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श्री भक्तामर महामण्डल पूजा
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(ऋद्धि) ॐ ह्रीं महं णमो दिद्विविसाए ।
{ मंत्र ) स्थावरजंगमकायकृतं सकलविर्ष यद्भक्ते: ममतायते दृष्टिविपास्ते मुनयः बढमाणस्वामी व सर्वहितं कुरुतर स्वाहा ।
(विधि) राख मंत्रित कर शिर में लगाने से शिरपीड़ा दूर होती है ॥२४॥
प्रर्य हे गुणार्णव ! अापकी प्रात्मा का कभी नाश नहीं होने से पाप प्रध्यम (अविनाशी), ज्ञान के लोकत्रय व्यापी होने से अथवा कर्मनाश में समय होने से स्वरूप से प्राचन्त्य, संख्यातीत या प्रभुत गुणयुक्त होने से असंख्य, युगादिजन्मा या यतमान चौबीसी प्रथम होने से प्राध (प्रयम), कर्मरहित पा निवृत्तिरूप होने से ब्रह्मा, कृत्कृत्य होने से ईश्वर, अन्तरहित होने से धनन्त, कामनाश के लिए केतुग्रह के उदय समान होने से मनङ्गकेतु, मुनियों के स्वामी होने से योगोश्वर, एनत्रयरूप योग के नाता होने से विदितयोग, गुरणों और पर्यायों की अपेक्षा भनेक, तीर्घ शरीय भेद की अपेक्षा एक, केबलशानी होने से नामस्वरूप तथा कर्ममल रहित होने से प्रमत' कहे जाते हैं। अर्थात् ऋषिगण पृथक् पपक गुणों की अपेक्षा प्रापको प्रव्यय प्रादि कहकर स्तुति करते है ॥२४॥
ॐ ह्रीं मनोवांछित फलदायकाय क्लीमहावीजाक्षरसहिताय
हृदयस्थिताय श्रीवृषभदेवाय अय॑म् ।।२४।।
The righteous consider You to be immutable omdipotent, incomprehensible unumbered the the first, Brabme, the supreme Lord Siva, endless the enemy of Ananga (Cupid), lord of yogis, the knower of yoga, marny. one, of the nature of knowledge, and stainless. 24.