Book Title: Trishashti Shalaka Purush Charitra Part 1
Author(s): Ganesh Lalwani, Rajkumari Bengani
Publisher: Prakrit Bharti Academy
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इस प्रकार विचार करके उन चक्रवर्ती ने धर्म चक्रवर्ती केवली से भक्ति गद्गद् कण्ठ से निवेदन किया-'हे प्रभु, दूब जैसे खेत को विनष्ट कर देता है उसी प्रकार अर्थ साधन प्रतिपन्नकारी नीतिशास्त्र ने मेरी बुद्धि को विनष्ट कर दिया है। विषय लोलप होकर मैंने विभिन्न रूप धारण कर इस पात्मा को नट की भाँति दीर्घकाल तक नचाया है। मेरा यह साम्राज्य अर्थ और काम के लिए ही है । इसमें रहकर धर्म का जो अनुचिन्तन किया जाता है वह भी पापानुबन्धी ही होता है। मैं यदि आप जैसे पिता का पुत्र होकर भी संसार-समुद्र में पथ-भ्रष्ट होता हूँ तो मुझमें और सामान्य मनुष्य में अन्तर ही क्या है ? इसलिए मैंने जिस प्रकार आप द्वारा प्रदत्त राज्य का पालन किया उसी प्रकार अब ग्राप संयमरूपी राज्य मुझे दीजिए मैं उसका पालन करूगा।' (श्लोक ८२७-८३२)
अपने वंश रूपी आकाश में सूर्य समान चक्रवर्ती वज्रजंघ ने अपने पुत्र को राज्य देकर भगवान् से दीक्षा ग्रहण कर ली। पिता एवं ज्येष्ठ भ्राता ने जो व्रत ग्रहण किया वही व्रत सुबाहु ग्रादि भाइयों ने भी ग्रहण कर लिए। कारण, उनकी कूलरीति यही थी। सुयश सारथी ने भी अपने प्रभु के साथ ही दीक्षा ग्रहण कर ली। सेवक प्रभु का अनुकरणकारी ही होता है। (श्लोक ८३३.८३५)
वज्रनाभ मुनि ने अल्प दिनों के मध्य ही शास्त्र समुद्र अतिक्रमण कर लिया। इसलिए वे एक अङ्ग शरीर में प्रत्यक्ष द्वादशांगी तुल्य लगने लगे । सुबाहु अादि अन्य भाइयों ने ग्यारह अङ्ग अधिगत कर लिए। ठीक ही कहा गया है-क्षयोपशम से प्राप्त विचित्रता के लिए गुण सम्पत्ति भी विचित्र होती है। यद्यपि वे सन्तोषरूपी धन से धनी थे फिर भी वे तीर्थंकर भगवान् की चरण सेवा रूप दुष्कर तप करने पर भी असन्तुष्ट थे। एक मास से अधिक तपस्या होने पर भी वे निरन्तर तीर्थंकर की वाणी रूप अमृत का पान करने में कभी ग्लानि महसूस नहीं करते । भगवान् वज्रसेन ने उत्तम शुक्ल ध्यान में निर्वाण पद प्राप्त किया। देवताओं ने उनका निर्वाणोत्सव मनाया।
(श्लोक ८३६-८४०) वज्रनाभ मुनि धर्म भ्राता की भांति अपने साथ दीक्षित मुनियों के साथ पृथ्वी पर विचरण करने लगे। अन्तरात्मा से जैसे पाँच इन्द्रियाँ सनाथ होती हैं उसी प्रकार, वज्रनाभ स्वामी के द्वारा