Book Title: Trishashti Shalaka Purush Charitra Part 1
Author(s): Ganesh Lalwani, Rajkumari Bengani
Publisher: Prakrit Bharti Academy
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२२] के फन की भाँति सुशोभित थीं। उनका ललाट देश अर्धउदित पूनमचन्द्र की भाँति अभिराम था। उनकी सौम्य प्राकृति, मरिण-मुक्ता-सी दन्त पंक्तियाँ एवं नाखून और सुवर्ण कान्तिमय देह मेरुलक्ष्मी को भी निन्दित कर रही थी।
(श्लोक २३९-२४९) एक दिन सुबुद्धि, पराक्रमी और तत्त्वज्ञ विद्याधरपति शतबल एकान्त में बैठे चिन्तन कर रहे थे कि यह शरीर तो स्वभावतः ही अपवित्र है । इस अपवित्रता को नित्य नूतन भाव से सजाकर और कितने दिनों तक ढककर रख सकेंगे ? नाना भाव से नित्य यत्न करने पर भी यदि कभी कुछ प्रयत्न हो जाए तो दुष्ट पुरुष की भाँति शरीर विकृत हो जाता है । कफ, विष्ठा, मूत्रादि के देह से निर्गत होने पर मनुष्य उससे घृणा करता है ; किन्तु जब वह शरीर में रहता है तब उसकी अोर दृष्टि ही नहीं जाती। जीर्ण वृक्ष के कोटर में जिस प्रकार सर्प-वृश्चिक आदि क्रूर प्राणी निवास करते हैं उसी प्रकार इस शरीर में भी यंत्रणादायी अनेक रोग उत्पन्न होते हैं शरत्कालीन मेघ की भाँति यह शरीर स्वभावतः ही नाशवान है, यौवन रूपी लक्ष्मो देखते-देखते ही विद्युत प्रभा की भांति विलीन हो जाती है। आयु ध्वजा की तरह चंचल है। वैभव तरंग-सा तरल । भोग-सुख भुजंग की भाँति वक्र और संगम स्वप्न-सा मिथ्या है । शरीर स्थित अात्मा पिंजरबद्ध प्राणी की भाँति काम, क्रोध रूप अग्नि के ताप में दग्ध होकर पुटपाक की तरह रात दिन पकता रहता है। कितना आश्चर्य ! महादुःखदायी विषय को सुखदायी समझकर विष्ठा में उत्पन्न कीट-सा मनुष्य कभी वैराग्य प्राप्त नहीं करता। परिणामत: दुःखदायी विषय के स्वाद में आबद्ध होकर उसी तरह सिर पर खड़ी मृत्यु को नहीं देख पाता जिस प्रकार अन्धा सम्मुख उपस्थित कुएं को नहीं देख पाता। मधुर विषय के विष के प्रथम आक्रमण में आत्मा मूच्छित हो जाती है। अत: उसका मंगल किसमें है वह यह सोच नहीं पाती। चार पुरुषार्थ यद्यपि समान हैं फिर भी आत्मा पाप रूपी अर्थ और काम पुरुषार्थ में लीन हो जाती है। धर्म और मोक्ष पुरुषार्थ के लिए प्रयत्न नहीं करती। इस दुस्तर संसार समुद्र में जीव के लिए मनुष्य देह रूपी अमूल्य रत्न प्राप्त करना अत्यन्त कठिन है । मनुष्य-शरीर प्राप्त होने पर भी भाग्योदय