितु इस पर विमुग्ध हुए जेनेटर विद्वानों तक ने इसको मुक्तकंठ से प्रशंसा की है ।