Book Title: Trishashti Shalaka Purush Charitra Part 1
Author(s): Ganesh Lalwani, Rajkumari Bengani
Publisher: Prakrit Bharti Academy

View full book text
Previous | Next

Page 236
________________ [२२७ ही युद्ध करना उचित है। राग-द्वेष और मोह-कषाय शत-शत जन्मों से जीव को क्षति पहुंचाने वाले और महाशत्रु हैं । राग सद्गतिबाधक लौह शङ्खला की तरह बन्धनकारी है । द्वेष नरक निवास के बलवान न्यास की तरह है। मोह संसार-समुद्र के प्रावर्त्त में निक्षेपकारी और कषाय अग्नि-तुल्य स्व-प्राश्रित व्यक्तियों के लिए दग्धकारी है। इसलिए मनुष्यों के लिए उचित है कि वे अविनाशी उन उन अस्त्रों की सहायता से निरन्तर युद्ध कर शत्रुओं पर विजयलाभ करें और सत्यशरणभूत धर्म की सेवा करें ताकि शाश्वत प्रानन्दमय पद की प्राप्ति सुलभ हो सके। यह राज्यलक्ष्मी अनेक योनियों में निक्षेपकारी, अत्यन्त दु:खदायक, अभिमानरूप फलप्रदानकारी और नाशवान है । वत्सगण, पूर्वजन्म के स्वर्ग सुखों से भी तुम्हारी तृष्णा तृप्त नहीं हुई तो कोयला बनाने वाले को भांति मनुष्य सम्बन्धी भोगों से वह कैसे पूर्ण होगी? (श्लोक ८२७-८३५) _ 'कोयला बनाने वाले की कहानी इस प्रकार है-कोयला बनाने वाला कोयला बनाने के लिए जल की मशक लेकर अरण्य में जाता है । वह दोपहर की धूप में और अग्नि के उत्ताप से पिपासात होकर साथ लाया हुआ मशक का समस्त जल पी जाता है। फिर भी उसकी प्यास नहीं बुझी । तब वह सो गया। सोया-सोया वह स्वप्न देखता है जैसे वह घर लौट गया है । वहां हांडी, कलश कुञ्जों आदि में जो जल था उसे भी वह पी गया। फिर भी तेल से जिस प्रकार अग्नि की तृष्णा शान्त नहीं होती उसी भांति उसकी प्यास भी शान्त नहीं हुई। तब उसने वापी, कुए और सरोवरों के जल पीकर उन्हें शुष्क कर डाला। फिर नदी और समुद्र का जल पीकर उन्हें शुष्क बना दिया। इतना होने पर भी नारकी जीवों की तृष्णा की वेदना-सी उसकी पिपासा शान्त नहीं हुई। तब उसने मरुदेश में जाकर, तृण एकत्र कर बांधा और उन्हें रस्सी की सहायता से मरुदेश के कुएं में उतार दिया। कारण, पीड़ित व्यक्ति क्या नहीं करता? कुए में जल बहुत गहरा था अतः तृणों में लगा जल बीच राह में ही झर गया। फिर भी भिखारी जिस प्रकार तेल में भीगे पत्ते को निचोड़ कर चाटता है उसी प्रकार उस तृणसमूह को निचोड़ कर वह चाटने लगा; किन्तु जो पिपासा समुद्र के जल से भी शान्त नहीं हुई वह तृणों में लगे जल से कैसे शान्त हो सकती थी ?' (श्लोक ८३६-८४३)

Loading...

Page Navigation
1 ... 234 235 236 237 238 239 240 241 242 243 244 245 246 247 248 249 250 251 252 253 254 255 256 257 258 259 260 261 262 263 264 265 266 267 268 269 270 271 272 273 274 275 276 277 278 279 280 281 282 283 284 285 286 287 288 289 290 291 292 293 294 295 296 297 298 299 300 301 302 303 304 305 306 307 308 309 310 311 312 313 314 315 316 317 318 319 320 321 322 323 324 325 326 327 328 329 330 331 332 333 334 335 336 337 338