Book Title: Trishashti Shalaka Purush Charitra Part 1
Author(s): Ganesh Lalwani, Rajkumari Bengani
Publisher: Prakrit Bharti Academy
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पूर्वक जल ग्रहण करने लगे। अति चंचलतावश बार-बार उल्लम्फनकारी अश्क गंगा तट पर तरंगों का भ्रम उत्पन्न करने लगे। गंगा जल में प्रवेश किए हुए हस्ती, भैंस, ऊँट उस श्रेष्ठ सरिता को जैसे चारों ओर से नवीन जाति के मत्स्य समाकुल कर डाला । अपने तट पर अवस्थित राजा के प्रति अनुकल भाव व्यक्त करने के लिए गंगा नदी स्वतरंगों के जलकरणों से उनके सैनिकों की श्रान्ति शोघ्र दूर करने लगी। महाराज भरत की सेना द्वारा सेवित गंगा नदी शत्रुओं की कीत्ति की भांति क्षीण होने लगी। भागीरथी के तट पर अवस्थित देवदारु वृक्ष बिना परिश्रम के हस्तियों के बन्धन स्थल बन गए।
(श्लोक ५६-६५) महावत हस्तियों के लिए पीपल, सल्लकी, कणिधार और उदुम्बर के पत्तों को कुल्हाड़ी से काटते थे। उर्वीकृत कर्णपल्लव से पंक्तिबद्ध अश्व मानो तोरण निर्माण कर रहे हों ऐसे शोभित हो रहे थे। अश्वपाल भ्राता की तरह मूग, मोठ, चने, जौ आदि घोड़ों के सम्मुख रखते थे। महाराज के स्कन्धावार में अयोध्या नगरी की ही भांति अल्प समय में ही तिराहे, चौराहे और दुकानों की पंक्तियां बन गई थीं । एकान्त में बड़े और मोटे कपड़ों के तम्बुओं में रहते समय सैनिकों को अपने गृह भी याद नहीं पाते । खेजड़ी, वेर और केर के वृक्षों की तरह कांटे भरे वृक्षों के पत्ते भक्षणकारी ऊँट सैनिकों के कांटे चुनने का कार्य करते । प्रभु के सम्मुख नौकर की तरह खच्चर गंगा के बालकामय तट पर अपनी चाल चलते और लोट-पोट हो जाते । कोई काठ लाता तो कोई नदी से जल, कोई तृण लाता तो कोई साग-सब्जियां और फल । कोई चूल्हा तैयार करता तो कोई शालि धान कुटता, कोई अग्नि प्रज्वलित करता । कोई चावल बनाता तो कोई घर की भांति एक ओर निर्मल जल से स्नान करता। कोई सुगन्धित धूप से निज को सुगन्धित करता, कोई पैदल सेना को पहले भोजन खिलाकर स्वयं बाद में पाराम से भोजन करता । कोई स्त्रियों सहित अपने अंग में विलेपण करता। चक्रवर्ती की छावनी में सभी वस्तुएँ सहज उपलब्ध थीं। अतः कोई भी ऐसा नहीं सोचता था कि वह सेना में सम्मिलित हुआ है।
(श्लोक ६६-७७) भरत ने वहां एक दिन और एक रात्रि रहकर प्रस्थान