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श्री भक्तामर महामण्डल पूजा - --- -- -- केनापि दुष्टेन नृपेण धर्मी,
सम्बन्धितः श्रङ्खलया नरश्न । स त्वां जवं मुञ्चति बन्धतोऽद्य,
संसारपाशप्रलयं नमामि ॥४६॥ लोह-गृङ्खला से जकड़ी है, नख से शिख तक देह समस्त । घुटने-जंघे छिले बेड़ियों, से अधीर जो हैं अतिग्रस्त ।। भगवन ऐसे बन्दीजन भी, तेरे नाम-मन्त्र की जाप । जप कर गत-बन्धन हो जाते, क्षणभर में अपने ही पाप ।।४६।।
। द्धि ) ॐ ह्रीं अर्ह पाम सिद्धोदयाणं ।
( मंत्र ) ॐ नमा ह्रां ह्री श्री हूँ ह्रीं ह्र: ठः ठः जः जः क्षा भी शं क्षः शायः स्वाहा ।
विधि । श्रद्धाम्महित प्रतिदिन ऋद्धिमंत्र को १०८ बार जपने से शत्रु वश में हात' है. विजयलक्ष्मी प्राप्त होता है और शस्त्रादि के घाव शरीर में नह हो पाते ।।४।।
पर्थ-हे महामहिम ! लोहे की बड़ी २ वमनदार सांकलों से जिनके शरीर के समस्त अवयव शिर से लेकर पांव सक बहुत ही मजबूती से जकड़े हुये हैं और हाथों पैरों में कड़ी पो लोहशलाकों की बेड़ियों के पड़े रहने से निरन्तर उसको बार बार रगड़ से घुटने और जंघायें छिल गई हैं, ऐसे लोह लावद्ध मानव भी मापके शुभ नामरूपी परप-विनाशक पवित्र मंत्र का सत्य हृदय से स्मरण कर भराभर में अपने प्रापही बंधन को कठोर यासमा से छुटकारा पाकर निईन्द और निर्भय हो जाते हैं ॥४६॥ ॐ ह्रीं नानाविधकठिनबन्धनदूरकरणाय क्लींमहादीजाक्षरसहिताय
श्रीवृषभजिनेन्द्रीय अध्यम् ।।४६॥६