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त्रिलोकसारा
गाथा : ८३-८४ [असंख्यात लोक प्रमाण शलाका राशि, मसंख्याप्त लोक प्रमाण विरलन राशि और असंख्यात लोक प्रमाण देय राशि ] रूप स्थापित कर, विरलन राशि को विरलित कर, प्रत्येक अंक पर देय राशि देकर वगित संवर्णित करना चाहिए। तीसरी बार की शलाका राशि के समाप्त होने तक इसी (पूर्वोक्त ) प्रकार करते रहना चाहिए। तब अन्योन्याभ्यस्त गुणकार राशि, वर्गशलाका राशि, अर्धच्छेद राशि और उत्पन्न हुई महान राशि, ये चारों राशियां अपने अपने योग्य असंख्यातलोक प्रमाण हो जाती हैं।
तृतीयबार शलाका राशि के समाप्त होने पर उत्पन्न हुई राशि को फिर भी तीन रूप . [असंख्यात लोक प्रमाण पालाका राशि, असल्यास को प्रमाण विरलन राशि एवं असंख्यात लोक प्रमाण देय राशि } स्थापित करके, विरलन राशि को विलित कर, प्रत्येक अंक पर देय राशि देकर कगित संगित करने पर चतुर्थ वार शलाका राशि में से एक कम करना चाहिए । इस प्रकार पुन: पुन: तब सक एक एक कम करना चाहिए जब तक कि अतिक्रान्त बन्योन्याभ्यस्त गुणकार शलाका मे होन यसुर्यवार स्थापित झालाका राशि समाप्त न हो जाए ( अर्थात् तृतीयशलाका निष्ठापन - परिसमाप्ति पर जो अन्योन्याभ्यस्त गुणकार शलाका राशि उत्पन्न हुई थी वह तृतीय शलाका राशि का उल्लंघन कर उत्पन्न हुई है, अतः अतिकान्त अन्योन्याभ्यस्त गुणकार शलाका राशि कहा गया है। इस राशि को स्तुर्थवार स्थापित शलाका राशि में से घटाने पर जो राशि अवशेष रहती है वही अर्धशलाका राशि मानी गई है। प्रत्येक बार वगित संगित करते हुए उस अर्धशलाका राशि में से एक एक कम करते रहना चाहिए। जब यह शेष ( चतुर्थ वार स्थापित शलाका राशि - अतिकान्त अन्योन्याभ्यस्त गुणकार पालाका राशि) अशलाका राशि समाप्त हो जाए, तव जो महान राशि प्राप्त होती है वह तेजस्कायिक जीव राशि के प्रमाण स्वरूप ही उत्पन्न होती है।
इस प्रकार साढ़े तीन बार शलाका राशि स्थापित करने पर जितनी गुणकार शलाकाएँ उत्पन्न होती है उतनी ही यहां पर ,गुणकार शलाका कही गई हैं। यह गुणकार शलाका राशि का विवरण है। वर्गशलाका राशि से गुणकार शलाका राशि अल्प हैं ऐसा इस कथन से जानना चाहिए ।
- तेजस्कायिक जीवराशि की गुणकार शालाका राशि से असंख्यात वर्गस्थान आगे जाकर सेजस्कायिक जीव की कायस्थिति की वर्भशलाकाएँ प्राप्त होती है। वर्गशलाकाओं से असंख्यातवर्गस्थान ऊपर जाकर उसीको अर्धच्छेदशलाकाएँ प्राप्त होती हैं। अघच्छेद शलाकाओं से असंख्यात वर्ग स्थान ऊपर जाकर उसीका प्रथम मुल प्राप्त होता है। उस प्रथम वर्गमूल का एक बार वर्ग करने पर तेजस्कायिक जीव की कास्थिति का प्रमाण प्राप्त होता है। तेजस्कायस्थिति से क्या प्रयोजन है | पृथिवी जल मावि अन्य काम से आकर तेजस्कायिक में उत्पन्न हुए किसी एक जोब का उत्कृष्ट रूप से तेजस्कायिक पर्याय को छोड़े बिना उसी में अवस्थित रहने का जितना काल है अर्थात् उस काल के जितने समय हैं वह कायस्थिति है। तेजस्काय स्थिति से असंख्यात वर्गस्थान ऊपर जाकर सर्वावधि ज्ञान के उत्कृष्ठ क्षेत्र की वर्गशलाकाएँ प्राप्त होती हैं। वर्गशलाकामों से असंग्यात वर्गस्थान ऊपर जाकर उसी