Book Title: Trishashti Shalaka Purush Charitra Part 1
Author(s): Ganesh Lalwani, Rajkumari Bengani
Publisher: Prakrit Bharti Academy
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सभी दिशाएं प्रसन्न हो उठीं। सुखद पवन प्रवाहित होने लगा। यहां तक कि नारक प्राणियों ने भी एक क्षण के लिए सुख की अनुभूति की।
(श्लोक ३८९-३९८) ___ इसी समय सर्व इन्द्रों के अासन कम्पायमान होने लगे मानो वे स्वामी का केवल ज्ञान प्राप्ति उत्सव करने के लिए उन्हें उद्बोधित कर रहे हों। समस्त देवलोकों में मधुर शब्दकारी घण्टे बजने लगे मानो वे अपने-अपने देवलोक के देवताओं का आह्वान करने का कार्य कर रहे हों । प्रभु चरणों में उपस्थित होने की इच्छा वाले सौधर्मेन्द्र के चिन्तन करते ही ऐरावत नामक देव गज रूप धारण कर उसी मुहर्त में वहां पाया। उसने अपने शरीर को एक लाख योजन विस्तृत किया। वह ऐसा लग रहा था मानो प्रभु के दर्शनों का इच्छुक चलता हुअा मेरु पर्वत हो। अपने शरीर की हिमखण्ड सी कान्ति से वह हस्ती चारों ओर चन्दन का लेप करता. सा प्रतीत हो रहा था । अपने गण्डस्थल से झरते हुए मदजल से वह मानो स्वर्ग की कुट्टिम भूमि को कस्तूरी समूह से अंकित कर रहा था। उसके दोनों कान पंखों की तरह हिल रहे थे मानो अपने गण्डस्थल से प्रवाहित मद जल की सुगन्ध से अन्ध भ्रमर समूह को वे निवारित कर रहे थे । निज कुम्भस्थल की दीप्ति से वह बाल सूर्य को पराजित कर रहा था। क्रमशः गोलाकार और पुष्ट सूड से वह नागराज का अनुकरण कर रहा था। उसके नेत्र और दांत मधु-सी कान्ति सम्पन्न थे। उसका गला भेरी की तरह गोल और सुन्दर था । शरीर का मध्य भाग विशाल था। पीठ थी प्रत्यंचा पर आरोपित धनुष-सी वक्र । उदर था कृश। (श्लोक ३९९-४०८)
__ वह चन्द्रमण्डल-से नखमण्डल से सुशोभित था। उसका निःश्वास था दीर्घ और सुगन्धित । उसका करांगुल दीर्घ और दोलायमान था। उसके प्रोष्ठ, गुह्य इन्द्रिय और पूछ बहुत बड़ी थी। दोनों ओर स्थित सूर्य और चन्द्र से जिस प्रकार मेरु पर्वत अंकित होता है उसी प्रकार दोनों ओर दोलायमान दो घण्टों से वह अंकित था । उसके दोनों ओर की रस्सी देव वृक्ष के पुष्पों से गुथी हुई थी। ग्राठों दिग-लक्ष्मियों की विभ्रम भूमि हो ऐसे स्वर्ण पत्रों से सज्जित उसके आठ ललाट और मुख शोभित हो रहे थे। वृहद् पर्वत के शिखर तुल्य दृढ़ कुछ वक्र पाठ-पाठ दाँत उसके प्रत्येक मुख में शोभा