Book Title: Visheshavashyakbhashya ka Maldhari Hemchandrasuri Rachit Bruhadvrutti ke Aalok me Gyanmimansiya Adhyayan
Author(s): Pavankumar Jain
Publisher: Jaynarayan Vyas Vishvavidyalay
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प्रथम अध्याय विशेषावश्यकभाष्य एवं बृहत्ति : एक परिचय आवश्यकसूत्र
जैनागम साहित्य में आवश्यकसूत्र का विशेष महत्त्व है। इसकी गणना अंग बाह्य सूत्रों में की जाती है। श्रमण चर्या की दृष्टि से यह आगम अत्यन्त उपादेय है। श्रावक-श्राविका वर्ग भी इसका अध्ययन कर अपने जीवन को उन्नत बना सकता है। आवश्यकसूत्र पर नियुक्ति, भाष्य एवं चूर्णि के रूप में व्याख्या-साहित्य प्राप्त होता है। भाष्यकारों में जिनभद्रगणि क्षमाश्रमण का नाम उल्लेखनीय है। जिनभद्रगणि ईसवीय सप्तमशती के महान् जैनाचार्य हुए हैं। इन्होंने विशेषावश्यकभाष्य, बृहत्संग्रहणी, विशेषणवती आदि महत्त्वपूर्ण रचनाएं की हैं, जो आज भी जैन परम्परा में अत्यन्त आदर के साथ पढ़ी जाती हैं। विशेषावश्यकभाष्य एक भाष्यग्रन्थ है जो आवश्यकसूत्र पर लिखा गया है। जिनभद्रगणि के पूर्व आवश्यकसूत्र पर आचार्य भद्रबाहु द्वारा आवश्यकनियुक्ति की रचना की गई थी। इन के पश्चात् जिनभद्रगणि विरचित विशेषावश्यकभाष्य एक महत्त्वपूर्ण ग्रन्थ के रूप में स्वीकृत है। जिनभद्रगणि के इस भाष्य में आवश्यक सूत्र के छह आवश्यकों में से मात्र प्रथम सामायिक आवश्यक की ही विवेचना 3603 प्राकृत गाथाओं में सम्पन्न हुई है। इन गाथाओं पर स्वयं ने वृत्ति लिखी है, जो स्वोपज्ञवृत्ति के नाम से प्रसिद्ध है एवं इसमें विशेषावश्यकभाष्य का रहस्य भलीभांति स्पष्ट हुआ है। कोट्याचार्य ने इस पर विवरण की रचना की है, जो 13700 श्लोक परिमाण है। मलधारी हेमचन्द्र द्वारा विशेषावश्यकभाष्य पर लगभग 28000 श्लोक परिमाण शिष्यहिता नामक बृहद्वृत्ति का आलेखन किया गया है।
सम्प्रति श्वेताम्बर जैन परम्परा में जिनभद्रगणिकृत विशेषावश्यकभाष्य को ज्ञानमीमांसा की दृष्टि से अत्यन्त उपयोगी माना जाता है, क्योंकि इस भाष्य में मतिज्ञानादि पांचों ज्ञानों का सुन्दर निरूपण हुआ है। यहाँ पर आवश्यकसूत्र, उसके व्याख्या साहित्य का परिचय देने के पश्चात् जिनभद्रगणि एवं विशेषावश्यकभाष्य का परिचय आगे इसी अध्याय में दिया जाएगा।
नंदीसूत्र में आवश्यकसूत्र को अंगबाह्य आगमों में प्रथम स्थान दिया गया है। जिनभद्रगणि के अनुसार गणधरों के द्वारा नहीं पूछने पर तीर्थंकर द्वारा जो अभिव्यक्त होता है, अथवा स्थविर आचार्यों द्वारा रचित होता है, वह अंगबाह्य आगम होता है आवश्यक का अर्थ
आत्म-विशुद्धि के लिए अवश्यकरणीय कार्य को आवश्यक कहा जाता है। जीवित रहने के लिए जिस प्रकार श्वास लेना जरूरी है, उसी प्रकार आध्यात्मिक क्षेत्र में जीवन की पवित्रता के लिए जो क्रिया अथवा साधना अनिवार्य है अर्थात् संयम-साधना के अंगभूत जो अनुष्ठान आवश्यकरूप से करणीय है, उसे ही आगम में आवश्यक की संज्ञा से अभिहित किया जाता है। 'आवश्यक'
1. अंगबाहिरं दुविहं पण्णत्तं, तं जहा आवस्सयं च आवस्सयवइरित्तं च। - नंदीसूत्र पृ. 160 2. विशेषावश्यकभाष्य गाथा 550