Book Title: Trishashti Shalaka Purush Charitra Part 1
Author(s): Ganesh Lalwani, Rajkumari Bengani
Publisher: Prakrit Bharti Academy
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किया । फिर जिस प्रकार वे आए थे उसी प्रकार सुखपूर्वक सिन्धु के उस पार लौट गए । कीर्ति रूपी लता के दोहद तुल्य म्लेच्छों से प्राप्त समस्त उपहार सेनापति ने चक्रवर्ती को समर्पित किए। कृतार्थ चकी ने भी सेनापति का बहुमान कर विदा दी । वे सहर्ष अपने स्थान को लौट गए । ( श्लोक २६७ - २८३ ) राजा भरत वहां अयोध्या की भांति ही सुखपूर्वक रहने लगे । कारण, सिंह जहां भी जाता है वहीं उसका निवास बन जाता है । एक दिन उन्होंने सेनापति को बुलाकर आदेश दिया- 'गुफा का दरवाजा खोलो ।' सेनापति ने उनकी आज्ञा को माला की भांति मस्तक पर धारण किया और तमिस्रा गुफा के द्वार पर आकर उपस्थित हुए । तमिस्रा के अधिष्ठाता कृतमाल देव को स्मरण कर उन्होंने अट्ठम तप किया। क्योंकि समस्त सिद्धियों की मूल तपस्या ही होती है । तदुपरान्त स्नान कर श्वेत वस्त्र रूपी पंख धारण कर इस प्रकार स्नानागार से निकले जैसे राजहंस स्नान कर सरोवर से बाहर निकलते हैं । फिर सुन्दर नील कमल-सा स्वर्ण धूपदान हाथ में लेकर तमिस्रा के द्वार पर आए । प्रथम उन्होंने द्वार को प्रणाम किया । कारण, शक्तिवान महान् पुरुष पहले सामनीति प्रयोग में लाते हैं। वहां वैताढ्य पर्वत पर विचरने वाली विद्याधर पत्नियों को स्तम्भन करने के लिए औषध रूप महाद्धिक प्रष्टाका महोत्सव किया एवं मान्त्रिक जैसे मण्डल तैयार करता है उसी प्रकार सेनापति ने वहां प्रखण्ड क्षतों से प्रष्ट मांगलिकों की रचना की फिर इन्द्र के वज्र की भांति शत्रुनाशकारी चक्रवर्ती का दण्डरत्न हाथ में लेकर दरवाजे पर आघात करने के लिए सात प्राठ कदम पीछे हटे । कारण, हाथी भी प्रहार करने के लिए पीछे हटता है । फिर सेनापति ने उसी दण्डरत्न से दरवाजे पर चोट की । उससे समस्त गुफा यन्त्र की भांति ध्वनित हुई और उसी मुहूर्त्त में वैताढ्य पर्वत के मुद्रित नेत्र की भांति मजबूती से बन्द वे वज्र निर्मित किवाड़ खुल गए । दण्ड के प्राघात से खुलते हुए वे किवाड़ इस प्रकार आवाज कर रहे थे मानो वे क्रन्दन कर रहे हों । उत्तर दिशा के भरत खण्ड को जय करने जाने में मंगल रूप उन किवाड़ों के खुल जाने की बात सेनापति ने जाकर चक्रवर्ती से कही । यह सुनकर हस्ती रत्न पर आरूढ़ होकर महापराक्रमी महाराज भरत ने चन्द्रमा की भांति तमिस्रा गुफा में प्रवेश किया । ( श्लोक २८४ - २९९ ) अंगुल प्रमाण और
प्रवेश करने के समय नरपति ने चार