Book Title: Trishashti Shalaka Purush Charitra Part 1
Author(s): Ganesh Lalwani, Rajkumari Bengani
Publisher: Prakrit Bharti Academy
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भ्रमर गुजित कमल रखे हुए थे इससे लगता था जैसे वे भगवान् का प्रथम स्नात्र मंगल पाठ कर रहे हो । कलश ऐसे प्रतीत होते थे जैसे वे पाताल कलश हो और प्रभु को स्नान कराने के लिए ही लाए गए हों। अपने सामानिक देवताओं सहित अच्युतेन्द्र ने उन एक हजार पाठ कलशो को इस प्रकार उठाया जैसे वे उनकी सम्पत्ति का फल हो। दोनों बाहुओं के अग्रभाग स्थित ऊपर उठाए हुए वे कलश मृणालयुक्त कमल कलिका का भ्रम उत्पन्न करते थे। फिर अच्युतेन्द्र ने अपने मस्तक के साथ कलश को जरा झुकाकर जगत्पति को स्नान कराना आरम्भ किया।
(श्लोक ४९४-५०४) उसी समय कुछ देवताओं ने गुफाओं से लौटकर आने वाली प्रतिध्वनि द्वारा मेरुपर्वत को वाचाल कर आनक नामक मृदङ्ग बजाना प्रारम्भ किया। भक्ति से तत्पर अन्य देवतागण समद्र मंथन कालीन ध्वनि-सी ध्वनित दुन्दुभि बजाने लगे। फिर अन्य देवतागण भक्ति से उन्मत्त होकर सागर तरंगों में प्रतिहत पवन की भांति आकुल ध्वनिकारी झांझ बजाने लगे। कुछ देवता जैसे ऊर्ध्वलोक में जिनादेश विस्तृत कर रहे हो इस प्रकार उच्च मुख सम्पन्न भेरी बजाने लगे। अन्य देवता मेरुपर्वत के शिखर पर आरूढ़ होकर गोपगण जैसे शृग ध्वनि करते हैं उसी प्रकार उच्च निःस्वनकारी काहल नामक वाद्य बजाने लगे। कुछ देवगण (भगवान् के जन्माभिषेक की घोषणा करने के लिए) दुष्ट शिष्य को जिस प्रकार हाथ से पीटा जाता है उसी प्रकार हाथों से पीटकर मुरज नामक वाद्य बजाने लगे। कुछ देवता वहां आए। असंख्य सूर्य और चन्द की प्रभा को हरणकारी सुवर्ण और रौप्य की झालरें बजाने लगे। अन्य देवगण मुख में जैसे अमृत का गण्डूष भरा हो इस प्रकार अपने उन्नत मुख को फुला-फुलाकर शंख बजाने लगे। इस प्रकार देवताओं द्वारा बजाए हुए विभिन्न प्रकार के वाद्यों की प्रतिध्वनि से आकाश वाद्य न होने पर भी एक वाद्य ही बन गया।
(श्लोक ५०५-५१३) चारण मुनिगण उच्च स्वर से बोले-'हे जगन्नाथ, हे सिद्धगामी, हे कृपासागर, हे धर्म-प्रवर्तक, आपकी जय हो, आप सुखी हो।'
(श्लोक ५१४)