Book Title: Trishashti Shalaka Purush Charitra Part 1
Author(s): Ganesh Lalwani, Rajkumari Bengani
Publisher: Prakrit Bharti Academy

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Page 289
________________ २८० ] उपकारकारी बन्धु के समान भगवान् स्वयं दीक्षा देते । ( श्लोक २३-२८ ) इस प्रकार प्रभु के साथ प्रवजनकारी मरीचि के शरीर में एक दिन काठ में जैसे घुन लग जाता है उसी प्रकार एक महा व्याधि उत्पन्न हो गयी । यूथभ्रष्ट कपि को तरह व्रत भ्रष्ट मरीचि का उनके साथी साधुनों ने प्रतिपालन नहीं किया । ऊख का खेत जैसे रक्षकहीन होने पर शूकर आदि पशुओं द्वारा क्षतिग्रस्त हो जाता है उसी प्रकार सेवा-शुश्रूषा न होने पर मरीचि के लिए वह व्याधि अत्यधिक दुःखदायी हो गयी । वृहद् अरण्य में सहायहीन पुरुष की तरह घोर व्याधि से प्राक्रान्त मरीचि अपने मन में विचार करने लगा - हाय ! मेरे इसी भव में किसी अशुभ कर्म का उदय हुआ है इसलिए अपने साधु ही अन्य की तरह मेरी उपेक्षा करते है । किन्तु उल्लू जैसे दिन में नहीं देख पाता उसमें प्रकाशकारी सूर्य का कोई दोष नहीं है । कारण उत्तमकुल सम्पन्न जिस प्रकार म्लेच्छ की सेवा नहीं करते उसी प्रकार पाप कर्म करने वाले की सेवा कैसे करेंगे ? फिर उनसे सेवा करवाना भी मेरे लिए उचित नहीं है । कारण, व्रत भंग से मुझे जो पाप लगा है। उनसे सेवा कराने से उसमें और वृद्धि ही होगी । मेरी सेवा शुश्रूषा के लिए तो मेरे ही जैसे कोई मन्द धर्मात्मा व्यक्ति का सम्बन्ध करना होगा कारण मृग के साथ मृग का ही मिलान होगा। ऐसा विचार करते-करते कुछ दिन बाद मरीचि रोग मुक्त हो गए। कहा भी गया है कि ऊषर भूमि भी कभी-कभी अपने आप उपजाऊ हो जाती है । ( श्लोक २९-३८ ) एक समय भगवान ऋषभदेव विश्व के उपकार के लिए जो वर्षाकालीन मेघ की तरह हैं, देशना दे रहे थे । वहां कपिल नामक कोई भव्य राजकुमार आया और धर्म श्रवण किया । भगवान कथित वह धर्म चन्द्रिका जैसे चक्रवाक को, दिवस जैसे उल्लू को, श्रौषध जैसे भाग्यहीन रोगी को, शीतल पदार्थ जैसे वातरोगी को श्रौर मेघ जैसे बकरे को अच्छा नहीं लगता उसी प्रकार उसे अच्छा नहीं लगा । अन्य रूप धर्म सुनने की इच्छा से कपिल इधर-उधर देखने लगा । प्रभु की शिष्य मण्डली में तभी उसे विचित्र वेषधारी मरीचि दिखाई पड़ा । कुछ खरीदने की इच्छा से बालक जैसे बड़ी दुकान से छोटी दुकान पर जाता है उसी प्रकार अन्य धर्म श्रवण के लिए इच्छुक कपिल प्रभु के निकट से उठकर मरीचि के पास गया ।

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