Book Title: Trishashti Shalaka Purush Charitra Part 1
Author(s): Ganesh Lalwani, Rajkumari Bengani
Publisher: Prakrit Bharti Academy
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ही धिक्कार है ! इनका जीवन उसी प्रकार व्यर्थ बीत जाता है जैसे निद्रा रहित मनुष्यों की रात्रि व्यर्थ व्यतीत होती है । सत्य ही कहा गया है - राग, द्वेष और मोह उद्योगी प्राणी के धर्म- मूल को उसी प्रकार कुतर देता है जैसे वृक्ष की जड़ को चूहा विनष्ट कर देता है । मोहान्ध जीव वट-वृक्ष की भांति क्रोध को विस्तृत कर देता है । यही क्रोध जो उसे वद्धित करता है उसी को समूल ग्रस लेता है । मान पर श्रारूढ़ व्यक्ति हाथी पर प्रारूढ़ व्यक्ति की तरह किसी की भी परवाह न कर मर्यादा का लंघन करता है ।
दुराशय प्राणी कोंच बीज की फली की भांति उत्पातकारी माया का परित्याग नहीं करते । तुषोदक से जिस प्रकार दूध नष्ट हो जाता है, काजल से जिस प्रकार उज्ज्वल वस्त्र मलिन हो जाता है उसी प्रकार लोभ से जीव अपने उत्तम गुणों को मलिन कर देता है । जब तक इस संसार रूपी बन्दी गृह के चार कषाय रूपी चौकीदार जागृत रहकर प्रांख गड़ाए हैं तब तक मोक्ष कैसे प्राप्त हो ? हाय ! प्रिया के आलिंगन में बद्ध मनुष्य भूतग्रस्त की भांति क्षीयमान आत्मा को देख नहीं पाते हैं । औषधि से सिंह को जैसे नोरोग किया जाता है उसी प्रकार मनुष्य भी नानाविध खाद्य सामग्री से स्वयं ही अपनी आत्मा को उत्मादित कर देता है । सिंह के नीरोग होने पर जिस प्रकार वह स्वस्थ बनाने वाले पर ही प्रक्रमण करता है उसी प्रकार प्राहारादि द्वारा परिपुष्ट इन्द्रिय ग्रात्मा को उन्मादी कर भव भ्रमण का कारण रूप बनाता है । यह सुन्दर है, सुगन्धित है, यह नहीं है किसे ग्रहण करूँ यह विचार कर लम्पट मूढ़ होकर भ्रमर की भांति भ्रमण करता रहता है उसे कभी सुख नहीं मिलता। बालक को जिस प्रकार खिलौना देकर भुलावे में डाला जाता है उसी प्रकार सुन्दर वस्त्रों से वह अपनी आत्मा को भी भुलावे में डालता है । निद्रित मनुष्य जिस प्रकार शास्त्रचिन्तन से वंचित रहता है उसी प्रकार वीणा - वेणु के गीत स्वर से दत्तकर्ण होकर मनुष्य अपने स्वार्थ से ही भ्रष्ट होता है । एक साथ कुपित त्रिदोष -वात, पित्त, कफ — की भांति उन्मत्त होकर विषय द्वारा जीव स्वयं की चेतना को खो देता है । अतः उन्हें धिक्कार !
( श्लोक १०१७-१०३३)
इस प्रकार जब प्रभु का मन संसार से विरक्त होकर चिन्ता