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श्री भक्तामर महामण्डन्न पूजा
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उच्चाटनादि रोषक कि शरीषु शशिनाह्नि विवस्वता धा,
युरुमरमुखेन्दु - दलितेषु तमःसु नाथ ? निष्पनशालिवनशालिनि जीवलोक,
कार्य कियज्जलधर जलभारनम्रः ॥१६॥ जिनमुखोद्भबकान्ति-विकाशितः,
__ निखिललोक इतीह दिवाकरः । किमथवा सखदः प्रतिमानवं,
___ भवतु सः वृषभः शुभसेवया ।। नाथ आपका मुख जब करता, अन्धकार का सत्यानाश । तब दिन में रवि ग्रार रात्रि में, चन्द्र-बिम्ब का विफल प्रयास ।। धान्य-खेत जब धरती तल के, पके हुने हो अति अभिराम । शोर मचाते जन्न को लादे, हुयं घनों से तब क्या काम ?।।।९।।
(ऋद्धि) ॐ ह्रीं ग्रह णमो विज्जाहराएं। ( नंत्र } ॐ हां ह्रीं हं ह्र: यक्ष ह्रौं वषट् नमः स्वाहा ।
(विधि) श्रद्धासहित ऋद्धि-मंत्र को १०८ बार जपने से अपने पर प्रयोग किये गये दूसरे के मंत्र, जादू टोना, टोटका, मूठ, उच्चाटन आदि का भय नहीं रहता ॥१६॥
अर्थ-हे निलोकीनाय ! जिस प्रकार अनाज के पक जाने पर जल का बरसना व्यर्थ है। क्योंकि उस जल से कीचड़ होने के सिवाय और कोई लाभ नहीं होता, उसी प्रकार मापके मुखचन्द्र के द्वारा चाँ अन्धकार नष्ट हो चुका है। यहाँ विन में सूर्य से मोर रात्रि में चन्द्र से कोई लाभ नहीं ॥१९॥