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अथाष्टवलकमलपूजा
(वसन्ततिलकावत्तम् ) सविघ्ननाशक भक्तामर - प्रगतमौलि - मणिप्रभारणा
मुद्योतकं दलित - पापतमो - वितानम् । सम्यक्प्रणम्य जिनपादयुग युगादा--
वालम्बनं भवजले पततां जनानाम् ॥१॥ नम्रासुरासुरननाथशिरांसि यस्य,
सम्बिम्बितानि नखविंशतिदर्पणेऽस्मिन् । तं विश्वनाथमभिवन्द्य सुपूजयामि,
पक्वान्न - पुष्प - जलचन्दनतन्दुलाद्यैः ।।१।। भक्त अमर नत मुकुट सुमणियों, की सु-प्रभा का जो भासक । पापरूप अति सघन तिमिर का, मान-दिवाकर-सा नाशक || भव-जल पतित जनों को जिसने, दिया आदि में अवलम्बन । उनके चरण-कमल का करते, सम्यक बारम्बार नमन ।।१।।
(ऋद्धि) ॐ ह्रीं अहं णमो अरिहताणं, एमो जिरणपणं जहां ह्रीं हूं. ह्रौं है: असि पाउ सा अप्रतिचक्रे फट् विचक्राय झा झौं स्वाहा।
(मंत्र) ॐ ह्रां ह्रीं हूँ. श्रीं क्लीं ब्लं क्रीं ॐ ह्रीं नमः स्वाहा ।
(विधि) ऋद्धि और मंत्र श्रद्धापूर्वक प्रतिदिन १०८ बार जपने से समस्त विघ्न नष्ट होते हैं ॥१॥
अर्थ-विशेष वैभवशाली देवों से पूजित, अपने तथा प्रोरों के 'पापसमूह के नाशक और अपने वीतराा उपवेश द्वारा प्राणियों को
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