Book Title: Trishashti Shalaka Purush Charitra Part 1
Author(s): Ganesh Lalwani, Rajkumari Bengani
Publisher: Prakrit Bharti Academy
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१८२] किया । उस दिन भी एक योजन गमनकारी चक्र के पीछे एक योजन पथ अतिक्रम किया। इस प्रकार सदैव एक योजन चलते हुए चक्र के पीछे-पीछे भरत मगध तीर्थ पर पाए । वहां पूर्व समुद्र के तट पर छावनी डाली। वह स्थान बारह योजन दीर्घ और नौ योजन चौड़ा था। वर्द्धकिरत्न ने वहां सैनिकों के लिए ग्रावास निर्मित किए। धर्मरूप हस्ती की शालारूप पौषध शालाएं भी बनाई। सिंह जैसे पर्वत से उतरता है उसी प्रकार महाराज भरत पौषधशाला में रहने की इच्छा से हस्ती पृष्ठ से नीचे उतरे । संयम रूपी साम्राज्य लक्ष्मी के सिंहासन जैसा दर्भ का नवीन संथारा वहां बिछवाया। उन्होंने हृदय में मागध तीर्थ कुमार देव को धारण कर सिद्धि के आदि द्वार रूप अष्टम भक्त (बेला) तप किया। फिर निर्मल वस्त्र धारण कर अन्य वस्त्र,पुष्पमाला और विलेपनादि एवं स्त्र-शस्त्रादि परित्याग कर पुण्य पोषण के लिए औषध तुल्य पौषधवत ग्रहण किया। अव्यय पद मोक्ष में जैसे सिद्धगण रहते हैं उसी प्रकार दर्भासन पर औषधव्रती महाराज भरत ने जागृत और क्रिया रहित होकर अवस्थान किया। अष्टम तप के अन्त में पौषधवत परिपूर्ण कर शरद्कालीन मेघ के भीतर से सूर्य जैसे बाहर निकलता है उसी प्रकार अधिक कान्तिवान् भरत पौषधशाला से बाहर आए और सर्व सिद्धि प्राप्त उन्होंने स्नान कर बलि कर्म किया। कारण, विधिज्ञाता पुरुष कभी नहीं भूलते ।
(श्लोक ७८-८८) फिर उत्तम रथी राजा भरत पवन की भांति वेग सम्पन्न और सिंह की भांति तेजस्वी अश्ववाहित सुन्दर रथ पर चढ़े । वह रथ चलने के समय प्रासाद की तरह लगता था। उस में पताका समन्वित उच्च ध्वज-स्तम्भ था। अस्त्रागार की तरह वह अनेक अस्त्रों से सुसज्जित था। उस रथ के चारों दिशाओं में चार घण्टे लगे थे। उसके शब्द मानो चारों ओर की विजय लक्ष्मी को पुकार रहे थे। तभी इन्द्र के सारथी मातलि की तरह राजा के मनोभावों के ज्ञाता सारथी ने वल्गा प्राकृष्ट कर अश्वों को दौड़ाया। राजा भरत द्वितीय समुद्र की भांति समुद्र के किनारे पाए । इस समुद्र में हस्तीरूप पर्वत थे । वृहद्-वृहद् शकट रूपी मकर थे। चपलगति अश्वरूपी तरंग थी। विचित्र अस्त्ररूपी भयंकर सर्प थे। पथ से उठती रज रूपी वेला भूमि थी और रथ का घर्घर समुद्र गर्जन तुल्य था। फिर मत्स्यों के शब्दों से जिसका गर्जन और बढ़