Book Title: Trishashti Shalaka Purush Charitra Part 1
Author(s): Ganesh Lalwani, Rajkumari Bengani
Publisher: Prakrit Bharti Academy
View full book text
________________
१२८]
है । एकान्त रूक्ष और एकान्त स्निग्ध काल में अग्नि कभी प्रकट नहीं होती। तुम उसके पास जो गुल्म तृणादि हैं उन्हें उसके पास सरका दो। फिर उसी अग्नि में पूर्व कथित विधि से तैयार किया हुया शष्य पकायो।' पकने पर उसे खाओ।' (श्लोक ९४२-९४६)
उन अज्ञानियों ने शष्य अग्नि में डाल दिया। अग्नि ने उसे जला डाला । तब वे प्रभु के पास पाकर बोले-'प्रभु, लगता है अग्नि क्षुघार्त है। इस अग्नि में जितना शष्य निक्षेप किया उसने सब उदरस्थ कर लिया। एक दाना भी नहीं लौटाया।' उस समय प्रभु हस्ती पर पारूढ़ थे। उन्होंने उसी समय उन्हें जल में भीगी मिट्टी का पिण्ड लाने को कहा। उस मिट्टी को हाथी के मस्तक पर रखकर हाथ से विस्तृत करते हुए हाथी के मस्तक के आकार का एक पात्र तैयार किया । इस प्रकार शिल्प के मध्य प्रभु ने कुम्हार का शिल्प सर्वप्रथम प्रकट किया । फिर उन्होंने कहा- 'इसी प्रकार और बहुत से पात्र बनायो । उन्हें अग्नि पर रखकर सुखा लो। फिर उसी पात्र में भीगे हुए शष्य रखकर पकायो। शष्य पक्व हो जाने पर पात्र अग्नि से नीचे उतारो, फिर खायो।' उन्होंने प्रभु की आज्ञानुसार समस्त कार्य किया । तभी से प्रथम कारीगर कुम्हार हुआ। फिर प्रभु ने वर्द्ध की प्रर्थात् गृहनिर्माणकारी राजमिस्त्रियों की सृष्टि की। कहा भी गया है महापुरुष जो कुछ भी करते हैं संसार के मंगल के लिए ही करते हैं । घर में चित्र बनाने और क्रीड़ा के लिए प्रभु ने चित्रकला की शिक्षा देकर अनेक लोगों को चित्रकार बना दिया। वस्त्र बुनने के लिए जुलाहे तैयार किए। कारण, उस समय सभी कल्पवृक्षों के स्थान पर प्रभु ही एकमात्र कल्पवृक्ष थे। लोगों को केश और नख बढ़ जाने से कष्ट उठाते देख उन्होंने नाई बनाए । इन पांच शिल्पों में(कुम्हार, राजमिस्त्री, चित्रकार, जुलाहा और नाई) प्रत्येक के बीस-बीस भेद हए। इससे वे शिल्प नदी के प्रवाह की तरह एक सौ रूप में विस्तृत हुए (अर्थात् शिल्प एक सौ प्रकार का हुया)। लोगों की जीविका के लिए प्रभु ने घसियारा, लकड़हारा, किसान और वणिक कार्य की शिक्षा दी। उन्हों ने साम, दाम, दण्ड, भेद नीति का प्रवर्तन किया। ये चार प्रकार की नीतियां जगत् की व्यवस्था रूप नगरी के मानो चार पथ थे।
__ (श्लोक ९४७-९५९) ज्येष्ठ पुत्र को ब्रह्म कहना उचित है । इसी दृष्टि से भगवान्