Book Title: Trishashti Shalaka Purush Charitra Part 1
Author(s): Ganesh Lalwani, Rajkumari Bengani
Publisher: Prakrit Bharti Academy
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[२८३ महात्मा प्रत्येक ग्राम और नगर के भव्य जीवों को प्रतिबोध देते ।
इस प्रकार विचरण करते हुए भगवान् ऋषभदेव एक बार बार अष्टापद पर्वत पर गए।
(श्लोक ५३-७७) वह पर्वत अत्यन्त श्वेत होने से लगता जैसे शरद्कालीन मेघमाला का एकत्र पुज हो या हिमीभूत क्षीरसमुद्र की राशिकृत तरंग हो अथवा प्रभु के जन्माभिषेक के समय इन्द्र द्वारा रचित चार वृषभों के उच्च शृङ्गयुक्त एक वृषभ हो। वह पर्वत इस प्रकार शोभा पा रहा था मानो वह नन्दीश्वर द्वीप के सरोवर में स्थित दधिमुख पर्वत से अागत एक पर्वत हो या जम्बूद्वीप रूपी कमल की एक नाल या पृथ्वी का श्वेत रत्नमय मुकुट हो। वह निर्मूल और प्रकाशशील था अत: ऐसा लगता कि देव सर्वदा उसे स्नान कराते हों और वस्त्र से पोंछते हों। हवा में प्रवाहित होकर आई कमल-रेणु से उसके निर्मल स्फटिक मणियों के तट को रमणियाँ नदी प्रवाह समान देखती थीं। उसके शिखर के अग्रभाग में विश्राम निरत विद्याधर पत्नियों को वह वैताढय और क्षुद्र हिमालय पर्वत को याद करवाता । ऐसा लगता जैसे वह स्वर्गभूमि का दपेण हो, दिकसमूह का अतुल हास्य हो एवं ग्रह नक्षत्र निर्माण करने की मिट्टी का अक्षय स्थल हो । उस शिखर के मध्य भाग में क्रीड़ा-श्रान्त मृग बैठे थे उससे वह मृग लांछन का (चन्द्रमा का) भ्रम उत्पन्न कर रहा था। निर्झरिणी पंक्तियों से वह इस प्रकार शोभता था मानो वह निर्मल अर्द्धवस्त्र परित्याग कर देता हो अथवा सूर्यकान्त मरिण की प्रसारित किरणों से वह उच्च पताका युक्त हो। उसके उच्च शिखर के अग्रभाग पर सूर्य का संक्रमण होता । इससे वह सिद्धों की मुग्ध बधुओं को उदयाचल का भ्रम उत्पन्न करवाता । मानो मयूर पंखों से निर्मित वृहद् छत्र हो ऐसे अति आर्द्रपत्र वृक्षों की उस पर निरन्तर छाया रहती थी।
(श्लोक ७८-८९) खेचर स्त्रियाँ कौतुकवश मृग-शावकों का लालन-पालन करतीं। इससे हरिणियों के झरते हुए दूध से उनके कुज सिंचित होते । कदलीपत्र में अर्द्ध वस्त्रावृत शबरी रमणियों के नृत्य देखने के लिए नगर नारियाँ वहाँ नेत्रों की पंक्तियाँ रचती अर्थात् अपलक नेत्रों से देखती। रतिश्रान्त सपिरिणयाँ वहाँ वन की मन्द-मन्द पवन पान करतीं। वहाँ के निकुज वल्लरियों को पवन रूपी नट क्रीड़ा