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श्री भक्तामर महामण्डल पूजा
धूम न बत्ती तैल विना ही, प्रकट दिखाते तीनों लोक । गिरि के शिखर उड़ाने वाली बुझा न सकली मारुत झोक ॥ जिस पर सदा प्रकाशित रहते, गिनते नहीं कभी दिन-रात ऐसे अनुपम ग्राप दीप हैं। स्व-पर-प्रकाशक जग विख्यात ॥ १६ ॥ (ऋद्धि) ॐ ह्रीं यह रामो चउदसपूववीणं ।
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(मंत्र) शुद्ध कुरु कुरु स्वाहा |
५.३
सुमंगला सुसीमा नाम देवीभ्यां सर्वममीहितार्थ
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(विधि) दिन तक प्रतिदिन श्रद्धासहित १००० ऋद्धि-मंत्र जपने से राजदरबार में प्रतिवादी को हार होती है और शत्रु का भय नहीं रहता । पेसी के दिन १०८ बार मंत्र पढ़कर स्वयं को वा दूसरों को श्रभूत का तिलक करे ।। १६ ।।
अर्थ- हैप्रकाशक भाव समस्त संसार को प्रकाशित करने बाले मनखे दीपक है। क्योंकि अन्य दीपकों को बत्ती से धुआं निकलता है, परन्तु श्रापका वति ( मार्ग निर्धूम (पापरहित ) है। अन्य दीपक तेल की सहायता से प्रकाश करते हैं, परन्तु पाप बिना किसी की सहायता से ही प्रकाश (ज्ञान) फैलाते हैं। अन्य दीपक जरा भी हवाके झोक से बुझ जाते हैं, परन्तु प्राप प्रलयकाल की हवा से भी विकार को प्राप्त नहीं होते। तथा अन्य दीपक थोड़े से ही स्थान को प्रकाशित
करते हैं, परन्तु श्राप समस्त लोक को प्रकाशित करते हैं ।। १६ ।
ॐ ह्रीं त्रैलोक्यलोकवशङ्कराय क्लीं महाबीजाक्षरस हिताय हृदयताय श्रीवृषभदेवाय अध्यम् ।
Thow art, O Lord ! an unparailed lamp as it were, the very light of the universe-which, though devoid of smoke, wick and oil, illumines all the three worlds and is invulnerable even to the mountain-shaking winds. 16.