Book Title: Vikram Pushpanjali
Author(s): Kalidas Mahakavi
Publisher: ZZZ Unknown

View full book text
Previous | Next

Page 11
________________ विक्रम-सूत्र - [ लेखक-श्री रामदत्त शुक्ल भारद्वाज, लखनऊ ] स्वयं वाजिन् तन्वं कल्पयस्व स्वयं यजस्व स्वयं जुषस्व । महिमा तेऽन्येन न संनशे। [यजु० २३।१५] . क्रम क्या है ? क्रम की अपेक्षा से विक्रम क्या है ? क्रम और विक्रम में क्या अंतर है ? । क्रम गति है, विक्रम विशेष गति है। क्रम जीवन में अस्तित्वमात्र का परिचायक है, विक्रम जीवन की सत्ता में चैतन्य का योग है । क्रम अस्ति-भाव है, विक्रम जीवन में चरैवेति की सशक्त भावना के साथ संयुक्त होना है। क्रम पृथिवी के साथ रेंगता है, विक्रम महान् होकर धुलोक को भी नापता है। क्रम की स्थिति भूमि के समानांतर रहतो है, विक्रम का दृढ़ मेरुदंड उर्ध्वस्थित होता है। क्रम वामन है, विक्रम विष्णु की भांति विराट् है। वामन से विराट् में आना ही विक्रम की सच्ची परिभाषा है। क्रम पैरों के नीचे की भूमि को कठिनाई से देखता है, विक्रम तीन पैरों से समस्त ब्रह्मांड को नाप लेता है "इदं विष्णुर्विचक्रमे त्रेधा निदधे पदम्" प्रजापति विष्णु ने सृष्टि-रचना में महान विक्रम किया। अपने तीन पदों से द्यावा पृथ्वी के गंभीर प्रदेश को विष्णु ने मापा। विष्णु के पदों से जो परिच्छिन्न हुआ है, वह संतत विक्रम से प्रभावित है। एक क्षण के लिये भो विष्णु के विक्रमशील कर्म में व्यवधान नहीं होता। __ मनुष्य वामन है, देवत्व विराट् भाव है। मानवी मन विक्रम से युक्त होकर विराट् होता है। साढ़े तीन हाथ की क्षुद्र परिधि से परिवेष्टित मनुष्य का मन जब विक्रम से युक्त होता है, सारे विश्व को नाप लेता है। मनुष्य मर्त्य है, परंतु विक्रम अमृत भाव से युक्त होता है। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com

Loading...

Page Navigation
1 ... 9 10 11 12 13 14 15 16 17 18 19 20 21 22 23 24 25 26 27 28 29 30 31 32 33 34 35 36 37 38 39 40 41 42 43 44 45 46 47 48 49 50 51 52 53 54 55 56 57 58 59 60 61 62 63 64 65 66 67 68 69 70 71 72 73 74 75 76 77 78 79 80 81 82 83 84 85 86 87 88 89 90 91 92 93 94 95 96 97 98 99 100 101 102 103 104 105 106 107 108 109 110 111 112 ... 250