Book Title: Trishashti Shalaka Purush Charitra Part 1
Author(s): Ganesh Lalwani, Rajkumari Bengani
Publisher: Prakrit Bharti Academy
View full book text
________________
११४] रहे थे। वे नदियों को पंकिल, सरोवर को शुष्क एवं कुओं एवं वापियों को पाताल छिद्र की तरह शून्य करते हुए अग्रसर हो रहे थे। इस प्रकार अविनयी शत्रु को दण्ड देने वाले महाराज मलयानिल की तरह प्रजा-पुज को प्रानन्द देते हुए धीरे-धीरे अयोध्या के निकट पहुंचे। वहां उन्होंने छावनी डालने का आदेश दिया। वह छावनी जैसे अयोध्या के अतिथि रूप में प्रागत सहोदर-सी लग रही थी। तदुपरान्त राज-शिरोमणि भरत ने मन ही मन अयोध्या का ध्यान कर निरुपद्रव की प्रतीति दिलाने वाला अष्टम तप किया। तप के पश्चात् पौषधशाला से निकलकर चक्रवर्ती ने अन्य राजाओं के साथ दिव्य भोजन से पारणा किया। (श्लोक ५८८-६१०)
उधर अयोध्या में स्थान-स्थान पर दिगन्तों से प्रागत लक्ष्मी के हिंडोलों से ऊँचे-ऊँचे तोरण निर्मित होने लगे। तीर्थंकर के जन्म समय देवता जिस प्रकार सुगन्धित जल बरसाते हैं उसी प्रकार नगरवासी प्रत्येक पथ पर केशर जल की वर्षा करने लगे। मानो निधि स्वयं अनेक रूप धारण कर पूर्व ही आ गई हो ऐसे मंच स्वर्ण स्तम्भों पर निर्मित होने लगे। उत्तर कुरु के पाँच सरोवरों के दोनों पोर अवस्थित दस स्वर्ण पर्वत जैसे शोभा पाते हैं उसी प्रकार पथ के दोनों ओर आमने-सामने निर्मित रत्नमय तोरण इन्द्रधनुष की शोभा को भी पराजित कर रहे थे। गन्धर्व सेना जिस प्रकार विमान में उपवेशित होती है उसी प्रकार गीत गाने वाली रमणियाँ, मृदंग और वीणा बजाने वाले गन्धर्वो के साथ उस मंच पर बैठने लगीं। उस मंच पर चन्द्रातप से लटकती हुई मुक्तामालाएँ लक्ष्मी के निवास गृह-सी कान्ति से दसों दिशानों को प्रकाशित करने लगीं। जैसे प्रमोद प्राप्त नगर देवी का हास्य हो इस प्रकार चमर से, स्वर्गमण्डनकारी चित्र से, कौतुकागत नक्षत्र रूप दर्पण से, खेचरों के हस्तबस्त्रों की भाँति सुन्दर-सुन्दर बस्त्रों से और लक्ष्मी देवी की मेखला के समान विचित्र मणिमालाओं से और उच्च निमित स्तम्भों से नगरवासी दुकानों की शोभा द्वित करने लगे। लोगों द्वारा विलम्बित घुघरूयुक्त पताकाए सारस पक्षी की मधुर ध्वनि से गुजरित शरद् ऋतु के आगमन की सूचना देने लगीं। व्यवसायीगण गृह और दुकानों में यज्ञ कर्दम लेपन कर गृहांगन में मुक्ता के स्वस्तिक रचने लगे। जगह-जगह रक्षित अगुरु चन्दन के चूर्ण से भरे धूपदानों से निर्गत जो धुआँ ऊपर की ओर जा रहा था देखकर