Book Title: Trishashti Shalaka Purush Charitra Part 1
Author(s): Ganesh Lalwani, Rajkumari Bengani
Publisher: Prakrit Bharti Academy
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फिर चक्री ने सुषेण को 'खण्ड प्रपाता गुहा के द्वार खोलो' आदेश दिया। सेनापति ने मन्त्र की तरह नाटयमाल देव का मन ही मन ध्यान किया। तदुपरान्त अष्टम तप कर पौषधशाला में जाकर पौषधवत ग्रहण किया। अष्टम तप के अनन्तर उन्होंने पौषधशाला से निर्गत होकर प्रतिष्ठा कार्य में श्रेष्ठ प्राचार्य जैसे बलि-विधान करते हैं उसी प्रकार बलि-विधान किया। फिर प्रायश्चित और कौतुकमंगल कर बहुमूल्यवान् स्वल्प वस्त्र धारण कर हाथ में धूपदान लिए उस गुहा के निकट पाए । गुहा को देखते ही पहले तो उसे नमस्कार किया फिर उसका द्वार खोलने के लिए सात-पाठ कदम पीछे जाकर मानो दरवाजे की कुजी हो ऐसे सुवर्ण दण्ड को हाथ में लेकर दरवाजे पर प्रहार किया। सूर्य किरण से जैसे कमल विकसित होता है वैसे ही दण्डरत्न के प्राघात से दोनों दरवाजे खुल गए।
(श्लोक ५५७-५६१) गुहाद्वार खुलने की सूचना सेनापति ने चक्रवर्ती को दी। तव भरत चक्रवर्ती हस्तीपृष्ठ पर आरूढ़ होकर दाहिने स्कन्ध पर मणिरत्न रख गुहा में प्रविष्ट हुए। राजा भरत अन्धकार विनष्ट करने के लिए तमिस्रा गुहा की भांति इस गुहा में भी कांकिणी रत्न से मण्डल रचना कर अग्रसर हो रहे थे और सैन्य-दल उनके पीछे-पीछे बढ़ रहा था। जिस प्रकार दो सखियां तीसरी सखी से मिलती हैं उसी प्रकार गुहा को पश्चिमी दीवार से बहिर्गत होकर पूर्व दिशा की दीवार के नीचे से प्रवाहित उन्मग्ना और निमग्ना नामक दो नदियां गङ्गा में मिलती थीं। वहां उपस्थित होकर तमिस्रा गुहा की तरह ही इन दोनों नदियों पर सेतु निर्माण कर चक्रवर्ती भरत ने सैन्य सहित उन नदियों को पार किया। सैन्य के शूल प्रहार से या वैताढय पर्वत की प्रेरणा से मानो गुहा के दक्षिण द्वार उसी मुहूर्त में स्वतः ही खुल गए। केशरी सिंह की भांति उन नर केशरी भरत ने गुहा से निकल कर गङ्गा के पश्चिम तट पर छावनी डाली।
(श्लोक ५६१-५६७) वहां नव निधि के उद्देश्य से पृथ्वीपति ने पूर्व कृत तप के द्वारा प्राप्त लब्धि से प्राप्तव्य लाभ के मार्ग को निर्देश करने वाला अष्टम तप किया। अष्टम तप के अवसान में नवनिधि प्रकट हुई और महाराज के समीप पहुंची। एक-एक लब्धि एक-एक हजार यक्षों