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श्री भक्तामर महामण्डल पूजा
(ऋद्धि) ॐ ह्रीं ग्रह णमो सयंदुद्धीणं ।
( मंत्री जन्मसद्ध्यानतो जन्मतो वा मनोत्कर्षघृतावादि मोर्यानाक्षान्ताभावे प्रत्यक्षा बुद्धान्मनो ह्रां ह्रीं हं. लौं ह्रः श्रां श्री श्री श्र: सिद्धबुद्धकृतार्थों भव २ वषट् सम्पूर्ण स्वाहा । (!)
(विधि) श्रद्धापूर्वक नमक की ७ डली लेकर प्रत्येक को १०८ बार मंत्रित कर खाने से कुत्ते के विष का असर नहीं होता।
भावार्थ-हे भुवनररन ! पनि सत्यार्य गुरणों ारा पापको स्तुति करने वाले मानव अापके हो सदृश हो जाय तो इसमें कोई प्राश्चर्य नहीं है, क्योंकि संसार में उस स्वामी से लाभ ही पया ? जो अपने प्रधान व्यक्तियों को अपने समान नहीं बना लेवे ॥१०॥ ॐ ह्रीं प्रहज्जिनस्मरणजिनसम्भूताय कलीमहावीजाक्षरसहिताय
हुदमस्थिताय श्रीवृषभदेवाय प्रय॑म् । O ornament of the world! O Lord of beings! No wonder that those, adoring You with (Thy) real qualities, become equal to you. What is the use of that (master), who does not make his subordinates equal to himself by (the gifts of) wealth. 10.
प्रमाप्सित-माकर्षक दृष्ट्वा भवन्तमनिमेषविलोकनीयं,
नान्यत्र तोषमुपयाति जनस्य चक्षुः । पीत्वा पयः शशिकरद्युतिदुग्धसिन्धोः,
क्षारं जलं जलनिधेरसितुं क इच्छेत् ? ॥११॥ भवति दर्शनमेबमिते सति, भवति यादृश एव सुतोषकः। न हि तथा परतः क्वचिदेव तत्, सततमेव करोमि
तवार्चनम् ॥