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श्री भक्तामर महामण्डल पूजा
आदि शुभ कार्यों द्वारा शुभकर्म संचय करते रहना चाहिये । श्रेष्ठ बात तो यह है कि समस्त सांसारिक कार्य छोड़ कर, रागद्वेष की शसना से दूर होकर कर्मबन्धन से छुटकारा पाने के लिये शुद्ध आत्मा का ध्यान किया जावे, परन्तु यदि मनुष्य उस अवस्था तक न पहुंच सके तो उसे प्रशुभ ध्यान, अशुभ विचार, अशुभ कार्य छोड़कर शुभ ध्यान, शुभ कार्य, शुभविचार करना चाहिये । जहाँ तक हो सके अन्य व्यक्ति को दुख पीड़ा या हानि पहुंचाने के लिये मंत्र का प्रयोग नहीं करना चाहिये । स्व-परहित तथा लोक-कल्याण के लिये मन्त्रप्रयोग करना उचित हैं ।
विधि
१-मंत्र साधन करने के लिये किसी मंत्रवादी विद्वान से मन्त्रसाधन करने की समस्त विधि जान लेना अावश्यक है । बिना ठीक विधि जाने मन्त्र-साधन करने से कभी कभी बहुत हानि हो जाती है मस्तिष्क खराब हो जाता है, मनुष्य पागल हो जाते हैं ।
२-मंत्र-साधन करने के दिनों में खान पान शुद्ध वा सात्विक होना चाहिये, जहां तक हो सके एक बार शुद्ध सादा पाहार करे।
इन दिनों में ब्रह्म पर्य से रहकर पृथ्वी पर सोना चाहिये ।
३---शुद्ध धुले हुये वस्त्र पहिन कर शुद्ध एकान्त स्थान में बैठना चाहिये, प्रासन शुद्ध होना चाहिये । सामने लकड़ी के पटे पर दीपक असता रहना चाहिये और पग्नि में धूप डालते रहना चाहिये । विशेष मंत्र-साधन विधि में कुछ फेर-फार भी होता है ।
४.--यंत्र को सामने चौकी पर रखना चाहिये ।
५-यंत्र तांबे के पत्र पर उकेरा हुअा हो, अथवा भोजपत्र पर प्रनार की लेखनी से केसर द्वारा लिखा हुप्रा हो ।