Book Title: Trishashti Shalaka Purush Charitra Part 1
Author(s): Ganesh Lalwani, Rajkumari Bengani
Publisher: Prakrit Bharti Academy
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नाद से आकाश और पृथ्वी का मध्यवर्ती अन्तरिक्ष भर उठा। गोपों की शृगध्वनि सुनकर जैसे गायों का समूह चलना प्रारम्भ कर देता है वह सार्थ भी उसी प्रकार भेरी की ध्वनि सुनकर चलने लगा।
__ (श्लोक २१८-१९) जैसे सूर्य किरण-जाल से आवेष्टित होकर चलता है वैसे ही भव्य जीव रूपी कमल को बोध देने में प्रवीण धर्मघोष प्राचार्य भी मुनिवरों द्वारा परिवृत होकर चलने लगे। सार्थ की रक्षा के लिए सामने पीछे दाएं-बाएँ रक्षक नियुक्त कर श्रेष्ठी भी चलने लगे। सार्थ जब उस महारण्य को अतिक्रम कर गया तब प्राचार्य श्रेष्ठी की अनुमति लेकर अन्य दिशा की ओर विहार कर गए।
(श्लोक २२०-२२२) नदी समूह जिस प्रकार समुद्र में गमन करता है वैसे ही धन श्रेष्ठी भी समस्त पथ सकुशल अतिक्रम कर बसन्तपुर नगर में उपस्थित हुए। वहाँ कुछ काल अवस्थान कर लाया हुआ पण्य विक्रय किया एवं नया पण्य क्रय किया। फिर मेघ जैसे समुद्र से जलपूर्ण होते हैं उसी प्रकार श्रेष्ठी भी धन ऐश्वर्य से परिपूर्ण होकर वहाँ से प्रत्यावर्तन कर क्षितिप्रतिष्ठितपुर में लौट आए। इसके कई वर्षों पश्चात् आयु शेष होने पर उनकी मृत्यु हो गई।
(श्लोक २२३-२२६) द्वितीय भव मुनि को सुपात्र दान देने के फलस्वरूप धन श्रेष्ठी ने उत्तर कुरुक्षेत्र में युगल रूप में जन्म ग्रहण किया। वहाँ सब समय सुख पाराम वर्तमान रहता है । वह स्थान सीता नदी के उत्तर तट पर जम्बू वन के पूर्व भाग में है। इन युगलियों की आयु तीन पल्योपम की एवं देह तीन कोश लम्बी होती है। उनकी पीठ में २५६ अस्थियाँ होती हैं । वे अल्प कपायी और ममता रहित होते हैं। तीन दिन में मात्र एक बार उनको खाने की इच्छा होती है । प्रायु के शेष भाग में स्त्री-युगल केवल एक बार गर्भ धारण करती हैं और उसके युगल (एक पुत्र एक कन्या) उत्पन्न होते हैं। सन्तान के उनचालीस दिवस का हो जाने पर माता-पिता की मृत्यु हो जाती है। वहाँ से वे देवलोक में जाकर उत्पन्न होते हैं। उत्तर कुरुक्षेत्र की मिट्टी स्वभावतः ही शर्करा की भाँति मीठी होती है, जल शरदकालीन चन्द्रमा को