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श्री भक्तामर महामण्डल पूजा
चन्द्र-प्रभा राम झरियों से, मरिण-मुक्तामय अति कमनीग । दीप्तिमान् शोभित होते हैं, सिर पर छत्रत्रय भवदीय ।। ऊपर रह कर सूर्य-रश्मि का, रोक रहे हैं प्रखर - प्रताप । मानों वे घोषित करते है, त्रिभुवन के परमेश्वर पाप ।।३।।
(ऋद्धि) ॐ ह्रीं अहं नमो घोरगुणपरक्कमारणं ।
( मंत्र ) ॐ अवसग्गहरे पासं वदामि कम्मघणमुक्कं बिसहर निमिणमिगलरलाही नम: स्याहा ।
(विधि) श्रद्धासहित ऋद्धि-मंत्र को जपने से राज्य-मान्यता होती है और हर जगह सम्मान प्राप्त होता है ॥३१॥
मपं . हे छत्रत्रयाषिपसे ! मापके शिर पर मुशोभित, बन के समान रमणीय, सूर्य की किरणों के सन्ताप का रोषक और रत्नों के जमाव से सुशोभित "छत्रप" प्रापके तीनों लोकों के स्वामीपन को प्रकट करता है । यह छत्रत्रय प्राप्तिहार्य है ॥३१॥ ॐ ह्रीं क्षत्रव्यप्रतिहार्ययुक्ताय कलीमहावीजाक्षरसहिताय
श्रीवृषभजिनादाय प्रय॑म् । The three umbrellas charming like the moon, wluich are held high above Thee, and the beauty of wlich has been cnhanced by the net-work of pearls and which obstructs the heat of the sun's rays, looks very beautiful, proclainiing, as it were. Thy supreme lordship over all the three worldy. 31.
संग्रहणी-संहारक गम्भीरतार • रयपूरित - दिग्विभाग--
स्त्रलोक्यलोक - शुभसङ्गम - भूतिदक्षः ।