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गाथा : ३५२-३५३ ज्योतिलोकाधिकार
२६५ सूर्य में दूसरे सूर्य का हुआ। हममें से चन्द्र बिम्ब का विस्तार योजन और सूर्य बिम्ब का विस्तार
योजन कम कर देने पर उनका बिम्ब रहित अन्तर इस प्रकार प्राप्त हो जाता है-विम्ब सहित मन्तराल का प्रमाण १०१०१७ योजन था । इसमें से एक योजन निकाल ( १०१०१५-१=१०१०१६ । कर इगमें प्रयोजन जो अवशेष थे उन्हें लघुत्तम विधान में मिलाने पर- अति FAMIN हुआ इसमें से चन्द्र बिच का प्रमाण योजन और सूर्य बिम्ब का प्रमाण । योजन घटा देने पर = १०५५ - ३४, योजन अर्थात् १०१०१६३४६ योजन बिम्ब सहित एक पार से दूसरे कन्द्र का अार प्राप्त होता है। इसी प्रकार 10-11 ५०१३-११-१४ योजन अर्थात् १०१०१६VE योजन बिम्ब रहित एक सूर्य से दूसरे सूर्य के अन्तर का प्रमाण प्राप्त होता है ।
सर्व वलय सम्बन्धी चन्द्र अभिजित् नक्षत्र पर और सर्व वलय सम्बन्धी सर्य पुष्य नक्षत्र पर स्थित है । अर्थात नक्षत्रों के विमान नीचे और चन्द्र सूर्य के विमान ऊपर हैं। . अथासंपल्यानद्वीपममुद्रगतचन्द्रादिसंख्यानयने गच्छमानयन् तत्कारणभूतासंख्यात द्वीपसमुद्रसंख्या गाथाष्टकेनाह
रज्जद लिदे मंदिरमशादो चरिमसायरतोचि । पड़दि तदद्ध तस्स दु अब्भतरवेदिया परदो ।। ३५२ ।। दयगुणपण्णतरिमयजोयणमुवगम्म दिस्सदे जम्हा । इगिलकाबाहिभो एक्को पुचमसम्वहिंदी वेहि || ३५३ ।। रज्जूदलिते मन्दरमध्यतः चरमसागरान्त इति । पतति तदधं तस्य तु अभ्यन्तरवेदिका परतः ॥ ३५२ ।। दशगुणपक्षसप्ततिशनयोजनमुपगम्य दृश्यते यस्मात् ।
एकलक्षाधिकः एकः पूर्वगसर्वोदधिद्वीपेभ्यः ।। ३५३ ।। रज्जू । रज्जूबलने कृते सति मन्दरमाध्यतः प्रारभ्य चरमसागरान्तं यावद तावत गरवा पतति सस्या पुनरमभितायां तस्य परमसागरस्याभ्यन्तरविकापरता ॥ ३५२ ॥
पस । बागुणपञ्चसप्ततिशत ७५००० योजनमुपगम्य रम्जुश्यते । हुत इति चेह । पस्मात कारणात पूर्वस्पितेभ्यः सर्वोषियोपेभ्यः सकाशात उत्तरः एकः कश्चिदीपा समुद्रो वा एकलक्षाधिका। एतदेव स्पष्टीकरोति । एक ३२ ल०, स्वयम्भूरमाणं सम्व जम्बूद्वीपातालकसहित सई द्वीपसमुद्रवलयल्यासाडू ५००० । २. ४ ल०। ८ ल.। १६ ला० । ३२ ला इत्यादि मेलयिस्या ६२५०००० कृते ३१२५००० वितीयवार विमरणसुप्रमाणं । तस्मिन् सम्मारामतानसर्यवलयम्यासे