Book Title: Varddhaman Mahavira Author(s): Nirmal Kumar Jain Publisher: Nirmalkumar Jain View full book textPage 8
________________ स्वागत हिन्दी साहित्य और विचार क्षेत्र मे इस नये हस्ताक्षर और नवीन प्रतिभा के आगमन की सूचना देने एवं स्वागत करते मझे आन्तरिक हां है। पुस्तिका यह मंक्षिप्त है, केवल दो वार्ताएं और एक काव्यकृति मकलन मे गभित है । परन्नुप्रनिभा की छटा हठात् पाठक को प्रभावित किये बिना न रहेगी। गत दिवाली में दिवाली नक का वर्ष भगवान महावीर निर्वाण की पच्चीमवी शताब्दीका मम्पूनि मम्वत्मर था। इम महावमर को जनोने उनी उल्लाम में मनाया। गाभर का उममे योग रहा। ये वार्ता और काव्यकृति उसी उपलक्ष्य मे लेखक मे अनायामप्राप्त हुई और अब प्रकाश मे आ रही है। वार्ताकार श्री निर्मल मम्प्रदाय के नाते जैन नहीं है, इसलिए वह विशेपण उन पर तनिक भी मीमा नही लाता । उनकी विद्वत्ता अबाधिन और मौन्दर्यबोध मक्त है। उन्होंने हिन्दी में काफी लिखा है और ममानक्षमता में अंग्रेजी में भी वह लिम्बने रहे है । एक वृहद् उपन्याम नयार है और काव्यांग की नो मीमा नही। पर उम मब मामग्री के प्रकाशन के विषय में वे ननिक भी आतुर नहीं, प्रन्यन विमग्न रहे है। अचरज होता है कि वरिष्ठ और व्यम्नप्रशामनाविकारी होने पर भी वे इनना विपुल और श्रेष्ठ माहिन्य कर्म लिम्व पाये। में मोचने लगा था कि जैन धर्म पथ बन गया है, दर्शन मत भर रह गया है। मव नियन और नियक्त है, कुछ निगढ़ बचा नहीं है जहां में नव नवोन्मेप फूटे और नई उद्भावनाएं जगं । निर्मल जी की महावीर जीवन और तन्व की मौलिक व्याख्याओं ने मेरी धारणा को झकझोर डाला है। जैन दर्शन के अनेकानेक पारिभापिक शब्दों के प्रतीक मर्म का इम रूप में उन्होंने उद्घाटन किया है किPage Navigation
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