Book Title: Trishashti Shalaka Purush Charitra Part 1
Author(s): Ganesh Lalwani, Rajkumari Bengani
Publisher: Prakrit Bharti Academy
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२०८] प्रहार से युद्ध करने लगी। कारण जय-लक्ष्मी युद्ध के द्वारा ही प्राप्त होती है। बारह वर्षों तक युद्ध चला। अन्ततः विद्याधर पराजित हुए । भरत ने विजय प्राप्त की। तब उन्होंने करबद्ध होकर भरत को प्रणाम किया और बोले-'हे कुल स्वामी ! जैसे सूर्य से अधिक तेजस्वी कोई नहीं है, वायु से अधिक वेगगामो कोई नहीं है, मोक्ष से अधिक सुखदायी कुछ नहीं है उसी भाँति आपसे अधिक शूरवीर भी कोई नहीं है। हे ऋषभ स्वामी के पुत्र, आपको देखकर हम अनुभव करते हैं कि हम साक्षात् ऋषभ स्वामी को ही देख रहे हैं। अज्ञानवश हमने आपको जो कष्ट दिया उसके लिए आप हमें क्षमा प्रदान करें। कारण आज अापने ही हमें अज्ञान से मुक्त किया है। पहले हम जैसे ऋषभदेव के भृत्य थे उसी प्रकार अब आपके भृत्य हो गए हैं। क्योंकि स्वामी की भाँति ही स्वामी पुत्रों की सेवा भी लज्जाजनक नहीं होती। हे महाराज, उत्तर और दक्षिण भरत के मध्य अवस्थित वैताढय के दो भागों में हम दुर्ग रक्षकों की तरह अापकी आज्ञा का पालन करेंगे।'
(श्लोक ५०६-५१४) फिर राजा विनमि यद्यपि राजा को कुछ उपहार देना चाहते हों तब भी मानो कुछ प्रार्थना भी कर रहे हों इस प्रकार उन्हें नमस्कार कर करबद्ध होकर लक्ष्मी स्वरूपा स्त्रियों में रत्न स्वरूपा अपनी सुभद्रा नामक कन्या चक्री को उपहार में दी। (श्लोक ५१५)
सुभद्रा की आकृति इस प्रकार समचतस्र थी मानो उसे परिमाप कर ही निर्मित किया हो। उसकी कान्ति इतनी प्रदीप्त थी मानो त्रिलोक माणिक्य की पुज हो। यौवन भार से एवं चिरकाल सुन्दर केश, नखों से वह इस प्रकार शोभित हो रही थी मानो वह कृतज्ञ सेवकों से परिवृत हो। दिव्य औषधि की भाँति वह समस्त रोग शान्त कर सकती थी। दिव्य जल की भाँति वह इच्छानुकल शीत और ऊष्ण स्पर्शयुक्त हो सकती थी। वह तीन स्थानों पर कृष्ण, तीन स्थानों पर श्वेत और तीन स्थानों पर ताम्रवर्णा थी। तीन स्थान पर उन्नत, तीन स्थान पर गम्भीर, तीन स्थान पर विस्तीर्ण और तीन स्थान पर कृश थी। अपने केश-कलाप से वह मयूर के कलाप को भी निन्दित कर रही थी और ललाट से अष्टमी के चन्द्र को पराजित । उनके नेत्र रति और प्रीति के कीड़ा-सरोवरसे थे। उसके सुन्दर गण्डदेश नवीन दर्पण-से थे। स्कन्ध-स्पर्शी