Book Title: Trishashti Shalaka Purush Charitra Part 1
Author(s): Ganesh Lalwani, Rajkumari Bengani
Publisher: Prakrit Bharti Academy
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के पीछे-पीछे चलते हुए भरत चक्रवर्ती समुद्र के दक्षिणी तट स्थित सिन्धु नदी के कूल पर आ पहुंचे। उसके किनारे-किनारे पूर्व की पोर जाकर सिन्धु देवी के 'प्रासाद के पास स्कन्धावार डाला। वहां सिन्धु देवी को स्मरण कर अष्टम तप किया। उससे पवन वेग से जैसे लहरें उठती हैं उसी प्रकार सिन्धु देवी का पासन कम्पित हुप्रा। अवधि ज्ञान से यह जानकर कि चक्रवर्ती पाए हैं अनेक दिव्य उपहार लेकर उनकी पूजा और सम्मान करने के लिए वह सम्मुख उपस्थित हई । वह आकाश से जय-जय शब्द से आशीर्वाद देती हुई बोली'हे चक्री, मैं आपकी सेविका बनकर यहां रहती हूँ। आप अाज्ञा दीजिए, मैं उसका पालन करूंगी।' फिर उसने लक्ष्मी देवी के सर्वस्व सम्पद स्वरूप रत्न भरे एक हजार पाठ कलश, कीत्ति और लक्ष्मी जिस पर एक साथ बैठाई जा सके ऐसे दो रत्न भद्रासन, अनन्तनाग के मस्तक स्थित मणियों द्वारा निर्मित ऐसे देदीप्यमान रत्नमय भुजबन्ध, मध्य भाग में सूर्य की कान्ति को ही मानो बैठा दिया हो ऐसे वलय और मुट्ठी में समा जाने वाले ऐसे दिव्य सुकोमल वस्त्र चक्रवर्ती को उपहार में दिए । सिन्धु-राज को भाँति महाराज भरत ने समस्त द्रव्य ग्रहण कर लिए और मधुर वाक्यालाप से देवी को विदा किया। फिर पूर्णिमा के चाँद जैसे सुवर्ण पात्रों में अष्टम तप का पारना किया और वहाँ देवी का अष्टाह्निका महोत्सव कर चक्र प्रदर्शित पथ पर प्रयाण किया।
(श्लोक २१५-२२६) उत्तर और पूर्व दिशा के मध्य (ईशान कोण) चलते-चलते अनुक्रम से वे दोनों भारतार्द्ध की मध्य सीमा रूप वैताढय पर्वत के निकट जा पहुंचे। उस पर्वत के दक्षिणी भाग में जैसे कोई नवीन द्वीप हो ऐसा लम्बाई-चौड़ाई से सुशोभित स्कन्धावार सन्निवेशित किया गया। पृथ्वीपति ने वहाँ अष्टम तप किया। इससे वैताढ्य दिक्कुमार का आसन कम्पित हुआ । अवधिज्ञान से वे जान गए कि भरत क्षेत्र में प्रथम चक्रवर्ती उत्पन्न हुए है । तब वे आकाश में स्थित होकर बोले-'हे प्रभु, आपकी जय हो। मैं पापका सेवक हं अतः जो आज्ञा देनी हो दीजिए।' तत्पश्चात् मानो वृहद् भण्डार ही खोल दिया हो इस प्रकार बहुमूल्य रत्न, रत्नों के अलंकार, दिव्य वस्त्र और प्रताप सम्पत्ति के क्रीड़ा-स्थल तुल्य भद्रासन उन्होंने चक्रवर्ती को उपहार में दिए। पृथ्वीपति ने उनकी समस्त वस्तुओं को
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