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श्री भक्तामर महामण्डल पूजा
मास्ति
दुष्टता प्रतिरोधक इत्थं यथा तव विभूतिभूज्जिनेन्द्र !,
धर्मोपदेशनविधौ न तथा परस्य । यादृक्प्रभा दिनकृत : प्रहतान्धकारा,
तादृक्कुतो ग्रहगणस्य विकासनोऽपि ॥३७॥ लक्ष्मी विभो देव ! यथा तवास्ति,
तथा न ादिषु नायकेषु । तेजो यथा सूर्यविमानकस्य,
तारागणस्य प्रभवतोह नो वा।।३७।।। धर्म-देशना के विधान में, था जिनवर का जो ऐश्वर्य । वेरा क्या कुछ अन्य कुदेवों, में भी दिखता है सौन्दर्य ।। जो छधि घार-तिमिर के नाशक, रवि में है देखी जाती । वैसी ही क्या अतुल कान्ति, नक्षत्रों में लेखी जाती ।।३७।।
(ऋद्धि) ॐ ह्रीं अहं गमो सन्योसहिपत्ताणं ।
(मंत्र) ॐ नमो भगवते अप्रतिषके ऐं क्लीं ब्लू * ह्रीं मनोवाछितसिद्धधै नमो नम: । अप्रतिनके ह्रीं ठः ठः स्याहा।
(विधि) श्रद्धासहित ऋद्धि-मंत्र द्वारा घोड़ासा जल मंत्रित कर मुंह पर छींटा देने से दुर्जन पुरुष वश में हो जाया करते हैं और उनकी जबान बन्द हो जाती है ।।३७।।
अर्थ-समवसरणाधिपते ! घमोपदेश के समय समवसरणादिक जसो विभूति पापको प्राप्त हुई, वैसी विभूति अन्य किसी वैव को प्राप्त नहीं हुई । ठीक ही है कि जैसी शान्ति सूर्य को होती है घसी कान्ति शुक्र मावि ग्रहों को प्राप्त हो सकती है क्या? अर्थात नहीं॥३७॥
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