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श्री भक्तामर महामण्डल पूजा
। ऋद्धि) ॐ ह्रीं अर्ह णमा तितवाणं ।
( मंत्र ) ॐ नमो चक्रेश्वरी देवी पत्रधारिणी चक्रेरणानुकूलं साधय साधय शत्रूनुन्मूलयोन्मूलय स्वाहा ।
(विधि) श्रद्धासहित ऋद्धि-मंत्र की उपासना से प्राराधक को शत्रु म हानि नहीं पा सकता !
प्रर्य-हे गुणनिधान ! संसार के समस्त गुणों ने प्राप में सहसा इस तरह निवास कर लिया है कि कुछ भी स्थान शेष नहीं रहा पौर शोषों ने यह सोधकर अभिमान से प्रापकी मोर देला भी नहीं; कि जब संसार के बहुत से देवों ने हमें अपना भाभय दे रहा है। सब हमें एक जिनमेव की क्या परवाह है, यदि उनमें झमें स्थान नहीं मिला तो न सहो । सारांश यह है कि माप में केवल गुणों का हो निशान है, रोबों का नामभिधान मौ नहीं। ॐ ह्रीं सफलदोषनिर्मुक्ताम क्लीमहावीजाक्षरसहिताय
श्रीवृषभजिनेन्द्राय अय॑म् । No wonder that, after finding space nowbere, You have, O Great Sage !, been resorted to by all the excellenes; and in dreams cven Thou art never looked at by olemishes, which, having obtained many resorts, have become inflated with pride. 27.
सर्व मनोरष प्रपूरक उच्चर - शोकतरु-संश्रित - मुन्मयूख
माभाति रूपममलं भवतो नितान्तम् । स्पष्टोल्लसत्किरणमस्त - तमो - वितानं,
बिम्ब रवेरिय पयोधरपार्वति ॥२८॥