Book Title: Trishashti Shalaka Purush Charitra Part 1
Author(s): Ganesh Lalwani, Rajkumari Bengani
Publisher: Prakrit Bharti Academy
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फिर उस पर वे सैन्य सहित नदी के उस पार गए।
(श्लोक २५१-२६६) सिन्धू नदी के समस्त दक्षिणी प्रदेश को जय करने के लिए वे प्रलयकालीन समुद्र की तरह वहां फैल गए। धनुष के निर्घोष से
और युद्ध के कौतुहल में ही लीला करते हुए उन्होंने सिंह की तरह सिंहल देश को जीत लिया। बर्बरों को क्रीतदासों की तरह अपने अधीन कर टंकनों के अश्वों की तरह राजचिह्न से अंकित कर दिया। जल रहित रत्नाकर की भांति माणिक्य पूर्ण यवन द्वीप को उस नरकेशरी ने खेल ही खेल में जय कर लिया। उन्होंने कालेमुख जाति के म्लेच्छों को भी जीत लिया। यह देखकर भोजन के बाद भी उनकी अंगुलियां मुह में ही रहने लगीं। इस प्रकार सेनापति सर्वत्र फैल जाने के कारण जोनक नामक म्लेच्छगण वायु से जैसे वृक्ष पराङ मुख हो जाते हैं उसी प्रकार पराङ मुख हो गए । सपेरा जिस प्रकार सभी प्रकार के सो को वश में कर लेता है उसी प्रकार उन्होंने वैताढय पर्वत के निकटस्थ प्रदेशों में रहने वाले म्लेच्छों की समस्त जातियों को वश में कर लिया। प्रौढ़ प्रताप को अनिवार्य रूप से प्रसारित करने वाला वह सेनापति वहां से आगे बढ़कर सूर्य जिस प्रकार समस्त आकाश में फैल जाता है उसी प्रकार उसने कच्छ देश के समस्त भू-भाग को आक्रान्त कर लिया अर्थात् जय कर लिया। सिंह जिस प्रकार समस्त जंगल को पदानत रखता है उसा प्रकार वह भी समस्त निष्कट प्रदेश को पदानत कर समतल भूमि पर स्वस्थतापूर्वक रहने लगा। पति के पास जिस प्रकार पत्नी जाती है उसी प्रकार म्लेच्छ देश के राजागण उपहार लेकर बड़े भक्ति भाव से सेनापति के पास जाने लगे। किसी ने स्वर्ण गिरि के शिखर परिमाण रत्नराशि दी तो किसी ने चलमान विन्ध्यपर्वत तुल्य हस्ती दिए । किसी ने सूर्याश्व को भी परास्तकारी अश्व दिए, किसी ने अञ्जन निर्मित देवताओं के रथ तुल्य रथ दिए। इसके अतिरिक्त अन्य भी जो सारभूत वस्तुएं थीं वे सभी उन्होंने उपहार स्वरूप दी । कहा भी गया है कि पर्वत से लेकर नदी के पथ पर निर्गत सभी रत्न भी रत्नाकर में ही चले जाते हैं । इस भांति उपहार देकर वे सेनापति से बोले--'पाज से हम आपके प्राज्ञा-पालक बनकर भृत्य की तरह यहां रहेंगे।' सेनापति ने सब का यथोचित सत्कार कर विदा