Book Title: Yashstilak Champoo Uttara Khand
Author(s): Somdevsuri, Sundarlal Shastri
Publisher: Bharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad

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Page 17
________________ यता 1 द्वादशवर्षा योषा षोडशवाचित स्थितिः पुरुषः । प्रीतिः परा परस्परमनयोः स्वर्गः स्मृतः सद्भिः ।। मा०५ पृ. १५३ श्लोक ६५ अर्थात्-'धूमध्वज' नामके विद्वान् ने भीमांसक मत का आश्रय लेकर सुदत्ताचार्य से कहा-'जिस प्रकार घर्षण किया हुआ अङ्गार ( कोयला ) कभी भी शुक्लता ( शुभ्रता ) को प्राप्त भी नहीं होता उसी प्रकार स्वभावतः मलिन चित्त भी किन कारणों से विशुद्ध हो सकता है ? अपितु नहीं हो सकता। परलोक स्वभाव वाला स्वर्ग प्रत्यक्ष प्रतीत नहीं है जिस' निमित्त यह तपश्चर्या का खेद सफल खेद-युक्त होलके। क्योंकि 'बारह वर्ष की स्त्री और सोलह वर्ग की योग्य आयु वाला पुरुष, इन दोनों की परस्पर उत्कृष्ट प्रीति ( दाम्पत्य प्रेम ) को सज्जनों ने स्वर्ग कहा है।' । इदमेव च तत्त्वमुपलभ्यालापि नीलपटेन - स्त्रीमुद्रां बापकतनस्य महती सर्वार्थसंपत्वारों, ये मोहादवधीरयन्ति कुधियो मिथ्याफलान्बेषिणः । ते तेनैव निहत्य निर्दयतरं मुण्डीकृताः लुञ्चिताः, केचित् पञ्चभिखीकृताश्च जटिनः कापालिकाश्चापरे ।। ७७ ॥ ___आ, ५ पृ० १५६ श्लोक ७७ अर्थात् -- जो मूहबुद्धि झूठे स्वर्गादि फल का अन्वेषण करनेवाले होकर अज्ञान-वश कामदेव की सर्च श्रेय और समस्तं प्रयोजन रूप सम्पत्ति सिद्ध करने वाली स्त्री मुद्रा का तिरस्कार करने हैं. वे मानों-उसी कामदेव द्वारा विशेष निर्दयता पूर्वक ताड़ित कर मुण्डन किये गए अथवा केश उखाड़ने वाले कर दिये गए एवं मानोंपञ्चशिखा-युक्त ( चोटी धारी ) किए गए एवं कोई तपस्वी कापालिक किये गए' ।। ७७ || चण्डवार्मा-यावजीवेत् सुखं जीवेन्नास्ति मृत्योरगोचरः, भस्मीभूतस्य शान्तस्य पुनरागमनं कुतः ॥ पृ० १५७ श्लोक ७९ अर्थात्-चण्डकर्मा कहता है, कि निम्न प्रकार नास्तिक दर्शन की मान्यता स्वीकार करनी चाहिएजब तक जियो तब तक सुख पूर्वक जीवन यापन करो। क्योंकि संसार में कोई भी मृत्यु का अविषय नहीं है। अर्थात्-सभी काल-कवलित होते हैं । भस्म को हुई शान्त देह का पुनरागमन किस प्रकार हो सकता है ? अपितु नहीं हो सकता || ७९ ॥ पश्चात् उनका अनेक प्रवल व अकाटय दार्शनिक युक्तियों द्वारा खण्डन किया गया है (आ. ५ पृ० १५९ श्लोक ९३ ) । यशस्तिलय के अन्तिम तीन आश्वासों ( आ० ६.८ ) में थावकाचार का दार्शनिक पद्धति से अनेक कथानकों सहित साङ्गोपाङ्ग निरूपण है । सोमदेवसुरि ने इसका नाम उपासकाव्ययन रक्खा है; क्योंकि इन्होंने सातवें उपासकाध्ययन अङ्गको आधार बनाकर इसको रचना की है। उपासकाध्ययन में ४६ कल्प हैं। प्रथम वाल्प का नाम 'समस्तसमसिद्धान्ताववोधन' है; क्योंकि इसमें सैद्धान्त बैशेषिक, ताकिक वैशेषिक, पाशुपत, कुलाचार्य, सांख्य, वौद्ध, जैमिनीय, चार्वाक व बेदान्तवादीआदि समस्त दर्शनों की मुक्ति विषयक मान्यताओं की अकाटय युक्तियों से समीक्षा को गई है। यह विषय आ. ६ पृ० १८३. के गद्य से लेकर पृ० १९४ तक है। प्रस्तुत विवेचन सोमदेव का समस्त दर्शन संबंधी तलस्पर्शी अध्ययन का प्रतीक है। इस तरह का दार्शनिक विवेचन उपलब्ध श्रावकाचारों में नहीं मिलता। १. व्यङ्गयोस्प्रेक्षालंकार :। • प्रथा व सोमवेवमूरि:-'इत उत्तरं तु वक्ष्ये भुतपठितमुपासकाध्ययनम् । पा० ५ श्लोक १५५ का अन्तिममरण

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