Book Title: Vikram Pushpanjali
Author(s): Kalidas Mahakavi
Publisher: ZZZ Unknown

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Page 10
________________ नागरीप्रचारिणी पत्रिका बैठे हुए का सौभाग्य बैठा रहता है, खड़े होनेवाले का सौभाग्य खड़ा हो जाता है, पड़े रहनेवाले का सौभाग्य सोता रहता है और उठकर चलनेवाले का सौभाग्य चल पड़ता है। इसलिये चलते रहो, चलते रहो। कलिः शयानो भवति संजिहानस्तु द्वापरः । उत्तिष्ठस्त्रेता भवति कृतं सम्पद्यते चरन् । __ चरैवेति, चरैवेति । सोनेवाले का नाम कलि है, अंगड़ाई लेनेवाला द्वापर है, उठकर खड़ा होनेवाला नेता है, और चलनेवाला कृतयुगी होता है। इसलिये चलते रहो, चलते रहो। चरन्वै मधु विन्दति चरन्स्वादुमुदम्बरम् । सूर्यस्य पश्य श्रेमाणं यो न तन्द्रयते चरन् । चरैवेति, चरैवेति । चलता हुआ मनुष्य ही मधु पाता है, चलता हुआ ही स्वादिष्ठ फल चखता है। सूर्य का परिश्रम देखो, जो नित्य चलता हुश्रा कभी आलस्य नहीं करता। इसलिये चलते रहो, चलते रहो। इस गीत का वास्तविक अभिप्राय यह है कि जीवन में सदा चलते रहो, क्योंकि चलने का नाम ही जीवन है। ठहरा हुआ पानी सड़ जाता है, बैठा हुश्रा मनुष्य पापी होता है। बहते हुए पानी में जीवन रहता है, वही वायु और सूर्य के प्राण-भंडार में से प्राण को अपनाता है। पड़ाव डालने का नाम जिंदगी नहीं है। जीवन के रास्ते में थककर सो जाना, या आलसी बनकर बसेरा ले लेना मूर्छा है। जागने का नाम जीवन है। जागृति ही गति है। निद्रा मृत्यु है। अपने मार्ग में बराबर आगे पैर बढ़ाते रहो, सदा 'चलते रहो, चलते रहो' की ध्वनि कानों में गूंजती रहे। वह देखो अनंत आकाश को पार करता हुआ अपरिमित लोकों का परिभ्रमण करता हुआ सूर्य प्रात:काल आकर हममें से प्रत्येक के जीवन-द्वार पर यही अलख जगाता है. 'मेरे श्रम को देखो, मैं कभी चलता हुआ थकता नहीं; ___ इसलिये, चलते रहो, चलते रहो।' Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com

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